भारतीय लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व चुनाव का दूसरा चरण बीत गया। यूं तो मतदान का औसतन राजनीति के जानकारों के हिसाब से कम रहा। यानी कुछ लोग यह मान कर चल रहे थे कि इस बार 70 प्रतिशत लोग अपने मताधिकार का प्रयोग कर ही लेंगे, जो नहीं हो सका। आंकड़ों के लिहाज से यह दुखद स्थिति है पर सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने के बीच यह भारत में मजबूत होते और ग्रासरूट स्तर तक पहुंचते लोकतंत्र के लिए आशा की किरण है। खास तौर पर झारखंड के साथियों को पंचायत चुनाव का अनुभव अब तक नहीं हो पाया है, इसलिए उन्हें इस अदृश्य लकीर को समझने के लिए आस-पास के राज्यों में हुए पंचायत चुनाव के घटनाक्रमों को समझना होगा। जिन राज्यों में अभी लोकसभा चुनाव हुए हैं, वहां के कितने प्रतिशत लोग रोजगार के लिए अन्यत्र पलायन करने पर मजबूर है, इसे समझना भी जरूरी है। अपने परिवार को पालने के लिए गांव का गांव खाली हो जाता है और ऎसी स्थिति में सिर्फ वोट डालने के लिए यह तबका गांव लौटे, यह समझदारी की बात नहीं। पंचायत चुनाव के दौरान पड़ोसी राज्यों में स्थिति बिल्कुल दूसरी थी। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में काम करने वाले भी गांव के अपने प्रत्याशी को मुखिया और सरपंच के चुनाव में जिताने के लिए हजारों रुपया खर्च कर गांव लौटे थे। इस अंतर को जो समझ लेगा, वह जान जाएगा कि नेताओं की हर किस्म की दगाबाजी के बाद भी भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी सही रास्ते पर बढ़ रही है और आने वाले दिनों में इस गाड़ी पर अच्छे लोग ही बतौर विजयी प्रत्याशी सवार हो सकेंगे। इस क्रम मे विदेश में जमा काला धन वापस लाने के शोर पर याद दिलाना प्रासंगिक है कि कुछ साल पहले भारतीय बैंकों के कर्मचारियों के यूनियन ने देश भर में एक विज्ञप्ति जारी कर यह बताया था कि देश के किस-किस पूंजीपति का किस किस बैंक का कितना पैसा बकाया है। अगर मेरी याददाश्त सही है तो यह रकम भी 16 हजार करोड़ रुपये थे। विदेशी बैंक में जमा काला धन वापस आने के पहले इस पैसे की वापसी पर तमाम बड़े राजनीतिक दलों का रूख जान लेना जरूरी है क्योंकि अपने नियंत्रण के बैंकों का पैसा जो वापस दिलाने में उत्सुक नहीं होगा, वह दूसरे देश की बैंकों से पैसा लाने पर क्या प्रयोग कर पाएगा भला ?
8 comments:
"चुनावी बदलाव की सुनहरी आस " आलेख के बहाने आपने अनेक मुद्दे उठाये हैं.
काश हमारे नेता ये सब करपाते और वे समाज की सेवा करते,
उन्हें तो अपनी लोकप्रियता और स्वार्थ से फुर्सत मिले जब ..
- विजय
मुझे लगता है कि आम आदमी का रुझान ही नहीं रहा है वोट बैंक बनने में। कोई किसी को कितने दिनों तक बेवकूफ बना सकता है। भई, नेताओं की भी अपनी क्षमता होती है, 60-65 साल से तो बना ही रहे थे उल्लू! अब लोग नहीं बन रहे हैं, तो घर से निकल भी नहीं रहे हैं। ठीक ही है, बिजली-पानी-सड़क जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिए रिघट रहे लोगों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। काला धन मामले में मैं जल्द ही एक आर्टिकल लिखूंगी, उसमें आपका भी स्नेह चाहिए। धन्यवाद!
रजतसर प्रणाम
आप कैसे हैं। रंची कब आ रहे हैं। और मुझे आपका आरतिकेल ्च्छा लगत हबै। धन्यवाद..
Nice One. Actually we (the people) have been used as a tissue paper since 1952. Now the fact has been revealed for stat's tissues, that's why the percentage of polling is gradually decreasing poll by poll. I personally appreciate this salut'ble Tendency. Well done, We....
मैं भी पूरी तरह सहमत हूं, वोट का बहिष्कार होना चाहिए ताकि वोटबाजों को सही स्थिति का पता चल सके।
bhaiya swiss bank me jama paisa bharat aa jaye to apne jin logo ki is lekh me tariph kiya hai unki kismat badal jayegi. agar in paiso ko distribute kiya jaye desh ke harek gaon ko 11-11 crore milenge. ab aap log hi batayen ki yeh paisa kitna important hai.
जितने नेता प्रत्याशी के रूप में खड़े है, उनमें से जब कोई नहीं चाहिए वाली समझ लोगों में पूरी तरह विकसित हो जाएगी तो गांव लौटकर वोट देना तो दूर की बात है स्थानीय लोग भी इसमें दिलचस्पी नहीं लेंगे। 15 वीं लोकसभा चुनाव में भी मतदान के दौरान मतदाताओं की कम होती संख्या इसी बात की ओर इशारा कर रही है कि जनता को इनमें से कोई नहीं चाहिए। अब वह दिन दूर नहीं जब मतदाताओं द्वारा सामूहिक बहिष्कार की शुरुआत होगी और ऐसी ही समझ के पूरी तरह विकसित होने पर ही योग्य नेता मतदाताओं की पसंद बन पायेंगे। वैसे भी भ्रम का बुलबुला तो कभी न कभी फूटना ही है। भ्रष्टाचार में लिप्त नेताओं द्वारा जनता को मूर्ख बनाना अब पुरानी बात हो गयी। किसका धन किस बैंक में है, कौन भ्रष्टाचार में किस हद तक लिप्त है और कौन नेता जमीन के कितने ऊपर और कितने नीचे है ये लोगों की समझ में आ रहा है।
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