महिला सशक्तीकरण : कितना सच्चा, कितना...
मोनिका गुप्ता
देश की आधी आबादी आत्मनिर्भर और सशक्त हो रही है और अपनी मंजिलें तय कर रही है लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है जो सोचने पर विवश करता है कि क्या वाकई महिला के सशक्तीकरण का वह दौर आया है, जिसकी कल्पना कभी हमारे देश के महान पुरुषों ने की थी।
हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह आधी आबादी पूरी आधी बन पायी है। हां, लिंगानुपात का अंतर देखें तो पता चलेगा कि जल्द ही महिला जनसंख्या पुरुष जनसंख्या की आधी हो जाएगी। लेकिन बात जहां अधिकार और स्वतंत्रता की हो वहां स्थिति अब भी संदिग्ध है। सवाल अभी भी यह है कि क्या भारत की महिलाएं पहले की तुलना में सशक्त हैं? क्या महिलाओं की यह सोच साकार हो पायी है कि उन्हें भी पुरुषों के समान अधिकार और स्वतंत्रता मिले।
यदि भारत के शीर्ष पदों पर बैठी महिलाओं की उपलब्धियां देखें तो निश्चित रूप से सशक्तीकरण का आभास होता है। इस आभास को साकार करने का काम भी खुद संघर्षशील महिलाओं ने ही किया है। महिला आबादी का कुछ प्रतिशत तो ऐसा जरूर है जिन्हें देखकर यह भ्रांति होती है कि महिलाएं सशक्त हो रही हैं। फिर चाहे वह व्यवसाय का क्षेत्र हो, राजनीति का, खेल का, मनोरंजन का या फिर कोई और। सभी में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है और वे बेहतर साबित हो रही हैं।
कारण कई हैं इस कथित सशक्तीकरण के। कई तरह से कन्या भ्रूण हत्या करने के बाद भी लड़कियों का जन्म हो रहा है। यह माना कि प्रति 1000 पुरुषों पर अब 927 लड़कियां हैं और यह अंतर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है लेकिन जिन्हें जीवन मिल रहा है, वह पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बन रही हैं। पहले की तुलना में आज ज़्यादा लड़कियां स्कूल जा रही हैं। उनमें से बहुत दसवीं, बारहवीं और आगे की पढ़ाई में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर रही हैं।
खराब आर्थिक स्थिति और बिना किसी प्रायोजक के महिला हॉकी टीम ने एशिया कप जीता है, तो यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है। महिला क्रिकेट को भले ही बड़े पैमाने पर प्रायोजक नहीं मिलते हैं, लेकिन कम-से-कम महिला उत्पाद से संबंधित प्रायोजक तो मिल ही रहे हैं, जो सकारात्मक संकेत है। आज महिलाएं खेल के क्षेत्र में बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी निभा रही है। जिसमें अपर्णा पोपट (बैडमिंटन खिलाड़ी), डायना एडुलजी (क्रिकेट क्रूसेडर), कोनेरू हम्पी (शतरंज क्विन), अंजलि भागवत (शार्प शूटर), मैक कैरी कोर्न (बॉक्सर), अंजू बॉबी जॉर्ज (एथलीट), कुंजारानी देवी (वेटलिफ्टर), कर्नम मल्लेश्वरी (वेट लिफ्टर), पीटी उषा (एथलीट), सानिया मिर्जा (टेनिस खिलाड़ी) कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने खेल जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है और देश का नाम रोशन किया है।
इसी तरह महिला राजनीतिज्ञों ने भी पुरूष आधिपत्य क्षेत्र में अपना प्रभाव छोड़ा है। प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी, मायावती, जयललिता, उमा भारती, मेहबूबा मुफ्ती, वृंदा करात, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, शीला दीक्षित कुछ ऐसे चर्चित नाम है जिन्होंने पुरुष एकाधिपत्य क्षेत्र में आधिपत्य कायम किया है। यह बात और है कि महिला आरक्षण विधेयक अब भी ठंडे बस्ते में है। आरक्षण देने के नाम पर महिला सांसदों के काफी शोर शराबे के बाद भी महिलाएं लगातार छली जा रही हैं, फ़िर भी महिलाएं राजनीति में आ रही हैं, जो महिलाओं के सशक्त होने का ही प्रमाण कहा जा सकता है।
