Tuesday, June 3, 2008

लड़कियों की मंडी

राजेश अग्रवाल

कुनकुरी, छत्तीसगढ़ से
जशपुर जिले का लुड़ेग बीते कुछ दशकों में टमाटर की खूब फसल के कारण प्रसिध्द था. मिट्टी और मौसम अनुकूल होने के कारण यहां के आदिवासियों ने इसे खूब उगाया. कई बार तो ऐसी नौबत आई कि टमाटर खेतों में ही सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता था, क्योंकि बाजार तक लेकर जाने में परिवहन का खर्च भी निकल नहीं पाता था. यहां कई बार मांग हुई कि टमाटर पर आधारित उद्योग लगा दिये जाएं जिससे आदिवासी किसानों का जीवन स्तर ऊपर उठ जाएगा. लेकिन इस पिछड़े इलाके के लिए कुछ नहीं सोचा गया.

सबकी किस्मत ऐसी कहां

ललिता के अनुसार उसे हर महीने अच्छी पगार मिलती है लेकिन गांव की दूसरी लड़कियों की किस्मत ललिता जैसी नहीं है.

पिछले कुछ वर्षों से जशपुर और सरगुजा जिले में एक नई तरह की फसल तैयार हो रही है. उसे बाजार भी खूब मिल रहा है. ये फसल हैं इस इलाके के निर्धन आदिवासी उरांव परिवारों की नाबालिग लड़कियां और बाजार बने हुए हैं दिल्ली गोवा जैसे देश के महानगर. इस फसल को खाद-बीज दे रहे हैं उनके अपने निकट सम्बन्धी और बिचौलिये का काम कर रही हैं, दिल्ली में काम कर रही 200 से ज्यादा प्लेसमेन्ट एजेंसियां.


लड़कियां टमाटर तो होती नहीं. उनकी धमनियों में रक्त का संचार होता है. मन है, जो पंख लगाकर आकाश में उड़ना चाहता हैं. ह्रदय है जिसमें सुख-दुख मान
,अपमान, स्वाभिवान कष्ट और प्रसन्नता महसूस कर सकती है. पर सरगुजा और जशपुर इलाके के गांवों में 3 दिन भटकने के बाद महसूस हुआ कि इन सब भावनाओं को व्यक्त करने का अधिकार केवल उनको है, जिनके पेट भरे हो.

नकी आंखों में आंसू भी आते हैं तो रोककर रखना होगा, बाप को बेटी से बिछुड़ने और बेटी को घर की याद आने पर भी दोनों विवश हैं. पुलिस व प्रशासन की मदद नहीं मिलने की आशंका से अभिभावकों के पैरों में बेड़ियां लग गई हैं और बेटियां तो पता नहीं कहां नजरबंद है या घुटन भरी कोठियों में बीमार पड़ गई या मार डाली गई.

कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए ऐसी लड़कियों की संख्या सैकड़ों में है, जो एक बार निर्जन जंगल में बनी अपनी झोपड़ी से महानगरों की भूल-भुलैया में अपना भविष्य संवारने का सपना लिए निकल पड़ी और फिर उनका कुछ पता नहीं चला.
सीतापुर ब्लाक के बेलगांव की ललिता एक्का पिछले सात साल से दिल्ली के एक मीडिया हाऊस में झाड़ू पोछे का काम कर रही है. 6वीं तक पढ़ी 19 साल की ललिता से जब हम मिले तो वह संकोच झिझक उसकी आंखों व हाव-भाव व पहनावे में नहीं थे, जो अक्सर इस गांव की लड़कियों में दिखाई देती है.

सपनों के सौदागर

उसने चहककर अंग्रेजी पुट में बताया कि वह पिछले सात सालों से दिल्ली में है और उसे कोई तकलीफ नहीं है. उसकी तनख्वाह बढ़कर अब 4500 रूपये हो गई है, हर माह एक निश्चित तारीख को चेक से इसका भुगतान हो जाता है. साल में एक बार अपने माता-पिता से मिलने के लिए आती हैं, और सबको कुछ न कुछ उपहार व नगदी दे जाती है. बीच-बीच में वह मनीआर्डर भी करती रहती है. जब उससे प्रस्ताव किया गया कि हमें भी दिल्ली में एक घरेलू नौकरानी की जरूरत है, उसने झट से अपना मोबाइल नम्बर दे दिया और कहा कि वह इसका प्रबंध दिल्ली पहुंचते ही कर देगी.

