Monday, September 22, 2008

धर्म तो प्रेम का एक पर्याय है...

प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव `विदग्ध´
धर्म तो प्रेम का एक पर्याय है, प्रेम को कोई बंधन नहीं चाहिये।
पूजा वो है जो मन से हो जिसके लिये, आरती-धूप-चंदन नहीं चाहिये ।।
सब कंंगूरे, कलष और मीनार हैं
भावना के सृजन औं लगन के लिये
शंख घण्टों की ध्वनियॉं, अजानें-सभी हैं
सही ध्यान केन्द्रीकरण के लिये।
जो समझते है, वे सब हैं कहते यही
धर्म का धर्म से भेद कुछ भी नहीं
भावनाओं को बहका के झकझोरने
प्रलयकारी प्रंभजन नहीं चाहिये ।।1।।
एक भगवान है सारे संसार का,
लोगों ने रख लिये उसके कई नाम है।
कहीं मिन्दर हैं, मिस्जद है गुरूद्वारे हैं
कहीं गिरजा-उसी के ये सब धाम है।
व्यक्तिगत धारणा और विष्वास की,
सभी को संवैधानिक खुली छूट हैं
तो किसी के भी धार्मिक अनुष्ठान का कोई
खण्डन या मण्डन नहीं चाहिये ।।2।।
तर्क से फर्क बढ़ता रहा है सदा,
धर्म तो सिर्फ श्रद्धा है विष्वास है
मन से जो साफ जितना है व्यवहार में
इष्ट के अपने वह उतना ही पास है।
भक्ति को भूमि सीमा भवन स्थल की,
या कि सामान की कुछ जरूरत नहीं
उपरी साज सज्जा दिखावा है सब,
धर्म को कोई ठनगन नहीं चाहिये ।।3।।
भेद का हो समापन, सृजन हो नये
एक ऐसे सदन का जहॉं सब मिलें
जिसके विस्तीर्ण गुम्बद के नीचे सभी
धर्म औं पंथ के फूल हिलमिल खिलें।
धर्म को स्वच्छ ममता का घर चाहिये,
ईट- पत्थर से निर्मित नहीं कोई भवन,
भाव-सुमनों को छाया/औं जल चाहिये,
लू के झौंको की झुलसन नहीं चाहिये ।।5।।
है कपट, धर्म का राजनीतीकरण,
नीति के बिन सार्थक कोई आचरण
धर्म है लोकहित का खुला रास्ता,
रास्ते को कहॉं चाहिये आवरण ?
भूल-भटकाव में राह मिलती नहीं,
साफ दिल हो तो बात इन्साफ की
धर्म है मन-मिलन, धर्म के नाम पर,
कहीं कोई विखण्डन नहीं चाहिये

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