Tuesday, June 2, 2009

...लगे कि कलाकार का जनाजा है, ऐरे-गैरे का नहीं

निराला
वह रविवार 31 मई की शाम थी. महीने का आखिरी दिन. मन यूं ही इधर-उधर भटक रहा था. लेकिन नहीं पता था कि यह मेरे आत्मीय लेकिन समाज और दुनिया से उपेक्षित एक महान कलाकार के जीवन का भी आखिरी दिन था. शायद तभी जाने क्यों मन सुबह से ही बेचैन हो रहा था. शाम को अपने एक अजीज मित्र को मोबाइल से मैसेज भेजा- आई वांट टू लीव फुल्ली, सो आई कैन डाई हैप्पी... इज इट पॉसिबल फॉर एनी वन डीयर...?
अभी यह मैसेज भेज कर मित्र से मिलने वाले जवाब की प्रतिक्षा कर ही रहा था कि रात नौ बजे करीब एक अपरिचित नंबर से फोन आया. फिर जो पता चला- उसमें खुशी तो थी लेकिन गम और दुखों के पंख पर सवार होकर आयी थी.
फोन कुलदीप नारायण मंजरवे के पुत्र बिनू ने किया था. यह बताने को कि पिताजी गुजर गये. यह खबर सुन कर मैं सकते में तो नहीं आया लेकिन खुद को गुनाहगार और शर्मसार जरूर महसूस करने लगा. लगा मैं कोई जुर्म कर बैठा हूं. उनके जीते-जी उनकी उस डायरी को किताब की शक्ल में नहीं छपवा सका था, जिसके लिए वे मुझे पिछले कई दिनों से बार-बार कह रहे थे...
मुझे उनकी मृत्यु का दुख इसलिए ज्यादा नहीं हुआ, क्योंकि दो दिन पहले ही मैं उनसे मिलने उनके घर गया था. करीब दो घंटे तक उनके साथ रहा था... कुलदीप तब जी भर के दुआएं दे रहे थे मुझे और साथ ही रो भी रहे थे, इस कामना के साथ कि अब गुजर ही जाऊं तो बेहतर...! मंजरवे को हार्ट की शिकायत थी. वे सीने की दर्द से तकलीफ महसूस कर रहे थे लेकिन उस दर्द से भी ज्यादा कई तकलीफें जिंदगी की आखिरी बेला में उन्हें घुटन दे रही थीं.
83 वर्ष के मंजरवे के बारे में संक्षिप्त जानकारी यह है कि वे शिल्पकार थे. पटना आर्ट कॉलेज के छात्र रह चुकेथे. पेपरमैसी आर्ट के मास्टर थे. रांची के कोकर इलाके में पिछले 40 साल से एक कमरे में वह और उनका पूरा परिवार रहता था. उस एक कमरे को मकान, दुकान, कारिगरी का कारखाना... कुछ भी कह सकते हैं. मूर्तियों के ढेर के बीच तीन बिस्तर पर 12 सदस्यीय परिवार का आशियाना. एक बेड पर चादर से परदेदारी कर बेटा-बहू, तो उसके बगल वाले बिस्तर पर बच्चे और ईंट को सजाकर लकड़ी के पट्टे से बनाये गये एक पलंग पर मंजरवे सोते-बैठते...
मंजरवे बिहार के जमुई जिले के चांदन गांव में पैदा हुए. कला की सनक स्कूली जीवन से इस तरह सवार हुई कि उसकी कीमत पर किसी चीज से समझौता करने को तैयार नहीं. पटना आर्ट स्कूल से पढाई पूरी करने के बाद इन्हें देवघर विद्यापीठ में नौकरी मिली. वहां मन उचटा तो झारखंड के ही सरायकेला-खरसावां में सरकारी नौकरी करने चले आये. लेकिन कलाकार मन को न चाकरी रास आ रही थी न नया शहर. सो आखिर में शिल्प कला केंद्र का एक बोर्ड लगाकर एक शेड के नीचे कला सृजन में लग गये. यह 1973 की बात है, जब उन्होंने शिल्प कला केंद्र की स्थापना की. तब से न जाने कला, कलाकारी और कलाबाजी की दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी, मगर मंजरवे वहीं के वहीं रह गये. अपनी सादगी और सच्चाई के साथ. अपनी धुन में इतने मगन रहे कि उन्हें इस बात का भी कभी एकबार ख्याल नहीं आया कि अपने शिल्प कला केंद्र को यदि एनजीओ या रजिस्टर्ड संस्था ही बना लेंगे तो कुछ फंड आदि मिल सकता है.
मंजरवे को गांधी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण जैसे दिग्गजों का सान्निध्य मिल चुका था. असहयोग आंदोलन के दिनों में जब पटना में बंगाल से कुछ लड़कियां पटना पहुंचीं तो उन्हें चरखा प्रशिक्षण का जिम्मा गांधीजी ने मंजरवे को ही सौंपा था. आजादी की लड़ाई के दिनों में नाटक खेले जाते थे तो उसमें मेकअप मैन के रूप में मंजरवे होते, जो पटना व आसपास के इलाके में काफी चर्चित हुए थे. डॉ राजेंद्र प्रसाद इनकी कला के कद्रदानों में थे और विनोबा, जयप्रकाश जैसे दिग्गज भी कहते- मंजरवे, तुम्हारे जैसे साधक की ही जरूरत है. मंजरवे ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पटना से लेकर बाढ़ तककेइलाकेमें गांव-गांव में पैदल जाकर लोगों को जागरूक भी किया था.