लेकिन हर लड़की का भाग्य ललिता की तरह नहीं है. इसकी तरह कई 'कामयाब' लड़कियों के किस्से गांव में हाथ बांधे बैठी लड़कियों के मन में कुलाचे मारने के लिये काफी है. ललिता तो इस बात से इंकार करती है कि वह किसी प्लेसमेन्ट एजेंसी के लिए काम करती है और लड़कियों को बहला-फुसला कर ले जाने के धंधे में शामिल है पर ज्यादातर दलाली का काम इसी तरह की लड़कियां और स्थानीय युवक कर रहे हैं.

इनकी नजर अपने ही रिश्तेदारों की 8 से 16 साल के बीच की लड़कियों पर होती है. उन्हें झांसा दिया जाता है कि दिल्ली में अच्छा खाना व कपड़ा मुफ्त मिलेगा साथ ही आकर्षक तनख्वाह भी. वहां बड़े-बड़े बंगले हैं, चौड़ी सड़कों पर सरपट दौड़ती एसी गाड़ियां हैं, जिनमें मेमसाहब के साथ मार्केट जाने का मौका मिलेगा. लेकिन वहां जाने के बाद धकेल दी जाती हैं, प्लेसमेंट एजेंसियों के दफ्तरों में, जो किसी काल-कोठरी से कम नहीं. लड़के-लड़कियों को तंग कमरों में रखा जाता है, वहां इन लड़कियों के साथ क्या-क्या होता है, अनुमान लगाना कठिन नहीं है. यह सिलसिला साहबों के बंगलों में भी खत्म नहीं होता.

जशपुर जिले के दुलदुला थाना के अंतर्गत आने वाले चटकपुर गांव की शशिकांता किण्डो को जुलाई 2006 में गांव की ही अनिता और विमला अच्छी नौकरी दिलाने का आश्वासन देकर ले गये थे. वहां पहुंचने के बाद चिराग, दिल्ली के एक प्लेसमेंट एजेंट राजू अगाथा ने हिमांशु बख्शी के यहां नौकरी दिलाई. वहां मालकिन नमिता ने कुछ दिनों तक तो ठीक रखा पर बाद में उसे घर से निकलने भी नहीं दिया जाता था. जब भी शशिकांता गांव वापस लौटने की जिद करती थी, उसे जल्द ही छोड़ देने का भरोसा दिलाया जाता था.

और सपनों का कत्ल...

इधर गांव में शशि की मां प्रमिला और पिता विन्सेन्ट लकड़ा परेशान हो रहे थे. जब भी वे अपनी बेटी से फोन पर बात करने की कोशिश करते थे, मकान मालकिन उन्हें बात कराने से कोई न कोई बहाना बना देती थी. परेशान होकर उन्होंने दुलदुला थाने में शिकायत कर दी. मालकिन ने तब शशिकांता को धमकाया और उसकी शादी जबरदस्ती उसी अपार्टमेन्ट में वाचमैन का काम करने वाले रविन्द्र कुमार यादव से करा दी. रविन्द्र उसे अपने कमरे में लेकर रहने लगा.

इधर मालकिन से जब शशिकांता से बात कराने कहा जाता था तो उन्होंने कह दिया कि लड़की शादी कर चुकी है और अब उसके पास नहीं है. बहदवास मां अपनी भाई की पत्नी थेलमा के साथ दिल्ली पहुंची. थेलमा 10 साल से दिल्ली में ही रहती थी. रविन्द्र से शशिकांता के बारे में बात की जाती थी तो वह धमकियां देता था, झूठ बोलता था. बाद में उसने यह भी सफाई दी कि वह शशिकांता से शादी करना नहीं चाहता था, उसकी शादी तो पहले ही हो चुकी है और उत्तरप्रदेश के गांव में बीवी बच्चे रहते हैं. यह सब तो शशि की मालकिन के दबाव में उसे करना पड़ा.

