विष्णु राजगढ़िया
उसे तो जख्म देना और तड़पाना ही आता है।
गला किसका कटा, क्यूंकर कटा, तलवार क्या जाने?
जी हां, यही प्रकृति होती है शासन की। उसे इससे क्या मतलब कि उसके गलत तौर-तरीकों, मनमाने फैसलों और उनकी नाकाबिलियत का शिकार कितने लोगों को कितने रूपों में होना पड़ रहा है।
झारखंड में 34 वें नेशनल गेम वर्ष 2007 में ही होने थे। वर्ष 2003 में ही इसके लिए हरी झंडी मिल चुकी थी। लेकिन चार बार नेशनल गेम की तिथि टल चुकी है। अगली तिथि पर भी नेशनल गेम हो सकेंगे या नहीं, कहना मुश्किल है। इस दौरान नौ की लकड़ी नब्बे खर्च की तर्ज पर बड़े-बड़े विज्ञापन देने और होर्डिंग लगाने वाले तमाम नेता व अधिकारी अब मुंह चुराते चल रहे हैं। 200 करोड़ के बदले हजार करोड़ से ज्यादा खर्च हो गया, इस पर विधानसभा की समिति भी बन गयी, समिति ने रिपोर्ट में गंभीर सवाल भी उठाये, फिर भी कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी ही रही।
अब खेल के बदले राजनीति ही सही।
सरकार या खेल संघ का कहना है कि तैयारी पूरी है, जनता पूछ रही है कि तब खेल क्यों नहीं कराते?
सरकार या खेल संघ का कहना है कि जून में गरमी रहेगी, मानसून आयेगा। जनता पूछ रही है कि पहले किस बेवकूफ ने बता दिया था कि जून में फगुवा हवा बहेगी?
विवाद जारी रहेंगे। फिलहाल शायद यही इस राज्य की नियति भी है। लेकिन इस प्रसंग में सबसे ज्यादा जरूरी उन अनजाने खिलाड़ियों के प्रति सहानुभूति के साथ सोचा जाना चाहिए, जो 2007 या 2008 या अभी अपना प्रदर्शन दिखाने के अवसर से वंचित रह गये। अगर 2007 में 34 वें नेषनल गेम हो गये होते तो वर्श 2009 में अब 35 वें नेषनल गेम हो रहे होते। लेकिन झारखंड की मेहरबानी ने पूरे देष के खिलाड़ियों और खेलप्रेमियों को बंधक बना दिया। इससे देष के खिलाड़ियों के दो साल के कीमती वक्त की बरबादी हुई, उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर नहीं मिला। हर बार नेषनल गेम के जरिये बड़ी संख्या में नये खिलाड़ियों की एक नयी पीढ़ी उभरकर सामने आती है। लेकिन झारखंड ने ऐसे खिलाड़ियों की एक पूरी पीढ़ी को कभी पूरा न होने वाला नुकसान पहुंचा दिया है। जिन लोगों को वर्ष 2007 में अवसर नहीं मिला, उनमें अनगिनत खिलाड़ी उम्र ज्यादा होने तथा अन्य कारणों से गुमनाम ही रह गये।
ध्यान रहे कि झारखंड ने तो वर्श 2005 में 33 वें नेषनल गेम की मेजबानी का प्रस्ताव दे रखा था। लेकिन इसका दायित्व असम को देना तय हो चुका था। लिहाजा झारखंड को वर्श 2007 के 34 वें नेषनल गेम का दायित्व सौंपा गया। कल्पना करें, अगर झारखंड को 33 वें नेषनल गेम की मेजबानी मिली होती तो पिछले चार साल से पूरे देष का खेलजगत झारखंड के हाथों गिरवी रहा होता।
झारखंड में खेल की यह दुर्गति क्यों है, इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी होगा। नेशनल गेम तय होने के बाद झारखंड के खेलमंत्री समेत पांच लोग यह देखने विदेष यात्रा पर निकले कि खेल संबंधी अत्याधुनिक संरचनाएं कैसी होती है। इस टीम में तकनीकी विशेषज्ञ सिर्फ एक था। जिस दौरान यह विदेष यात्रा की गयी, उसी दौरान 33 वें नेषनल गेम के लिए असम के गुवाहाटी में संरचना निर्माण हो रहा था। लेकिन मंत्री अथवा किसी भी अधिकारी ने गुवाहाटी जाकर वहां की खेल संरचना का अध्ययन करना मुनासिब नहीं समझा। गुवाहाटी जाते तो हमारे देश व नेशनल गेम के अनुकूल वास्तविक जरूरत समझ में आती। लेकिन हमारे भाग्यविधाताओं को विदेश जाना ज्यादा प्रतिष्ठाजनक लगा।
नेषनल गेम का अवसर रांची को सजाने-संवारने का था। नेशनल गेम के आलोक में रांची नगर निगम ने 12 करोड़ की योजना बना रखी है। लेकिन अब तक फूटी कौड़ी नहीं मिली है।
झारखंड में खेल के रहनुमाओं के ऐसे खेल के बावजूद इस राज्य ने भारतीय क्रिकेट टीम को महेंद्र सिंह धौनी जैसा कप्तान दिया है। यहां के साधनहीन खिलाड़ियों ने हॉकी, तीरंदाजी, एथलेटिक्स और अन्य खेलों में राज्य का गौरव बढ़ाया है। लेकिन पंखों पर इतराने वाला मोर अपने पैरों को देख शर्मा जाता है।
5 comments:
आपने ठीक ही कहा, इस सरकार और यहां कि व्यवस्था ने उभरते खिलाड़ियों के साथ जो खेल खेला है, उसकी भरपाई मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है। मुझे भी कुछ वर्षों पहले आर्चरी का शौक चढ़ा था, लेकिन अफसरों की लालफीताशाही ने मेरे करियर को तबाह कर दिया। और यह कहीं और नहीं, बल्कि झारखंड में ही हुआ था। अच्छा हुआ कि मैंने खेल से अलग हटकर दूसरा करियर चुन लिया, वर्ना पता नहीं मुझे कहां-कहां कितनी और कैसी कीमत चुकानी पड़ती। विष्णु सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया, जो आपने इसम मुद्दे को उठाया।
बिल्कुल सही कहा:
पंखों पर इतराने वाला मोर अपने पैरों को देख शर्मा जाता है।
हमारे देख में प्रतिभाओं का यदि सही मूल्यांकन हो, तो वह विकसित देशों के कतार में सबसे आगे हो।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
Shame to Indian olympic association and Jharkhand olympic association. Role of the govt of Jharkhand is also shameful in this regard
जिन्दा लोगों की तलाश! मर्जी आपकी, आग्रह हमारा!!