केवल राजनीति में ही नहीं बल्कि आर्थिक क्षेत्र में महिलाएं विकास में योगदान दे रही है। स्वयं सहायता समूह से लेकर देश की नामी गिरामी बैंकों और कंपनियों की बागडोर आज महिलाओं के हाथ में है। किरण मजूमदार शॉ(अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक, बायोकॉन लिमिटेड), नयना लाल किदवई( सीईओ, एचएसबीसी), शहनाज हुसैन (सीइओ, शहनाज हुसैन हर्बल), मल्लिका श्रीनिवासन(निदेशक, ट्रैक्टर एंड फॉर्म इक्विपमेंट लिमिटेड), उषा थोरत (डिप्टी गर्वनर, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया), ज्योति नायक(अध्यक्ष, श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़), सिमोन टाटा (अध्यक्ष, ट्रेंट लिमिटेड), सुलज्जा फिरोदिया मोटवानी (संयुक्त प्रबंध निदेशक, काइनेटिक इंजीनियरिंग लिमिटेड एंड काइनेटिक फिनांस), रंजना कुमार (अध्यक्ष, नार्बाड), कल्पना मोरपारिया (संयुक्त प्रबंध निदेशक, आईसीआईसीआई) ने आर्थिक जगत में अपनी हिस्सेदारी निभायी है।
इनके अलावा कुछ ऐसे नाम भी है जिन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण को सार्थक किया है। सौराष्ट्र के चामराज जिले गांव की रत्नाबेन मोटर मैकेनिक है। जिसकी उम्र 60 वर्ष से भी ज्यादा है। इस उम्र में परिवार का पालन पोषण करने के लिए वह मोटर मैकेनिक का काम करती है। यह ऐसा क्षेत्र है जहां किसी महिला के काम करने के बारे में सोचना भी एक डरावने सपने जैसा है। अगर सुदूर गांव में रहने वाली इस रत्नाबेन के काम की लोग सराहना करते है तो यहां महिला सशक्तीकरण की सार्थकता सिद्ध होती है। यदि विदर्भ में किसानों की आत्महत्या से त्रस्त महिलाएं स्वयं सहायता समूह बनाकर परिवार का सहारा बन रही है, तो हम कह सकते है कि महिलाएं सशक्त हो रही है। विदर्भ के केसलापुर की शोभा दलित है और विदर्भ में स्वयं सहायता समूह की लोकप्रियता को बढ़ाने वाली मुख्य भागीदार भी है। उनके गुट को 25,000 से ज्यादा का कर्ज मिला है और वो हर दिन सौ से ज्यादा बच्चों के लिए खिचड़ी पकाती हैं। यहीं की हेमलता अब अन्य महिलाओं के सहयोग से पीसीओ बूथ चलाती है। वह रोजाना 1000 रुपये तक कमाती है और अपने परिवार का भरण पोषण करती है, तो यहां महिला के सशक्त होने का प्रमाण मिलता है। न केवल हिंदू महिलाएं बल्कि मुस्लिम महिलाएं भी इस क्षेत्र में आगे है। मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 62 प्रतिशत मदरसे महिलाओं की देखरेख में है। लेकिन फिर एक सवाल उठता है कि इन सबके बावजूद महिलाएं उपेक्षित क्यों है? क्यों बलात्कार के खिलाफ निरंतर कड़े होते कानून के बावजूद बलात्कार की शिकार लड़कियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। क्यों महिलाओं के खिलाफ अपराध ब़ढते जा रहे है? क्यों भारत में लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के बाद भी माता पिता को ज्यादा दहेज़ देना पड़ता है? वो क्यों शादी के नाम पर समझौता करने को तैयार हो जाते है? विज्ञान और चिकित्सा की प्रगति के बावजूद क्यों लाखों महिलाएं जन्म देने के समय मौत का शिकार हो जाती है? क्यों आज भी दहेज़ के नाम पर बहुएँ जलायी जाती हैं? संसद में महिलाओं के अधिकारों