रजत दा ने यह बेहतरीन संस्मरण लिख भेजा आपके लिए। प्रभात खबर में बिताये उनके दिन और आज के पुरोधा पत्रकारों की यादों से लबरेज ये यादें आपके लिए।
स्वर्गीय किट्टू जी पत्रकार थे। वह कुछ समय के लिए प्रभात खबर के सम्पादक भी रहे। उनका सबसे लोकप्रिय कॉलम निठल्ला चिंतन था। हाल के दिनों में तीन पुराने पापी दीपक अम्बस्ट, डॉ राजचंद्र झा और मैं डॉ राज की क्लीनिक में बैठकर यही काम कर रहे थे। बाद चलते-चलते धनबाद के एक अक्खड़ पत्रकार (नौकरी की खातिर नाम नहीं दे रहे हैं) पर टिकी, जो हाल के दिनों में छपे लेखों पर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने फोन कर दीपक अम्बस्ट से पूछा था कि आखिर इन संस्मरणों का क्या अर्थ निकाला जाए। धनबाद में पत्रकारिता के बाद भी बेदाग निकलने वाले इस पत्रकार को पेशे में आये बनावटीपन से सख्त विरोध है। दीपक अम्बष्ठ अब पत्रकारिता छोड़कर दूसरे व्यापार में हैं जबकि प्रभात खबर में समाचार सम्पादक रहे डॉ राज आज आर्थो (हड्डी रोग) के सफल चिकित्सक हैं। मेरी समझ में वह रांची के अकेले चिकित्सक हैं, जिन्हें साहित्य और पत्रकारिता की समझ कई दूसरों से काफी अधिक है।
पत्रकारिता के तीन दशकों के इतिहास की चर्चा में हर बार कुछ ऎसा पढ़ने को मिल जाता है जिससे लगता है कि शायद हमलोगों को पत्रकारिता बेकार गयी। दूसरी तरफ गांव देहात के साथी पत्रकारों से मुलाकात होती है तो लगता है हम जहां हैं बिल्कुल ठीक है। कमसे कम एक झूठ को सच साबित करने के बाद हमें बार-बार उस झूठ को दोहराने की नौबत तो नहीं पड़ती।
निठल्ला बैठा तीन पापी, अपने एक साथ काम करने के दिन को ही अधिक याद करता है। प्रभात खबर के वे दिन, जब रांची से प्रकाशित होकर यह अखबार नेपाल की सीमा तक दो दिन बाद पहुंचता था और बिकता था। बंधु 20 मशीन उस दौर की सबसे आधुनिक मशीन थी। उसमें 50 हजार प्रतियों का प्रकाशन देखना भी हम जैसे नये पत्रकारों के लिए अनोखी चीज थी। पुराने मित्रों की हरकतों पर भी चर्चा होती है। चाहे वह सुनील श्रीवास्तव हो, विजय भाष्कर हों, सुभाष डे हों या एस. एन. विनोद। सहयोगियों की बात करें तो दिनेश जुआल, व्योमेश जुगरान, प्रकाश सनोई (स्वर्गीय), फैसला अनुराग, अरुण कुमार, मणिमाला या कार्टूनिस्ट लोकमान्य। लोकमान्य दक्षिण के थे। लिहाजा वह कार्टून की थीम अंग्रेजी में सोचते थे और फिर हममें से किसी को उसके हिन्दी अनुवाद के लिए घेर लेते थे। साथियों की सूची में मधुकर जी का उल्लेख कर देता हूं वरना रात को फोन कर पूछना पड़ेगा कि तोते को पानी पिलाया या नहीं। (जिसे यह राज नहीं पता वह मधुकर जी या फैसल जी को फोन कर जान ले)। बाकी बचे कल्याण सिन्हा, राय तपन भारती, प्रकाश चंद्रायन, जावेद अख्तर जैसे सहयोगी।