मंजरवे साधक ही बने रहे. जब तक जवानी रही तब तकअपने ही हाथों से बना कपड़ा पहनते रहे. लेकिन इन सबसे वैसा कुछ भी नहीं हो सका, जिसकी दरकार उन्हें थी. न मुफलिसी दूर हो सकी, न उपेक्षा. लेकिन उम्मीदें थीं किटूटती नहीं थीं, आखिरी वक्त तक. मंजरवे के उस टूटे हुए मकान में दीनदयाल उपाध्याय, अंबेडकर आदि की कई मूर्तियां बनी हुई मिलीं. इन मूर्तियों का निर्माण मंजरवे से किसी नेता ने, स्वयंसेवी संस्था वालों ने करवाया था... बेचारे मंजरवे, दिन-रात एक कर, अपना पैसा लगा कर इन मूर्तियों का निर्माण करते रहे, लेकिन उन्हें ले जाने वाला अब तक यानी दस वर्षों बाद तक कोई नहीं आया...
सरकारी विभागों ने तो न जाने कितनी बार छला. एक दफा ग्रामीण विकास विभाग के लोग उनकी कलाकृति को यह कह कर ले गये कि वे उसे राष्ट्रीय सम्मान के लिए भेजेंगे. मंजरवे ने उसे दिया. बाद में राष्ट्रीय सम्मान की बात कौन करे, वह कलाकृति भी कौन हजम कर गया, आखिरी दिनों तक पता नहीं चल सका.
इस बार भी कुछ वैसा ही हुआ. मंजरवे को किसी सरकारी बाबू ने बता दिया कि आपका नाम तो इस बार राष्ट्रीय शिल्पी अवार्ड के लिए गया है. आप तैयार रहियेगा. जिस दिन यह पता चला, उसी दिन से मंजरवे कभी आधी रात को जग कर तो कभी भरी दुपहरिया में एक नयी कृति के निर्माण में लग गये. शरीर साथ नहीं देता था, फिर भी वे लगे रहते... उस कृति का निर्माण उन्होंने राष्ट्रपति को देने के लिए किया. वे बताते थे कि जब सारे कलाकार राष्ट्रीय शिल्पी अवार्ड के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंचेंगे तो वे सम्मान लेकर आ जायेंगे. मैं सिर्फ लूंगा नहीं, राष्ट्रपति को भी कुछ दूंगा...
सच यह था कि मंजरवे का नाम किसी राष्ट्रीय शिल्पी अवार्ड के लिए गया ही नहीं था. किसी ने उन्हें बेवकूफ बनाया था. अभी वह इस छल के छलावे में ही थे कि किसी ने मंजरवे को कह दिया कि आपके शिल्प कला केंद्र का भव्य निर्माण करवा देंगे, कैसा चाहते हैं आप? एक बार फिर से मंजरवे नक्शा बनाने में लग गये और कपड़ा, लकड़ी, मिट्टी, कागज आदि से जोड़ कर मंजरवे ने शिल्प कला केंद्र का एक नमूना ही तैयार कर दिया. दो दिनों पहले जब मैं उनसे मिलने गया था, तो उन्होंने अपनी किताब के बारे में पूछने के बाद उस नमूने को दिखाते हुए कहा था- ऐसा ही बन जाता शिल्प कला केंद्र तो मजा आ जाता, खूब काम होता...
न तो खूब काम करने और न ही उसे देखने को मंजरवे अब इस दुनिया में हैं. उनका बेटा बिनू एक कलाकार से मजदूर बनने की राह पर है. जहां भी शिल्प कला केंद्र केलिए काम मांगने जाता है, सरकारी अधिकारी-बाबू पूछते हैं- संस्था है, एनजीओ है, ट्रस्ट है...आदि. इतने सवालों से जूझ कर आने के बाद बिनू जब अपने घर पहुंचता है, तो उस एक छोटे मकान में पड़ी मूर्तियां उन्हें ही चिढ़ाती नजर आती हैं. बिनू अपने बाबूजी से भी कहते थे- आप जिंदगी भर मूर्तियों को गढ़ते रहे, कभी हमारी जिंदगी गढ़ने की परवाह भी किया होता... तब कुलदीप हंसते हुए कहते, मरूंगा तो जरा गाजे-बाजे के साथ कलाकारी वाले अंदाज में ले जाना, जलाना मुझे... बिनू ने किया भी वैसा ही. बाजे के साथ उनकी अर्थी उठी और घाट तकजाने वाले थे कुल जमा दस लोग...
यह भी अजब संयोग था कि मंजरवे की मौत की खबर सुन कर उस सवाल का जवाब भी मिल गया, जो मैंने अपने दोस्त से मैसेज के माध्यम से पूछा था-आई वांट टू लीव फुल्ली, सो आई कैन डाई हैप्पी... इज इट पॉसिबल फॉर एनी वन...?