की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले क्यों महिला को सुरक्षा उपलब्ध नहीं करा पाते? ये कुछ ऐसे सवाल है जो सोचने पर मजबूत करते है कि क्या आधी आबादी को खुशियां मनानी चाहिए? जिन महिलाओं का जिक्र मीडिया के गलियारों में होता है या जो चर्चा में रहती हैं उन्हें देखकर ये कहा जा सकता है कि महिलाएं सशक्त है। लेकिन जिनकी गली मुहल्लों में भी चर्चा नहीं होती, वो भी इसी देश की महिलाएं है। फिर महिला चाहे अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो या अशिक्षित, ग्रामीण हो या शहरी, जवान हो या बूढी सभी के हिस्से में महिला सशक्तीकरण का प्रसाद आना चाहिए। इन दोनों पक्षों को इससे जो़डना बहुत जरूरी है। बात केवल औरत की होगी तो कभी न्याय नहीं होगा, मांग मनुष्य के रूप में होनी चाहिए, तभी सारी समस्याएं समाप्त होंगी। फिर चाहे महिला के सशक्त होने का कितना भी उत्सव मनाइए, सब जायज होगा।
हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह आधी आबादी पूरी आधी बन पायी है। हां, लिंगानुपात का अंतर देखें तो पता चलेगा कि जल्द ही महिला जनसंख्या पुरुष जनसंख्या की आधी हो जाएगी। लेकिन बात जहां अधिकार और स्वतंत्रता की हो वहां स्थिति अब भी संदिग्ध है। सवाल अभी भी यह है कि क्या भारत की महिलाएं पहले की तुलना में सशक्त हैं? क्या महिलाओं की यह सोच साकार हो पायी है कि उन्हें भी पुरुषों के समान अधिकार और स्वतंत्रता मिले।
यदि भारत के शीर्ष पदों पर बैठी महिलाओं की उपलब्धियां देखें तो निश्चित रूप से सशक्तीकरण का आभास होता है। इस आभास को साकार करने का काम भी खुद संघर्षशील महिलाओं ने ही किया है। महिला आबादी का कुछ प्रतिशत तो ऐसा जरूर है जिन्हें देखकर यह भ्रांति होती है कि महिलाएं सशक्त हो रही हैं। फिर चाहे वह व्यवसाय का क्षेत्र हो, राजनीति का, खेल का, मनोरंजन का या फिर कोई और। सभी में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है और वे बेहतर साबित हो रही हैं।
कारण कई हैं इस कथित सशक्तीकरण के। कई तरह से कन्या भ्रूण हत्या करने के बाद भी लड़कियों का जन्म हो रहा है। यह माना कि प्रति 1000 पुरुषों पर अब 927 लड़कियां हैं और यह अंतर दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है लेकिन जिन्हें जीवन मिल रहा है, वह पढ़ लिखकर आत्मनिर्भर बन रही हैं। पहले की तुलना में आज ज़्यादा लड़कियां स्कूल जा रही हैं। उनमें से बहुत दसवीं, बारहवीं और आगे की पढ़ाई में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर रही हैं।
खराब आर्थिक स्थिति और बिना किसी प्रायोजक के महिला हॉकी टीम ने एशिया कप जीता है, तो यह एक बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है। महिला क्रिकेट को भले ही बड़े पैमाने पर प्रायोजक नहीं मिलते हैं, लेकिन कम-से-कम महिला उत्पाद से संबंधित प्रायोजक तो मिल ही रहे हैं, जो सकारात्मक संकेत है। आज महिलाएं खेल के क्षेत्र में बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी निभा रही है। जिसमें अपर्णा पोपट (बैडमिंटन खिलाड़ी), डायना एडुलजी (क्रिकेट क्रूसेडर), कोनेरू हम्पी (शतरंज क्विन), अंजलि भागवत (शार्प शूटर), मैक कैरी कोर्न (बॉक्सर), अंजू बॉबी जॉर्ज (एथलीट), कुंजारानी देवी (वेटलिफ्टर), कर्नम मल्लेश्वरी (वेट लिफ्टर), पीटी उषा (एथलीट), सानिया मिर्जा (टेनिस खिलाड़ी) कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने खेल जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है और देश का नाम रोशन किया है।