प्रभात खबर के उस दौर में कई बार इस सवाल से भी सामना हुआ जबकि मालिकों की आपसी खटपट से अखबार का प्रसार बहुत घट गया। लोग खबरों के बारे में जानकारी लेने पर ताना मारते थे- अच्छा प्रभात खबर, क्या अब भी छप रहा है। कोई तो बता रहा था कि बंद हो गया। इन चुनौतियों के बीच एचइसी की हड़ताल की खबर सबसे पहले प्रभात खबर में छपी। (इसके रिपोर्टर राकेश जावा इन दिनों मेरठ में प्रकाशन का कारोबार चला रहे हैं। ) अगले दिन एचइसी इलाके में अखबार की निंदा हुई, कुछ नाराज नेताओं ने अखबार की प्रति भी जला दी। शाम तक जब सीआइएसएफ ने मोर्चा संभाला तब अखबार की तलाश दोबारा हुई।
34वां राष्ट्रीय खेल चल रहा है, इसलिए उस दौर की राष्ट्रीय एथेलेटिक्स प्रतियोगिता की भी याद आती है, जिसमें उस दौर के सभी बड़े एथलीट शामिल हो रहे थे। क्रिकेट के मैदान में अरूण लाल को मेकन स्टेडियम में खेलते देखने का अलग रोमांच था। खेल में मेरे सहयोगी अविनाश चंद्र ठाकुर हुआ करते थे, जो आज भी मुझे झेल ही रहे हैं। (हा हा हा)। हमलोगों पहले साइकिल से सारे मैदान जाकर रिपोर्ट लिया करते थे। बाद में टीवीएस 50 से यह काम होने लगा।
मुझे याद है उस दौर में हमलोगों ने पशुपालन घोटाले पर लिखना प्रारंभ कर दिया था। उस दौर के सहयोगी अभय श्रीवास्तव ने पहली बार इस घोटाले की बारीकियों से अवगत कराया था। होटवार फार्म में मुर्गों की मौत से इसकी शुरुआत हुई थी। फिर आया रांची विश्वविद्यालय पर खबरें लिखने का। तब प्रभात खबर संवाददाता शर्ट में प्रखर लिखा करते थे, हमलोगों के बाल प्रखर यानी महेंद्र कुमार ने इस पर कई काम किये। कांके और सीसीएल की गड़बड़ियों पर मधुकर जी की पैनी नजर रही। दिल्ली से अनीस अहमद खान और पटना से सुमन सिंह हमारे लिए राजनीतिक खबरें भेजा करते थे। जमशेदपुर से दिनेश जी (जो कुछ दिनों के लिए सम्पादक भी रहे), लोहरदगा से रामवृक्ष महतो, पलामू से गोकुल बसंत के साथ-साथ रामगढ़ के चंद्रमा पांडेय को याद किया जा सकता है। चंद्रमा पांडेय को एक एक्सीडेंट की खबर पर कुछ और जानकारी लेनी थी। वह दफ्तर से ही रामगढ़ फोन कर रहे थे। फोन पर बार-बार किसी महिला की आवाज आ रही थी- कृपया थोड़ी देर बाद डायल करें। हममें से किसी ने उन्हें चढ़ा दिया, क्या आप भी आदमी है, जरा अखबारी रौब गांठिये। वैसे भी सूरज डूबने के बाद चार्ज में हुआ करते थे। पांडेय जी ने महिला को धमकाया- समझते नहीं, प्रेस का मामला है। इतना कहकर दोबारा लगाया तो फोन की घंटी बज गयी। पांडेय जी खुश कि धमकी काम आ गयी। उन्हें किसी ने नहीं बताया कि महिला की आवाज दरअसल टेप से बज रही है।
तीन निठल्ले पीएनपीसी (परनिंदा, पर चर्चा) कर खुश। इसलिए प्रभात खबर के शुरुआत की कहानी कभी और पर 1984 से प्रारंभ होने वाले इस अखबार का वह दौर भी हर दिन किसी इतिहास के समेटे हुए है।
3 comments:
पत्रकारिता बहुत कठिन डगर है।
अच्छा संस्मरण प्रभात खबर
bhtrin khule andaz men bhtrin janakari shukriya jnaab. akhtar khan akela kota rajsthan
प्रखर...मस्त।
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