काले अंग्रेजों के विरुद्ध जारी संघर्ष को आगे बढाने के लिये, यह टिप्पणी प्रदर्शित होती रहे, आपका इतना सहयोग मिल सके तो भी कम नहीं होगा।
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उक्त शीर्षक पढकर अटपटा जरूर लग रहा होगा, लेकिन सच में इस देश को कुछ जिन्दा लोगों की तलाश है। सागर की तलाश में हम सिर्फ सिर्फ बूंद मात्र हैं, लेकिन सागर बूंद को नकार नहीं सकता। बूंद के बिना सागर को कोई फर्क नहीं पडता हो, लेकिन बूंद का सागर के बिना कोई अस्तित्व नहीं है।
आग्रह है कि बूंद से सागर में मिलन की दुरूह राह में आप सहित प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति का सहयोग जरूरी है। यदि यह टिप्पणी प्रदर्शित होगी तो निश्चय ही विचार की यात्रा में आप भी सारथी बन जायेंगे।
हम ऐसे कुछ जिन्दा लोगों की तलाश में हैं, जिनके दिल में भगत सिंह जैसा जज्बा तो हो, लेकिन इस जज्बे की आग से अपने आपको जलने से बचाने की समझ भी हो, क्योंकि जोश में भगत सिंह ने यही नासमझी की थी। जिसका दुःख आने वाली पीढियों को सदैव सताता रहेगा। गौरे अंग्रेजों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, असफाकउल्लाह खाँ, चन्द्र शेखर आजाद जैसे असंख्य आजादी के दीवानों की भांति अलख जगाने वाले समर्पित और जिन्दादिल लोगों की आज के काले अंग्रेजों के आतंक के खिलाफ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से लडने हेतु तलाश है।
इस देश में कानून का संरक्षण प्राप्त गुण्डों का राज कायम हो चुका है। सरकार द्वारा देश का विकास एवं उत्थान करने व जवाबदेह प्रशासनिक ढांचा खडा करने के लिये, हमसे हजारों तरीकों से टेक्स वूसला जाता है, लेकिन राजनेताओं के साथ-साथ अफसरशाही ने इस देश को खोखला और लोकतन्त्र को पंगु बना दिया गया है।
अफसर, जिन्हें संविधान में लोक सेवक (जनता के नौकर) कहा गया है, हकीकत में जनता के स्वामी बन बैठे हैं। सरकारी धन को डकारना और जनता पर अत्याचार करना इन्होंने कानूनी अधिकार समझ लिया है। कुछ स्वार्थी लोग इनका साथ देकर देश की अस्सी प्रतिशत जनता का कदम-कदम पर शोषण एवं तिरस्कार कर रहे हैं।
अतः हमें समझना होगा कि आज देश में भूख, चोरी, डकैती, मिलावट, जासूसी, नक्सलवाद, कालाबाजारी, मंहगाई आदि जो कुछ भी गैर-कानूनी ताण्डव हो रहा है, उसका सबसे बडा कारण है, भ्रष्ट एवं बेलगाम अफसरशाही द्वारा सत्ता का मनमाना दुरुपयोग करके भी कानून के शिकंजे बच निकलना।
शहीद-ए-आजम भगत सिंह के आदर्शों को सामने रखकर 1993 में स्थापित-ष्भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थानष् (बास)-के 17 राज्यों में सेवारत 4300 से अधिक रजिस्टर्ड आजीवन सदस्यों की ओर से दूसरा सवाल-
सरकारी कुर्सी पर बैठकर, भेदभाव, मनमानी, भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और गैर-कानूनी काम करने वाले लोक सेवकों को भारतीय दण्ड विधानों के तहत कठोर सजा नहीं मिलने के कारण आम व्यक्ति की प्रगति में रुकावट एवं देश की एकता, शान्ति, सम्प्रभुता और धर्म-निरपेक्षता को लगातार खतरा पैदा हो रहा है! हम हमारे इन नौकरों (लोक सेवकों) को यों हीं कब तक सहते रहेंगे?
जो भी व्यक्ति स्वेच्छा से इस जनान्दोलन से जुडना चाहें, उसका स्वागत है और निःशुल्क सदस्यता फार्म प्राप्ति हेतु लिखें :-
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, राष्ट्रीय अध्यक्ष
भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यालय
7, तँवर कॉलोनी, खातीपुरा रोड, जयपुर-302006 (राजस्थान)
फोन : 0141-2222225 (सायं : 7 से 8) मो. 098285-02666
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in
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