सपने बेचने वाले

दिल्ली में तकरीबन 200 प्लेसमेंट एजेंसियां है, जो छत्तीसगढ़ के सरगुजा, जशपुर के अलावा झारखंड के रांची, गुमला, पलामू आदि इलाकों से आदिवासी लड़कियों को घरेलू नौकरानी का काम दिलाने आकर्षित करती हैं. उनके निशाने पर हैं उरांव आदिवासी, जिनमें से अधिकांश ने यहां पर पिछले 5 दशकों से सक्रिय मिशनरियों के प्रभाव में आकर इसाई धर्म अपना लिया है.

ज्यादातर प्लेसमेंट एजेंसियों के संचालक उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड के संदिग्ध प्रवृति के लोग हैं. पहले ये खुद आकर लड़कियों को तलाश कर ले जाते थे लेकिन पिछले दो साल से जब इनके खिलाफ अंचल में आवाज उठने लगी है तो उन आदिवासी लड़की लड़कों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो इन गांवों से पहले से ही निकलकर दिल्ली पहुंच चुके हैं. प्लेसमेंन्ट एजेंसियों ने स्वयंसेवी संगठनों और सरकारी विभागों की आंख में धूल झोंकने के लिए बहुत से नियम कायदे बना रखे हैं. जिनमें से एक यह भी है कि नाबालिग लड़कियों को काम पर नहीं रखा जायेगा. पर उनके निशाने पर 8 से 14 साल की लड़कियां ही हैं. प्लेसमेंट एजेंसियां चलाने वाले ऐसी लड़कियां लाने वाले दलालों को आने-जाने का खर्च और 5 से 15 हजार रूपये तोहफे के तौर पर देते हैं.

शशि अपनी जान बचाकर गांव लौट गई है. उनके मां-बाप कहते हैं कि अब किसी सूरत में इसे दिल्ली या और कहीं नहीं भेजेंगे. इकलौती बेटी की शादी यहीं किसी अच्छे लड़के से कर देंगे.

हैरत की बात है कि कई बार छोटी उम्र की लड़कियां मां-बाप या भाईयों से नाराज होकर भी घर छोड़कर भागती हैं तो बहुत दूर निकल जाती हैं और कई साल तक घरों की ओर दुबारा नहीं झांकती. पर जब लगातार प्रता़ड़ित हो जाती हैं और कैद होकर रह जाती हैं तो हर तरह का जोखिम उठाकर गांव वापस भाग आती हैं.

लुड़ेग के पास घुरूआम्बा की रमिला टोप्पो के साथ ऐसा ही हुआ. गांव वालों ने बताया कि इस लड़की को गुजरात में किसी घर में नजरबंद कर लिया गया था. उसे घर से निकलने नहीं दिया जाता था और उसके हाथ में कोई पैसा नहीं दिया जाता था. किसी तरह एक सहेली से उसने टिकट के पैसे का प्रबंध किया और जिस कपड़े को पहने हुए थी, उसी में भाग निकली.

दो दिन बाद कुनकुरी पहुंची और 11 किलोमीटर पैदल चलकर रात के 9 बजे घर पहुंची. 6 साल बाद अपनी बेटी को घर पर बहदवास, बीमार हालत में देखकर अनपढ़ मां-बाप की आंखों में आंसू आ गए. वे अपनी बेटी के वापस मिलने की उम्मीद ही खो चुके थे. दूसरी तरफ रमिला जो कहानी बताती है उसके अनुसार वह अपने भाई ने मारपीट की तो नाराज होकर वह भाग गई. गांव से वह सीधे रायगढ़ में मदर टेरेसा अनाथ आश्रम में चली गई और वहां से इंदौर के एक अनाथाश्रम में भेज दिया गया. फिर वहां से सूरत के एक मिशनरी संचालित अनाथाश्रम में रख दिया गया. लगातार वहीं रह रही थी.