इसी तरह महिला राजनीतिज्ञों ने भी पुरूष आधिपत्य क्षेत्र में अपना प्रभाव छोड़ा है। प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी, मायावती, जयललिता, उमा भारती, मेहबूबा मुफ्ती, वृंदा करात, ममता बनर्जी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, शीला दीक्षित कुछ ऐसे चर्चित नाम है जिन्होंने पुरुष एकाधिपत्य क्षेत्र में आधिपत्य कायम किया है। यह बात और है कि महिला आरक्षण विधेयक अब भी ठंडे बस्ते में है। आरक्षण देने के नाम पर महिला सांसदों के काफी शोर शराबे के बाद भी महिलाएं लगातार छली जा रही हैं, फ़िर भी महिलाएं राजनीति में आ रही हैं, जो महिलाओं के सशक्त होने का ही प्रमाण कहा जा सकता है।
केवल राजनीति में ही नहीं बल्कि आर्थिक क्षेत्र में महिलाएं विकास में योगदान दे रही है। स्वयं सहायता समूह से लेकर देश की नामी गिरामी बैंकों और कंपनियों की बागडोर आज महिलाओं के हाथ में है। किरण मजूमदार शॉ(अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक, बायोकॉन लिमिटेड), नयना लाल किदवई( सीईओ, एचएसबीसी), शहनाज हुसैन (सीइओ, शहनाज हुसैन हर्बल), मल्लिका श्रीनिवासन(निदेशक, ट्रैक्टर एंड फॉर्म इक्विपमेंट लिमिटेड), उषा थोरत (डिप्टी गर्वनर, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया), ज्योति नायक(अध्यक्ष, श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़), सिमोन टाटा (अध्यक्ष, ट्रेंट लिमिटेड), सुलज्जा फिरोदिया मोटवानी (संयुक्त प्रबंध निदेशक, काइनेटिक इंजीनियरिंग लिमिटेड एंड काइनेटिक फिनांस), रंजना कुमार (अध्यक्ष, नार्बाड), कल्पना मोरपारिया (संयुक्त प्रबंध निदेशक, आईसीआईसीआई) ने आर्थिक जगत में अपनी हिस्सेदारी निभायी है।
इनके अलावा कुछ ऐसे नाम भी है जिन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण को सार्थक किया है। सौराष्ट्र के चामराज जिले गांव की रत्नाबेन मोटर मैकेनिक है। जिसकी उम्र 60 वर्ष से भी ज्यादा है। इस उम्र में परिवार का पालन पोषण करने के लिए वह मोटर मैकेनिक का काम करती है। यह ऐसा क्षेत्र है जहां किसी महिला के काम करने के बारे में सोचना भी एक डरावने सपने जैसा है। अगर सुदूर गांव में रहने वाली इस रत्नाबेन के काम की लोग सराहना करते है तो यहां महिला सशक्तीकरण की सार्थकता सिद्ध होती है। यदि विदर्भ में किसानों की आत्महत्या से त्रस्त महिलाएं स्वयं सहायता समूह बनाकर परिवार का सहारा बन रही है, तो हम कह सकते है कि महिलाएं सशक्त हो रही है। विदर्भ के केसलापुर की शोभा दलित है और विदर्भ में स्वयं सहायता समूह की लोकप्रियता को बढ़ाने वाली मुख्य भागीदार भी है। उनके गुट को 25,000 से ज्यादा का कर्ज मिला है और वो हर दिन सौ से ज्यादा बच्चों के लिए खिचड़ी पकाती हैं। यहीं की हेमलता अब अन्य महिलाओं के सहयोग से पीसीओ बूथ चलाती है। वह रोजाना 1000 रुपये तक कमाती है और अपने परिवार का भरण पोषण करती है, तो यहां महिला के सशक्त होने का प्रमाण मिलता है। न केवल हिंदू महिलाएं बल्कि मुस्लिम महिलाएं भी इस क्षेत्र में आगे है। मध्यप्रदेश मदरसा बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 62 प्रतिशत मदरसे महिलाओं की देखरेख में है। लेकिन फिर एक सवाल उठता है कि इन सबके बावजूद महिलाएं उपेक्षित क्यों है? क्यों बलात्कार के खिलाफ निरंतर कड़े होते कानून के बावजूद बलात्कार की शिकार