देहरादून से रजत कुमार गुप्ता
14 जनवरी को एक साथ दो खबरें आयीं। पहली खबर थी- अमेरिका ने पाकिस्तान को गैर सैनिक सहायता में तीन गुना बढ़ोत्तरी करने का प्रस्ताव दिया। इसके चंद घंटे बाद ही भारतीय सेना द्वारा उच्च तकनीक के हथियार खरीदने की घोषणा हो गयी। यानी महाजन का मंदा पड़ा कारोबार फिर से चल निकला। हथियार बेचने का फायदेमंद धंधा।
भारत और पाकिस्तान के बीच व्याप्त तनाव के बीच सौदेबाज़ी का इससे नंगा उदाहरण क्या हो सकता है। काफी अरसे से यह बात समय-समय पर कही जाती है, पर इसके विरोध में पूरी दुनिया एकजुट होकर स्वर मुखर नहीं कर पाती। इराक में रासायनिक हथियार होने के आरोप में हुए हमले के बाद किसी देश अथवा महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संगठन में यह हिम्मत नहीं है कि वह अमेरिका से पूछे- "तुमने जो आरोप लगाये थे, उसका क्या हुआ। सद्दाम हुसैन को तो फांसी पर लटका दिया, पर रासायनिक या सामूहिक विनाश के हथियार कहां हैं?" किसी ने अब तक नहीं पूछा और आगे भी ऎसा ही होगा।
यानी दो ध्रुवीय सत्ता के समाप्त होने के बाद पूंजीवादी अमेरिका नये सिरे से अपनी मंदी को पाटने के लिए खाड़ी क्षेत्र के देशों के बाद अब दक्षिण एशियाई क्षेत्र का चयन कर चुका है। 1947 के बाद से अब तक यह क्षेत्र उसका सफल बाज़ार जो रहा है। आज़ादी के बाद के घटनाक्रमों और परोक्ष तौर पर अमेरिकी मदद से फैलायी गयी नफ़रत के बीज वैसे पेड़ो की शक्ल अख़्तियार कर चुके हैं, जिन्हें उखाड़ना आसान नहीं। साहित्यिक और सांस्कृतिक मोर्चे से दूरी को पाटने की कोशिश क्या शुरू हुई, अमेरिका की त्योरियां चढ़ने लगीं। जिस बाज़ार में वह एक-दूसरे के घोर विरोधी प्रतिद्वंद्वियों को इतने दिनों से हथियार बेचता आया है, वह बाज़ार अगर समाप्त हो जाये, तो उसकी दुकानदारी का क्या होगा। चलो खुद ही पंच बन जाओ, दोनों पक्षों को समझाने का नाटक करो और अपनी दुकानदारी पक्की करो।
बचपन में बंदर और चूहों की एक कहानी पढ़ी थी। एक रोटी के टुकड़े को लेकर दो चूहे आपस में लड़ रहे थे। मौके की ताड़ में बैठा बंदर दोनों के बीच सही बंटवारा कराने पहुंच गया। उसने रोटी के दो टुकड़े इस तरीके से किये कि दोनों बराबर न हों। फिर दोनों को बराबर हिस्सा देने के नाम पर वह बड़े हिस्से का एक भाग इस तरीके से खा गया कि वह हिस्सा दूसरे से छोटा हो गया। इसी तरह अंततः पूरी रोटी ही बंदर के पेट में चली गयी। भारत-पाकिस्तान तनाव और हाल के घटनाक्रमों से बरबस ही इस कहानी की याद आती है। ब्लॉग पढ़नेवालों के लिए चूहों और बंदर का नाम बताना मैं ज़रूरी नहीं समझता। खैर, पता नहीं कि देश चला रहे लोगों ने यह कहानी पढ़ी भी है या नहीं या फिर कहीं ऎसा तो नहीं कि वे अपनी पढ़ाई का वास्तविक जीवन में इस्तेमाल नहीं करते। जो बताना ज़रूरी है, वह यह कि मुम्बई हमलों के अलावा भी कई मुद्दों पर भारतवासियों