रमिला की मानें तो इन अनाथाश्रमों में उसे कोई तकलीफ नहीं थी. खाने और कपड़े दिये जाते थे और पढ़ाई कराई जा रही थी. वह अपनी कहानी बताते वक्त कई बार ठिठकती रही तथा बीच-बीच में अपनी ही कई बातों को झुठला रही थी. जब वहां कोई तकलीफ नहीं थी तो भागकर क्यों आना पड़ा, पूछने पर वह कहने लगी कि घर की याद आ रही थी.

इतने सालों तक सम्पर्क क्यों नहीं किया? वह कहती है कि चूंकि उसने सभी जगहों पर खुद को अनाथ बताया था इसलिये किसी से कहते नहीं बना कि वह घर के लोगों को चिट्ठी लिखना चाहती है या उनसे फोन पर बात करना चाहती है. रमिला जब घर से अकेले निकली तो उसकी उम्र 9 साल के करीब थी. 6 साल बाद लौटने के बाद वह जसपुरिया बोली लगभग भूल गई है और अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी में बात कर रही है. वह कम्प्यूटर सीखने और पढ़ाई करने की इच्छा रखती है, इसके लिये रायगढ़ या रांची के किसी बड़े स्कूल में दाखिला लेना चाहती है.

जो लौट के घर न आए

अब उनके गरीब मां-बाप इतने साल बाद मिले अपनी बच्ची को बाहर नहीं भेजना चाहते. साथ ही गरीबी के कारण बहुत बड़े स्कूल में बाहर पढ़ाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे हैं. लेकिन रमिला ने उन्हें साफ कह दिया है कि वह गांव में नहीं रहना चाहती. दिल्ली से गये मीडिया के कुछ लोगों ने रमिला को टटोला तो वह तुरंत उनके साथ दिल्ली निकल चलने के लिए तैयार हो गई.
सरगुजा जिले के बतौली गांव की 14 साल की तारिणी घर से तो निकली थी, पड़ोस में सरसों की भाजी छोड़ने के लिये, लेकिन वह निकल गई दिल्ली. पिता भण्डारी और मां मुनारो किन्डो कुछ दिन बाद यह जानकर कुछ राहत महसूस कर सके कि वह अपने मामा की लड़की प्रमिला के साथ निकली है, जो पहले से ही दिल्ली आती जाती रहती है. बतौली ब्लाक मुख्यालय और उसके आसपास के गांवों से प्रमिला की तरह ही कई नजदीकी रिश्तेदारों ने लड़कियों को घरेलू नौकरानी के लिए काम पर पहुंचाया है, जिनमें से तारिणी समेत कम से कम 7 लड़कियों का आज पता नहीं है कि वे कहां हैं.

तारिणी का फोन साल भर तक आता रहा- कुशलता है, यह बताती रही पर पिछले दो साल से उनका कुछ पता नहीं है. ऐसा ही दुखड़ा बिश्वास नाम की महिला का है जिसकी बेटी सलबिया को कछारडीह के राजेश मिंज नाम का युवक काम दिलाने के बहाने दिल्ली ले गया. भण्डारी और मुनारो अपनी बेटी के नहीं मिलने को लेकर एक दूसरे पर दोष मढ़ते हैं.

मां सफाई देती है कि उसने अपनी बेटी को दिल्ली जाने के लिये मदद बिल्कुल नहीं की. भण्डारी कहता है कि मुनारो के भाईयों के घर के लोगों से वह कई बार अपनी बेटी को वापस लाने के लिये झगड़ चुका है, पर रिश्तेदारी के कारण ज्यादा दबाव नहीं बना पा रहा है. पुलिस में शिकायत क्यों नहीं करते? पूछने पर सब पीड़ित खामोश हो जाते हैं, फिर दबी जबान से बताते हैं कि चूंकि उन्होंने लड़कियों के जाने के बहुत दिन तक कोई शिकायत इस उम्मीद से नहीं की कि लड़की लौटकर आ जाएगी और जब देर हो जाती है तो पुलिस डांटकर भगा देती है.

