Tuesday, April 28, 2009

मेरा गुनाह तो बता देते...

लोकतंत्र में हर तरह की खूबियां हैं और सौभाग्य से भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यह विदेशियों के बीच पांच सितारा होटलों में आयोजित होनेवाले सम्मेलनों-सेमिनारों में कहने-सुनने के लिए तो ठीक है, लेकिन ज़मीनी हक़ीकत जानने के लिए आपको भारत की ऊर्वर अवैध दंड संहिता को जानना-समझना होगा। इसके लिए झारखंड को आप एक सैंपल टेस्ट के रूप में रख सकते हैं। वैसे तो कई राज्य ऐसे हैं, जहां कानूनन गैरकानूनी हत्याएं हो रही हैं, लेकिन झारखंड का परिप्रेक्ष्य इसलिए, क्योंकि यहां जिस व्यापक स्तर पर तंत्र का गण पर शिकंजा कस रहा है, उसकी नज़ीर कम ही मिलेगी। झारखंड का लातेहार ज़िला अभी सुर्खियों में है। पता है क्यों, क्योंकि यहां इसी महीने की 15 तारीख़ को जो कुछ हुआ, उसने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या ग्रामीण होना और वो भी ग़रीब होना सीआरपीएफ के हाथों जान गंवाने की सटीक पात्रता है।

15 तारीख को नक्सलियों ने लातेहार जिले के बरवाडीह में एक बारूदी सुरंग विस्फोट कर सीआरपीएफ के दो जवानों को मार डाला था, इस घटना में 12 पुलिसवाले घायल भी हुए थे। इस घटना के बाद सीआरपीएफ के जवानों ने बौखलाहट में आकर पांच निर्दोष ग्रामीणों को मौत के घाट उतार दिया। घर के आंगन (बढ़निया गांव के चौपाल) से खींचकर जवानों ने पांच गांववालों को गोली मारी और कह दिया कि ये सारे नक्सली थे। ऐसी अंधेरगर्दी तालीबानी शासन में भी नहीं होते सुनी गयी। मारे गये ग्रामीणों के नाम हैं-पिताई मुंडा, सुपे बोदरा, मसीह बोदरा, संजय बोदरा और सुपाई बोदरा। इन सभी के पास से कोई हथियार नहीं मिला। पुलिस-सीआरपीएफ बता रही थी कि इन लोगों को मुठभेड़ में मार गिराया गया है। क्या ये लोग बिना किसी हथियार के पुलिसवालों से लड़ रहे थे। पांचों ग्रामीणों की लाश लुंगी और गंजी में मिली, क्या कोई नक्सली लुंगी-गंजी पहनकर किसी नक्सल ऑपरेशन को अंजाम देता है। सभी दो परिवार के सदस्य थे। सुपाई बोदरा की उम्र 51 साल थी और वह रांची के सीएमपीडीआइ का कर्मचारी था। यह बात गले से नहीं उतरती कि आखिर एक पब्लिक सेक्टर का कर्मचारी, जिसे छठे वेतन आयोग की सिफारिश वाला वेतन मिलेगा, वह भला नक्सली क्यों बनेगा। और, 16 साल का मसीह बोदरा तो हॉकी खिलाड़ी था, जो बरवाडीह मिडिल स्कूल में आठवीं क्लास में 'भारत का मतलब' समझ-सीख रहा था। बढ़निया गांव के लोग कहते हैं कि जब वह हॉकी स्टिक लेकर गोलपोस्ट की ओर आगे बढ़ता था, तो गेंद उसकी स्टिक से चिपकी रहती थी। वह तो किसी टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए बाहर जाने की तैयारी कर रहा था। हो सकता था कि वह देश के लिए हॉकी खेलता, लेकिन अफसोस...।

इस बेशर्म हत्या पर पुलिस का इतना फूहड़ बयान आया कि सुनने वालों को भी लगा कि नक्सलियों को कोसना पाप है। लातेहार के एसपी हेमंत टोप्पो ने कहा था कि मारे गये लोग ग्रामीण नहीं हो सकते, क्योंकि जिस स्थान पर उनका पुलिसवालों के साथ कथित मुठभेड़ हुआ, वह स्थान निर्जन है। वहां ग्रामीण नहीं जा सकते। इसलिए इस घटना को नक्सलियों ने ही अंजाम दिया है और सभी नक्सली ग्रामीणों के वेश में थे। इनकी थोथी दलील का करारा जवाब बढ़निया के लोगों के पास है, जो उन्होंने मानवाधिकार राइट नेटवर्क के सदस्यों को बताया है। चश्मदीद गवाहों ने साफ-साफ बताया है कि बारूदी सुरंग विस्फोट के बाद पुलिस घटनास्थल पर पहुंची और पिताई मुंडा, सुपे बोदरा, मसीह बोदरा, संजय बोदरा और सुपाई बोदरा को बंदूक के कुंदों से कुत्तों की तरह पीटती हुई ले गयी। पोस्टमार्टम के दौरान पता चला कि सभी के सिर फटे हुए हैं, मतलब साफ है-बंदूक कनपट्टी पर सटा कर गोली मार दी गयी। कई मांग-गोद एक साथ उजड़ गये। अभी चूंकि राज्य में कोई सरकार नहीं, राष्ट्रपति शासन है और चुनाव का भी दौर है इसलिए न तो नेताओं की फौज और न ही राज्यपाल ने इस गांव की ओर रुख़ करने की ज़हमत उठायी। हां, रांची में किसी व्यवसायी या बिल्डर की मौत हो जाये, तो देखिये तमाशा। कौन सा ऐसा नेता नहीं होता, जो आंदोलन को सड़क पर नहीं उतरता, लेकिन बढ़निया में मारे गये लोगों की स्थिति पुलिस के श्रीमुख के अनुसार संदिग्ध थी, इसलिए किसी को चिंता नहीं इस बात की कि आखिर बौखलाहट में हत्याएं जायज़ कैसे हो गयीं।

इस पूरे प्रकरण में सबसे चौंकानेवाला पहलू यह है कि खुद पुलिस के एक आइजी (रांची जोन) रेजी डुंगडुंग ने यह स्वीकार कर लिया कि मारे गये लोग ग्रामीण थे, न कि नक्सली। पुलिस अब मान रही है कि मरनेवालों में तीन छात्र थे, एक किसान और एक सीएमपीडीआइ का कर्मी। लेकिन, इसके बावजूद अब भी हठधर्मी हो रही है, कहा जा रहा है कि सभी पुलिस की गोली से नहीं मरे, बल्कि एक ग्रामीण की मौत गोली लगने से हुई है और चार विस्फोट में मारे गये, जबकि प्रत्यक्षदर्शियों ने पुलिसवालों को इन पांचों को विस्फोट के बाद गांव से ले जाते देखा है। इस घटना ने एक साथ कई सवाल खड़े कर दिये हैं। सबसे अहम सवाल यह है कि क्या गांव में रहना और गरीब होना पाप है। जवाब है सरकार के पास..!!

2 comments:

dharmendra said...

ho sakta hai ki police muthbhed adikansh pharji hoti ho. lekin kaha jta hai ki bina aag ke dhuan nahi nikalta. ye jitne terrorist aur naxali hain aap aur humlogo ke bich se hi nikalte hain.

admin said...

अगर गुनाह ही बता दिया, तो फिर सजा का मजा क्या है?

----------
S.B.A.
TSALIIM.