को लगातार ध्यान देने की ज़रूरत है। पहली नज़र तो भारतीय रुपया और डॉलर की कीमत के बीच का उतार-चढ़ाव है। जिस गति और अनुपात में भारतीय रुपया अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में डॉलर के मुकाबले मज़बूत हो रहा था (अक्तूबर 2007 में यह 39.08 रुपये प्रति डॉलर पर था, अभी यह 48.61 रुपये है : श्रोत - याहू फायनांस इनकॉरपोरेशन), उससे यह स्थिति बन रही थी कि अगले बीस साल में भारतीय रुपया डॉलर से ज़्यादा महंगा हो सकता था। इस स्थिति में तेज़ी आते ही अमेरिकी बाज़ार में आयी मंदी से भारतीय अर्थव्यवस्था में सूनामी आ गयी। अब सूचना तकनीक पर हमले की बारी है। सत्यम के साथ-साथ अन्य भारतीय आइटी कंपनियों पर यह परोक्ष हमला है। जो देश हर मुद्दे को अपने लाभ और पैसे से तौलता हो, उसके लिए भारतीय कंपनियों के निरंतर बढ़ते वर्चस्व को पचा पाना कठिन होता है। वैसे भी अमेरिकी समाज हार मानने की मानसिक स्थिति में नहीं होता। अमेरिका का दौरा कर चुके लोगों ने यदी सच बताया है, तो यहां हम भारत-पाक तनाव पर इतना कुछ सोच रहे हैं, पर आम अमेरिकी को भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव की बात तो दूर, दोनों देशों की भौगोलिक स्थिति तक का सटीक ज्ञान नहीं होता। यह औसत अमेरिकी सोच है और हम यहां बराक ओबामा की जीत से संबंधित समीकरणों पर मगजमारी करने में व्यस्त रहते हैं। पर, ऎसी स्थिति चीन, जापान या कोरिया जैसे देशों की नहीं। उन्होंने अपने विकास का लक्ष्य स्थिर रखा है और उनकी सोच में अमेरिका सिर्फ एक चुनौती है, बहस या वक्त ज़ाया करने का मुद्दा नहीं।
इस बात पर भी नज़र रखने की ज़रूरत है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था फिलहाल किस स्थिति में है और वहां की प्रगति का दर क्या है। क्या भारत पड़ोसी देश के साथ उपजे तनाव में अपनी ऊर्जा को विकास के अलावा कहीं और खर्च करने पर मजबूर तो नहीं हो रहा है। अगर ऎसा है, तो समझदार लोगों को इस दिशा में पहल करनी होगी। टीवी चैनल अब भी युद्ध के तनाव से ग्रस्त हैं। एक भी ऎसा नहीं होगा, जब किसी चैनल पर मुम्बई हमले से संबंधित पुरानी क्लिपिंग्स न दिखाई जाती हो। यानी वे लगातार युद्ध जैसा माहौल बनाये रखना चाहते हैं।
इस ओर भी नज़रदारी ज़रूरी है कि क्या वाकई दूसरे देश अपनी परेशानियों के मुकाबले भारत की ज़रूरत को अधिक ध्यान देंगे। ज़ाहिर सी बात है कि जो खुद भूखा और बीमार हो, उससे परोपकार और समाज कल्याण की उम्मीद नहीं की जा सकती। अगर यह बात सच है, तो दूसरों से अधिक बौद्धिक (यह प्रमाणित तथ्य है) भारतीय समाज दो पड़ोसी देशों के तनाव के नाम पर क्या कुछ गंवा रहा है। टीवी पर एक विज्ञापन आता है, जो यातायात के नियमों से संबंधित है। इस विज्ञापन में एक शीर्षक भी अंत में दिखता है - "फैसला आपका, क्योंकि सर है आपका।" क्या हम कुछ इस तरीके से नहीं सोच