इस तरह के उदाहरण सरगुजा और जशपुर अंचल के तकरीबन हरेक गांव में मिलेंगे. कुछ लड़कियों ने बाहर में ही कथित रूप से शादी भी कर ली और अपने बच्चे को मां-बाप के पास छोड़कर फिर वापस लौट गईं.
लड़ाई जारी है

उरांव-इसाई लड़कियों का मामला होने के कारण जशपुर जिले के कुनकुरी में स्थापित एशिया के दूसरे सबसे बड़े चर्च के संचालकों ने एक स्वयंसेवी संस्था ग्रामीण विकास केन्द्र का गठन किया है, जिसमें ह्यूमन ट्रेफेकिंग रोकने के लिये अलग से सेल भी बनाया गया है. इसी तरह की सक्रियता सरगुजा के बिशप हाऊस में भी दिखाई गई है, जहां आशा एसोसियेशन गठित किया गया है.

दोनों संगठनों ने मिलकर पदयात्रा और सभाओं के जरिये आदिवासियों के बीच जागरूकता लाने की कोशिश की है, जिससे नाबालिग लड़कियों का शारीरिक शोषण रूक सके. अनेक पर्चे छपवाये गये हैं जिनमें यह बताया गया है कि प्लेसमेंट एजेंसियों में लड़कियों को लड़कों के साथ घुटन भरे छोटे से कमरों में तब तक रखा जाता है, जब तक उन्हें अच्छी पेशगी देने वाला कोठी मालिक नहीं मिल जाता. इन प्लेसमेंट एजेंसियों में बंगलों के 'अनुकूल' बनाने के लिए अश्लील फिल्में दिखाई जाती है, लड़कियों को झांसे में लेकर या उन पर दबाव डालकर उनके साथ बलात्कार भी किया जाता है. कई बार लड़कियां गर्भवती भी हो चुकी है. कुछ लड़कियों को तो भेद खुलने के डर से मार डाला गया और दिल्ली में कहीं पर दफना देने के बाद उनके अभिभावकों को सूचना दी गई है. उनके स्वास्थ्य पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता. कोठियों में ऐसा ही व्यवहार किये जाने की शिकायत है.

मालिक जहां यौन शोषण के लिये उतावला होता है, वहीं बड़ी मुश्किल से, दलालों और प्लेसमेन्ट एजेंसियों के पीछे काफी खर्च कर मिली बालिका को मालकिन किसी कीमत पर नहीं छोड़ना चाहती. उनको कई-कई दिनों तक भूखा रखा जाता है. सीढ़ी, बरामदों में बिना चादर कम्बल के खुले फर्श पर सुलाया जाता है. घर के पुरूष उनकी तरफ निगाह नहीं डालें, इसके लिये उसे मैले कुचैले कपड़ों में रखा जाता है, यहां तक कि बाल न बनाए, इसलिये कंघी भी नहीं दी जाती.

ग्रामीण विकास केन्द्र की सिस्टर्स ने जब कुछ प्लेसमेंन्ट एजेंसियों और घरों में अपनी बहनों को तलाश करने के बहाने से दिल्ली का दौरा किया तो इस तरह के कई वाकये देखे.


स्वयंसेवी संगठनों के अभियान और इनके दबाव पर पुलिस से मिल रहे सहयोग के चलते कहीं-कहीं आदिवासी परिवारों में जागरूकता दिख रही है, पर नाबालिग लड़कियों का व्यापार थमा नहीं है.


सरगुजा से संचालित आशा एसोसियेशन के नौशाद अली कहते हैं कि यहां गरीबी इतनी है कि मां-बाप चाहकर भी अपने बच्चों पर नियंत्रण नहीं कर पाते. दूसरे समुदाय गरीबी को अपनी नियति मानकर चुप रह जाते हैं पर यहां के उरांव-इसाईयों में खुलापन है, जिसके चलते लड़कियां कुछ बनकर दिखाना चाहती हैं और प्रताड़ित होने, शोषण होने, कठोर श्रम कराये जाने की शिकायतों के बावजूद गांवों में पसरे खालीपन से मुक्ति पाने की इच्छा से निकल जाती हैं.

