Monday, June 28, 2010

अभी तो...

साहित्य की दुनिया में बहुत बड़ा नाम न होने के बावजूद तेज़ी से मशहूर हो रहे लेखक, कवि, सामाजिक कार्यकर्ता और बेहद धीमे स्वभाव वाले रणेन्द्र जी की यह एक लाजवाब रचना हमें भेजी है विष्णु राजगढ़िया जी ने। आप भी जमीन से जुड़े इस संघर्षशील जीवन शैली की पीड़ा को समझने की कोशिश कीजिए और रणेन्द्र जी को और भी लिखने को प्रेरित कीजिए।


रणेन्द्र

शब्द सहेजने की कला

अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य

पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह

अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना

शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर

इस जीवन में तो कठिन

जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार

जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछूए

श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते

अभी तो,

उनकी ही जगह

इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ

अभी तो,

हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार

की मादकता से मताए मीडिया के

आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त

हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता

अभी तो,

राजपथ की

एक-एक ईंच सौन्दर्य सहजने

और बरतने की अद्भुत दमक से

चौंधियायी हुई हैं हमारी आँखें

अभी तो,

राजधानी के लाल सूर्ख होंठों के लरजने भर से

असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं

अभी तो,

जंगलों, पहाड़ों और खेतों को

एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है

अभी तो,

राजपरिवारों और सुख्यात क्षत्रिय कुलकों के नहीं

वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को

अलग-अलग रंग की बर्दियॉं पहना कर

एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है

लहू जो बह रहा है

उससे बस चन्द जोड़े होंठ टहटह हो रहे हैं

अभी तो,

बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती

लम्बी सरल विरल काली रेखा है

जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड

और महाश्वेता की हजारों-हजार द्रौपदी संताल हैं

अभी तो,

जीवन सहेजने का हाहाकार है

बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर

फटे आँचल की छॉंह है

जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में

फॅंस कर छूट गया है

अभी तो,

तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से

तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है

परसों दोपहर को निगले गए

मड़ुए की रोटी की रिक्तता है

फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े

बूढ़ों की फटी बिबाईयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं

निढ़ाल होती देह है

किन्तु पिछुआती बारूदी गंध

गोदावरी पार ठेले जा रही है

अभी तो,

कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ

वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नहीं हो सकती

लथपथ तलवों के लिए मलहम

सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल

और संजीवनी बूटी

अभी तो,

चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की

घायल छातियों में लहू का सोता बन कर उतरे

और दूध की धार भी

ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें

लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट

सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं

सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा

अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही

अभी तो,

हमारी मासूम कोशिश है

कुचैले शब्दों की ढाल ले

इतिहास के आभिजात्य पन्नों में

बेधड़क दाखिल हो जाएँ

द्रौपदी संताल, सी.के. जानू, सत्यभामा शउरा

इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और... और...

गोरे पन्ने थोड़े सॅंवला जाएँ

अभी तो,

शब्दों को

रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख

उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ

10 comments:

माधव( Madhav) said...

बहुत सुन्दर कविता , मजा आ गया पढ़कर

आशीष कुमार अंशु said...

नदीम भाई
सुन्दर कविता के लिए आभार

Udan Tashtari said...

रणेन्द्र जी की बेहतरीन कविता पढ़वाने का आभार.

Amalendu Upadhyaya said...

रणेन्द्र जी को हमारे पोर्टल www.chhapas.com पर भी लखने को कहिये

drishtipat said...

kavita to nisandeh achchhi hai, ranendra ji khud achchhe hain, lekin iska wyawharik paksh bhi achchha hona chahiye, gol-gol ghere se bahar ane ki bhi jarurat samajhni chahiye, duniya badi hai, dard bhi sabke bade hain, kuchh khas logon ki taraha hi, bas
--

मोनिका गुप्ता said...

इस कविता की हर पंक्ति में वर्तमान स्थिति का स्पष्ट कटाक्ष चित्रण किया गया है कि इसकी संपूर्णता के विश्लेषण के लिए शब्द नहीं है। रणेंद्र जी तो वैसे ही शब्दों के महारथी है। उनकी कविता जिस चेतावनी को वर्णित करती है, वह काबिल-ए-तारीफ है।

KESHVENDRA IAS said...

Sunder or samvedansheel kavita.

kavi kulwant said...

bahut khoob..

seema gupta said...

रणेन्द्र जी की सुन्दर कविता पढ़वाने का आभार
regards

seema gupta said...

रणेन्द्र जी की सुन्दर कविता पढ़वाने का आभार
regards