सकते या फिर अपने परिचितों के बीच बहस को इस दायरे में नहीं मोड़ सकते? इस मुद्दे पर भी गंभीरता आवश्यक है कि क्या भारत के तमाम राजनीति दल इस मुद्दे पर अंदर से वही रवैया रखते हैं, जो उनके नेता टीवी चैनलों पर दर्शा रहे हैं या वह कहावत चरितार्थ हो रही है कि - " यह लंका है, यहां सभी बावन गज वाले होते हैं।" हम सभी ने एक नहीं, कई बार यह बात पढ़ी है, तो कई बार जीवन के यथार्थ में इसे महसूस भी किया है कि दूसरे की लकीर मिटाने की कोशिश में खुद को मिटाने से बेहत और सार्थक तरीका यह है कि एक लकीर के मुकाबले दूसरी बड़ी लकीर खींच दी जाये। भारत के लिए दुनिया में अमेरिकी लकीर ही चुनौती है। अब वह किस रास्ते जायेगा, यह तो हम और आप ही तय करेंगे।
11 comments:
मैं समझता हूं कि इस देश में भावनाओं का बाज़ार लगा है, जिसकी दुकानदारी मीडिया के माध्यम से हो रही है। आपकी बातों से मैं बहुत हद तक सहमत हूं, लेकिन साथ ही यह भी कहना चाहता हूं कि आखिर इसका समाधान भी तो होना चाहिए। कब तक भारतीय और पाकिस्तानी सियासतदानों के द्वारा उल्लू बनाये जाते रहेंगे। इसके लिए हम लोगों को सोचना यह होगा कि देश की सत्ता अच्छे हाथों में जाये... आप भी आइये राजनीति में। आपकी अच्छी सोच का फायदा जनता को मिले, तो क्या परेशानी है?
Sir,
At present there is no any way to stand beside america. niether india nor pakistan has had the potential. So my view is in present scenario both the countries must avoid of being abusive against each other. Try to calm down tension and move forward in process of dialogue.
thnx
dasanan
मैं आपके विचार से पूरी तरह सहमत हूं। इस देश में राजनीति करने के लिए एक बहुत बड़ा मुद्दा भारत और पाकिस्तान विवाद है जिसका सामना देशवासी कई दशकों से कर रहे हैं। जिस देश की अधिकांश जनता 20 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी पर अपना जीवनयापन करती हो, जिस देश में आज भी बेरोजगारी के कारण आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ रही हो, जिस देश के किसान उधार न चुका पाने की वजह से आत्महत्या को मजबूर हो, जिस देश की महिलाओं और बच्चों को अब भी दो वक्त भरपेट भोजन नहीं मिलता, उन्हें मीडिया द्वारा बना बना कर परोसी जा रही भारत-पाक युद्ध से क्या मतलब। जिनके घर में रोजाना 100 रुपये का आना भी मुश्किल हो उन्हें सत्यम के 7000 करोड़ के घोटाले से क्या लेना है। यह बंदरबाट की राजनीति सदियों से इस देश का दुर्भाग्य बना हुआ है और जब तक स्वार्थ का चूल्हा जलता रहेगा तब तक घोटाले रूपी रोटियां सेंकी जाती रहेंगी।
ekdam sahi aur satik vishleshan hai.lekin media bhi bat nahi samajh raha hai.
achha report hai....Pakistan ke POK per hamla bol, terrorist ka shafaya kar do.... Jarr kat do... Tks Rajat Dada...