दूसरी ओर ग्रामीण विकास केन्द्र की सिस्टर सेवती पन्ना का कहना है कि मामला केवल गरीबी का नहीं है, कई ऐसे परिवारों की लड़कियां भी मानव-व्यापार करने वाले दलालों के चंगुल में फंस गई हैं, जिनका परिवार ठीक-ठाक कमा खा रहा है. दरअसल, यह दिल्ली में काम करने वाली उन लड़कियों के झांसे में आ रही हैं, जो प्लेसमेंट एजेंसियों से अच्छी कीमत पाने की लालसा में महानगरों के झूठे सपने मासूम लड़कियों को दिखाते हैं.

फिर-फिर नरक

गांव-गांव पैदल घूमकर गायब लड़कियों का पता लगाने और उन्हें वापस लाने के लिये जब-तब दिल्ली जाने वाली सिस्टर एस्थेर खेस का कहना है कि लड़कियों बड़े शहरों के माहौल से अचानक अलग होकर गांव आती हैं तो असहज ही रहती है. हमारे प्रयासों पर तब पानी फिर जाता है, जब लड़कियां गांव में रहने के बजाय उसी नरक में फिर चुपके से भाग जाती हैं. ऐसी कई लड़कियां है जो बुरी तरह प्रताड़ित-शोषित होकर गांव लौटी, पर यहां कोई काम उसके लिये नहीं ढूंढा जा सका. पुनर्वास की समस्या बहुत बड़ी है. हालांकि एनजीओ अपनी तरफ से लड़कियों को व्यस्त रखने के लिए प्रशिक्षण के कुछ कार्यक्रम चला रहे हैं पर इनकी क्षमता बहुत कम है.

सुश्री खेस को आशंका है कि कम्प्यूटर सीखने की इच्छा रखने वाली 6 साल बाद घर लौटकर आई रमिला टोप्पो को फिर भगाने के लिए आसानी से बहकाया जा सकता है.


सरगुजा और कुनकुरी छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक पिछड़े इलाके हैं. जंगल कट चुके हैं. बाक्साइट और पत्थर की खदानों के अलावा कोई उद्योग यहां पर नहीं है, इनमें स्थानीय युवकों को भी रोजगार नहीं मिलता. सिंचाई के साधन न के बराबर हैं. सब एक ही खेती कर पाते हैं. राजधानी से भी ये जिले 400 किलोमीटर से दूर हैं. सरकार और प्रशासन की पकड़ यहां ढीली है. लगभग सभी जन-प्रतिनिधि आदिवासी हैं, जिनकी बात रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, राजनांदगांव के सामने सुनी नहीं जाती. जशपुर जिले में प्रशासन और सरकार का मतलब दिलीप सिंह जूदेव है, खासकर तब जब सरकार भाजपा की हो. राज्यसभा सदस्य दिलीप सिंह जूदेव राज-परिवार से हैं. सरगुजा और जशपुर दोनों ही इलाकों के राजपरिवारों पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने इस अंचल के विकास में रोड़ा अटकाया है.


स्वयंसेवी अशफाक अली कहते हैं कि लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठेगा तो इलाके में कैंसर की तरह फैल चुके मानव-व्यापार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। अभी तो उरांव आदिवासी परिवारों के भाई, पिता के हाथ खाली हैं, बेटियों को पढ़ाई और शादी करने के दिनों में बाहर भेज देना, उन्हें बिल्कुल नहीं भाता, पर असहाय हैं. इनके हाथ में काम हो, कुछ आय बढ़े तो हिम्मत के साथ वे इन लड़कियों को भी रोकेंगे और लड़कियों का भी भरोसा अपने परिवार व समाज पर बढ़ेगा.

(यह आलेख रविवार.कॉम से साभार लिया गया है.)

2 comments:

डॉ .अनुराग said...

aapka lekh aankh kholne vala aor man ko jhajhor dene vala hai..garibi insan ko kya kya kara deti hai..

durgesh said...

rajesh sahab...yun hi net khangalte aapke article par nazar padi...pura lekh chaudi aankhon se padh paya...samajh mein nahi aa raha hai guilty kaun hai aur saza kise mile