लड़कियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। क्यों महिलाओं के खिलाफ अपराध ब़ढते जा रहे है? क्यों भारत में लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के बाद भी माता पिता को ज्यादा दहेज़ देना पड़ता है? वो क्यों शादी के नाम पर समझौता करने को तैयार हो जाते है? विज्ञान और चिकित्सा की प्रगति के बावजूद क्यों लाखों महिलाएं जन्म देने के समय मौत का शिकार हो जाती है? क्यों आज भी दहेज़ के नाम पर बहुएँ जलायी जाती हैं? संसद में महिलाओं के अधिकारों की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले क्यों महिला को सुरक्षा उपलब्ध नहीं करा पाते? ये कुछ ऐसे सवाल है जो सोचने पर मजबूत करते है कि क्या आधी आबादी को खुशियां मनानी चाहिए? जिन महिलाओं का जिक्र मीडिया के गलियारों में होता है या जो चर्चा में रहती हैं उन्हें देखकर ये कहा जा सकता है कि महिलाएं सशक्त है। लेकिन जिनकी गली मुहल्लों में भी चर्चा नहीं होती, वो भी इसी देश की महिलाएं है। फिर महिला चाहे अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो या अशिक्षित, ग्रामीण हो या शहरी, जवान हो या बूढी सभी के हिस्से में महिला सशक्तीकरण का प्रसाद आना चाहिए। इन दोनों पक्षों को इससे जो़डना बहुत जरूरी है। बात केवल औरत की होगी तो कभी न्याय नहीं होगा, मांग मनुष्य के रूप में होनी चाहिए, तभी सारी समस्याएं समाप्त होंगी। फिर चाहे महिला के सशक्त होने का कितना भी उत्सव मनाइए, सब जायज होगा।
5 comments:
I could give my own opinion with your topic that is not boring for me.
"क्या महिलाओं की यह सोच साकार हो पायी है कि उन्हें भी पुरुषों के समान अधिकार और स्वतंत्रता मिले", यह सोच तो शायद ही साकार हो पाये. पर "महिलाओं को न्यायोचित अधिकार मिलें, अनावश्यक बन्धनों से स्वतंत्रता मिले", यह सोच अवश्य साकार होगा. पर इसके लिए सोच बदलना होगा. 'पुरुषों के समान' की बात करना बंद करना होगा. जो अधिकार घर में खोये हैं उन्हें घर के बाहर जाकर तलाश करने से सफलता नहीं मिलेगी. घर में रह कर अपना अधिकार पाना होगा. आज जिस घर को महिलायें एक बंधन मानती हैं, उस घर को अपना मानकर अधिकार के लिए संगर्ष करना होगा.
monika please feel free to contact me on naari blog
यूं पुरुष-स्त्री में कोई मतभेद नहीं है। उनके स्वभाव, प्रकृति में भिन्नता हो सकती है, लेकिन हैं दोनों ही सृष्टि का अंश। स्वयं में पूरे, पर एक-दूसरे के बिना अधूरे।‘एक दूजे से मिलकर पूरे होते हैं,
आधी-आधी कहानी हम दोनों।’
आपने बहुत अच्छा विषय उठाया पर मुझे लगता है मोनिका , यहां दो समस्याएं हैं जिनकी बात आप करना चाह रही हैं, एक तो जनसंख्या में स्त्री पुरुष संख्या में असमानता और दूसरी तरफ कि जो विकसित हैं वो उन्हें विकास के लिए सभी संसाधन मिल रहे हैं और जो पिछड़ी हैं उनके लिए कुछ नहीं। यही बात महिलाओं पर भी लागू है, हम सब उतने लकी हैं कि पढ़ पाए, ऐसे परिवारों जनमे जहां बेटियों को बेटों जैसा प्यार-दुलार दिया जाता है इसलिए हममें से ही कोई स्पोर्ट्स वूमन बन जाती है, इंडस्ट्रिलिस्ट बनती है या बिजनेस वूमन बनती है। लेकिन जिन्हें शिक्षा तो दूर की बात है रोटी के लिए भी हर रोज संघर्ष करना पड़ता है ऐसे में उनके अधिकारों के लिए कौन बात करे और कौन लड़े । सबसे जरूरी है कि यह गैप खत्म हो, वर्गों की यह सीमाएं टूटें तब सबके लिए एक जैसे की बात हो सकेगी।
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