एक था बचपन....बड़ा ही शरारती....बड़ा ही नटखट....,
वह बड़ों को करता था.....बार-बार ही डिस्टर्ब.....,
और छोटों से करता था...हर वक्त ही मारधाड़....,
वो कुछ काम तो...करता भी नहीं था....,
खेलता ही रहता था.....हर वक्त....,
कभी ये तोडा...तो कभी वो.....,
और कभी-कभी तो...,
हाथ-पैर तक तुड़वा बैठता था....
खेल-खेल में ही बचपन...
तो कभी कुछ जला भी लेता था...
अनजाने में ही बचपन.....!!
बचपन तो किसी की कुछ.....
सुनता भी तो नहीं था.....
बस अपनी ही चलाता रहता था....!!
मम्मी की डांट खाता तो....
सहम-सहम-सा जाता था बचपन....
और पापा मारते थे तो....
सुबकने लगता था बचपन.....
मगर अगले कुछ ही सेकेंडों में...
सब कुछ भूल भी जाता था...वो...
मम्मी के गालों की पप्पी लेता...
और पापा के गले में झूल जाता था बचपन....
सब कुछ तो क्षण-भर में ही भूल जाता था वो...
मम्मी की डांट...और पापा की मार...
और बदले में उन्हें देता था...अपना...
मीठा-मीठा दुलार...तुतलाया हुआ प्यार...!!
और भी इक ख़ास बात थी उस बचपन की...
कि हर इक बात पर हैरान जाता था बचपन...
बन्दर के चिचियाने से...घोडे के हिनहिनाने से...
मेढक के फुदकने से...और मछली के तैरने से....
वो कहीं भी बिना बताये ही चला जाता था.....
सब उसे पुकारते ही रह जाते थे....
और उसके कुछ भी ना सुनने पर....
आँखे तरेर कर उसे देखा करते...
और वो अनदेखा-सा कर...
अपनी ही मनमानियां करता जाता....
ऐसा था भाई...वो अलबेला-सा बचपन...!!
बचपन की बातें ख़त्म.....
और बड़ों की शुरू...
बड़ों के बारे में बस इतना ही...
कि जिन्दगी बचाई जा सकती थी.....
अगरचे....
बचा कर रख लिया जाता....
जिन्दगी में थोडा-सा बचपन....!!
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