Wednesday, June 15, 2011

देखा क्या..?

आकाँक्षाओं और आस्थाओं से परे
निढाल, मौन
देखा है कभी
उस इंसान को,
देखा है
फुटपाथ पर पड़ी
नंगी-अधनंगी
उस बेबस और लाचार
महिला को,
देखा है
भूख से बिलखते
मासूम चेहरों को
जिनकी तस्वीरें
होती हैं विकास के
सबसे उपरी पन्नों पर ।

देखा है
सरेआम लुटते
और बिकते
अपनी माँ-बहनों को,
देखा है
इंसान को
इंसानियत की नज़र से
जिनकी तस्वीरें
बड़ी चाव से
छापते और उस पर
रिरयाते हैं,
वाहवाही लूटते
उनकी नामों पर,
घूरते हैं उनकी
ज़ख़्मी काया को
किसी भूखे भेड़िये की तरह,

देखा है
उन झोपड़ियों की ओर झाँककर
जो पीढ़ियों से सहते रहे हैं
तुम्हारी यातनाएँ,
विकास और टैक्नोलॉजी के नाम पर
पल-प्रतिपल छलते रहे,
रचते रहे क्षण-प्रतिक्षण षड्यंत्र,
निचोड़ डाली पूरी की पूरी देह
भींगे कपड़े की तरह,

ढाते रहे ज़ुल्म
साँस रूकने तक,
तड़प ना पाया
चाह कर भी
मौन था, मौन ही मरता रहा,
पर, क्या
महसूस की है कभी तुमने
उनके भीतर की आकाँक्षा
जानने चाहे हैं कभी
उनके सपने, उनके अरमान..?

देखा है कभी फ़ुर्सत के क्षणों में
झाँककर अपनी अंर्तआत्मा में ?
नहीं..?,
तो फिर देखा क्या है तुमने...?


2. देख कर ये क्रूर लीला

माथे पर कलंक, गोद में बच्चा,
भटक रहा रफ़्ता-रफ़्ता
देख रहा नज़ारा
ये जग सारा
लुट रही अबला नारी
बीच बाज़ार,
कभी यहाँ, कभी वहाँ,

जब से हुई वो सयानी
पड़ गया पीछे बड़ा राजघराना,
गाँव-घर की बहू-बेटियों को
बनाया अपना अशियाना,
देख, भूखे भेड़ियों ने
नोच-चोथ
उजाड़ दिया जीवन सारा,

रखे थे छुपा दिल में
कईं-कईं सपनें,
तोड़ दिए सब एक ही झटके,
माँ-बाबा के अरमानों का
कर दिया ख़ून कतरा-कतरा,

तन ढ़कने को भी
नहीं मिल रहा अब तो चिथड़ा,
फूटी क़िस्मत ले
धुकुड़-धुकुड़ अपना जीना,
कभी ईंट भट्ठें में
कभी रेस्तराँ में,
कभी वैश्यशाला में
कभी नचनी घर में,
तो कभी चौक-चौराहे में
जल रही है
तप रही है
लुट रही है
जीवन के हर मोड़ पर,
जल रहा है तन-मन
सूखी डालियों-सा,

ज़िन्दगी जैसे ज़िन्दा लाश बन
सिर्फ जिये जा रही,
नारी होने का दर्द झेल रही
पल-पल गिरती-संभलती
कोख में लिए
बाबू साहेब की निशानी,
माँ रूपी नारी की
देख कर ये क्रूर लीला
धृतराष्ट्र बना जग सारा,....!


3. स्मृतियों की क़ब्र से

 एक बार स्मृतियों के आस-पास
टहल रहा था,
अचानक क़ब्र की ओर
देख उग आई थी मेरे भीतर
उनकी याद..!

क़ब्र के पास जाकर मैंने
क़ब्र की छाती पर देखा
क़ब्र के ऊपर
उग आए पौधों का हिलना,

पत्तों की सरसराहट
और
क़ब्र के ऊपर
उग आये उड़हुल के फूल की
मुस्कुराहट से,
बीते दिनों की स्मृतियाँ
ताज़ा हो गईं,
और
वह मानो कुछ कह रहा हो...!

बीरेन्द्र कुमार महतो
09934133172
09304453077

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