9 comments:

जयंती कुमारी said...

मुझे ऐसा लगता है कि मंजरवे जी की मौत नहीं हुई है, बल्कि समाज से संवेदनशीलता की मौत हो गयी है। ज़रा सोचिये कि बृद्धावस्था में किसी प्रकार अपनी ज़िदगी के दिन काट रहे बुजुर्ग से लोगों ने क्या-क्या मजाक नहीं किया। राष्ट्रपति पुरस्कार का झांसा देकर उनको छद्म रूप से कल्पाया ही है। यही वजह है कि आज तेजी से घर-घर में संवेदनहीनता का वास होता जा रहा है। ऐसा करनेवाले इंतजार करें अपनी बारी का। एक अंधेरी कोठरी का और स्याह रातों का। बस इंतजार करें...

Himanshu Pandey said...

संवेदनहीनता का मुखर चित्र खींचती एक संवेदनशील प्रविष्टि । आभार ।

एक अजनबी said...

मुझे लगता है कि जिन लोगों ने स्वर्गीय मंजरवे जी के साथ ऐसा बर्ताव किया था, उनकी मंजरवे जी के पुत्र की मदद से पहचान करनी चाहिए और उनके खिलाफ एक मुकदमा दायर कर आपराधिक मामला चलाया जाना चाहिए। आज हमारे नेता कहां हैं, जो वोट की खातिर शौचालय तक का उदघाटन करने से नहीं कतराते, वे कहां हैं???

डॉ .अनुराग said...

हैरान हूँ की इस मर चुके समाज से अब भी आप किसी उम्मीद की गुहार रखते है ..ऐसे आदमी का यो इस तरह जाना निसंदेः एक पूरी कॉम के लिए शर्मिंदगी है

अनुज कुमार 'ध्रुव' said...

अगर कुछ हो सके, तो मंजरवे जी के परिवार के लिए कुछ करना चाहिए।

शाहनवाज़ बारी said...

मुझे लगता है कि हम सभी एक गुनहगार हैं। मंजरवे जी, तो नहीं रहे लेकिन अब भी अपनी संवेदशीलता को सक्रिय कर हम ऐसे कई मंजरवे जी को गुमनाम मौत मरने से बचा सकते हैं। निराला भाई को साधुवाद, जिन्होंने धाराप्रवाह चित्रण किया परिस्थितियों का।

हमराही said...

मैं श्रद्धांजलि देता हूं एक ऐसे कलाकार को, जिन्हें मैं तो व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था लेकिन उनकी सादगी ने दुनिया को नतमस्तक किया है। अब कुछ किया नहीं जा सकता, लेकिन आगे किसी के साथ ऐसा न हो, इसका ख्याल हम सभी को रखना होगा।

DR BHARTI KASHYAP said...

Dear Nirala,
Your writeup on late manjarveji is very touching especially the part how people used him and cheated him by giving false hopes. it is sad that lady luck did't smile on him till his last breath.Sometimes it happens that sudden turn appear in ur life and u get recognized after years of neglect by the society but this could not happen to him . Please give this writeup a wider viewership by giving space in Prabhat Khabar. His son might succeed in mission which he conceived but could not create.

अभिषेक मिश्र said...

Is kala ke pujari ko meri bhi shraddhanjali.