यह भारतीय उपमहाद्वीप की ऐतिहासिक विडंबना है। भारत में जितने भी विदेशी हमलावरों की सफलता का राज था- यहां के राजाओं में फूट। पलासी युद्ध में अंग्रेज के 57 सेना वाली टुकड़ी ने भारतीय राजा की बड़ी सेना को इसलिए हरा दी क्योंकि अंग्रेजों के साथ घर का भेदी था। ऐसे एक नहीं दर्जनों उदाहरण है। एक देसी कहावत है- घर फूटे तो गवार लूटे। भारत और पाकिस्तान के शासक अपने हाथों से अपना घर तोड़ रहे हैं और अमेरिका जैसा देश उसका पूरा फायदा उठा रहा है। यह क्रम आज से नहीं,बल्कि एक तरह से स्वतंत्रता के समय से ही चल रहा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इसे भारत-पाकिस्तान के लोग नहीं समझ रहे। मैं लोगों पर इसलिए दोष दे रहा हूं क्योंकि अक्सर शासकों की आक्रामकता के पीछे वे भी खड़े रहते हैं। पाकिस्तानी सेना को वहां के आवाम का समर्थन तब ही मिलता है जब उन्हें भारत से युद्ध का भय महसूस होता है। भारत के लोग भी पाकिस्तान को सबक सिखाने जैसे बयानों को पूरी दिलचस्पी से सुनते हैं और बाकी बातों के प्रति अपना कान और दिमाग बंद कर लेते हैं।
सर, हमारी विडंबना यह है कि हम दिमाग का नहीं सुनते। दिल का सुनते हैं, लेकिन दिल का नहीं मानते। राम को मानते हैं, राम का नहीं मानते। कुरान को मानते हैं, कुरान की नहीं मानते। यही इस महाद्वीप का ऐतिहासिक दुर्भाग्य है।
Looking for wmds? The entire usa is a wmd...with its immense arm-twisting tactics, dadagiri, and its forever expanding force of evangelists that is being produces by women producing litters instead of giving birth to children like normal females of the homo sapien species do. Did I mention their large arsenals of nuclear & bio-weapons, that they believe they have the divine monopoly to? And of course their massive noise-making machinery.
sedhe aur satik shabdo mai apne bilkul sahi baat kahi hai.
mai apki baat se sahmat hu.
बात तो सही है, दोनो देशों में अगर रिश्ते सुधर जाएं तो जन कल्याण के काम के लिए कितने पैसे बच जाएंगे इसका महज अंदाज लगाया जा सकता है। भारत का रक्षा बजट 1 लाख 10 हजार करोड़ का है, और अगर सिर्फ पाकिस्तान से रिश्ते सुधर जाए तो इसमें 50 हजार करोड़ तक की बचत की जा सकती है। यानी इतने पैसे में हर साल कम से कम 50 आईआईटी या एम्स जैसे संस्थान या फिर 10,000 किलोमीटर चार लेन की हाईवे बनाई जा सकती है। पाकिस्तान की हालत तो और बुरी है। भारतीय अर्थव्यवस्था का महज 15 फीसदी होकर भी वो भारतीय सेना का मुकाबला करने चला है। ये कितने आश्चर्य की बात है कि इतना छोटे से मुल्क में फौजियों की तादाद भारत के आधे से भी ज्यादा है। उसके जीडीपी का बड़ा हिस्सा सेना निगल जाती है और शिक्षा,स्वास्थ्य और सड़क के लिए पैसा ही नहीं है। फिर भी नामुराद सिर्फ एक एटम बम के भरोसे भारत को घुड़की देता रहता है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं कि दुनियां में रिसर्च या आईटी के क्षेत्र में नाम कमाया जाए या फिर स्पेश टेक्नालाजी में सिक्का जमाया जाए। वो ये नहीं समझ पा रहा कि अगर भारत किसी भी तरह-हजार उकसावे के बावजूद 10-20 साल उससे लड़ाई से बचता रहा तो इतना आगे निकल जाएगा कि पाकिस्तान चाहकर भी उसका मुकाबला नहीं कर पाएगा।पाकिस्तना को ये सोचना चाहिए कि उसे विश्वस्तरीया यूनिवर्सिटियों की जरुरत है, उसे आधुनिक लैब की जरुरत है और अच्छे सड़को की भी। भारत का नेतृत्व इस मामले में सयाना हो गया है कि वो अभी लड़ाई में नहीं उलझ रहा। हमें फोकस्ड होकर सिर्फ अभी तरक्की पर ध्यान देनी चाहिए-कुछ सालों बाद पाकिस्तान जैसे मुल्क अपने आप ही बहुत पीछे छूट जाएंगे-तब हमारा आंखे तरेरना ही उनके लिए काफी होगा। लेकिन इस बीच ये ख्याल रखना होगा कि अमेरिका हमें लड़ाने की हर मुमकिन कोशिश करेगा, क्योंकि एक तरक्की पसंद भारत या पाकिस्तान क्योंकर उसकी बात मानेगा?
aapne bahut jwalant samasya ko apne prabhaavpoorn shabdon mein baanda hai .. iske liye badhai ..
बहुत खूब...
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