हम हैं तो, समाज है। समाज है, राज्य है। राज्य है, तो देश है। देश है, तो संविधान और व्यवस्था है। और हमी में से कुछ लोग हैं, जो व्यवस्था को चलाते हैं। हमीं में से कुछ लोग थे, जिसने आजादी के बाद भारतीय संविधान की रचना की। और अपने देश और भारतीय जनमानस की जरूरत और भावना के अनुरूप व्यवस्था चलाने की योजना बनाई, लेकिन इनकी योजनाओं में कहाँ खोट रह गयी कि आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद भी आम आदमी वहीं के वहीं खड़ा है। बल्कि यूँ कहा जाये कि सारी संवैधानिक जगहों पर दबंगों ने अपना कब्जा जमा लिया है। पंचायत हो या विधानसभा या फिर लोकसभा, सभी सभाओं में वैसे ही लोग पहुँच रहे हैं, जो संवैधानिक सामंतवादी व्यवस्था के पोषक हो गये हैं। और उनके साथी अंग्रेजों के मुलाजिम के तर्ज पर चल रहे हैं। जिनके कारण आम आमदी का जीवन अस्त-पस्त और त्रस्त है। इस व्यवस्था से।
संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते वक्त कहीं न कहीं जरूर कुछ ऐसी कोई त्रुटि छोड़ रखी थी या उनके मन में जरूर कहीं न कहीं धूर्तता थी कि, जिसके बदौलत वे अंग्रेजों से भी ज्यादा क्रूरता के साथ राज्य कर सके। और वही हो भी रहा है। भौतिक रूप से जितने भी निर्माण हुए हैं, या हो रहे हैं, सभी में मजदूरों की अहम भूमिका रही है, लेकिन वो मजदूर कहाँ हैं, आज तक हमारा संविधान उन मजदूरों को इज्ज्त की जिन्दगी नहीं दी। जो किसान पूरे देश की भूख मिटाने का जिम्मा लिया हुआ है। वे भूखे मर रहे हैं। उन्हें सिर्फ आश्वासन दिया जाता है। भविष्य में जिन्दा रहने की ट्रेनिंग दी जाती है। इस संविधान ने हमें डरा कर रखा हुआ है। नाना प्रकार के मान मर्यादा के नाम पर। मानहानि का डर दिखा कर। आज अपने देश की कोई राष्ट्रीय भाषा नहीं है। जब राष्ट्र की कोई अपनी भाषा ही नहीं होगी, तो हमारे अधिख्य 85 प्रतिशत आबादी जो पेट से ऊपर नहीं उठ पा रही हैं, देश की व्यवस्था में कैसे हिस्सा ले सकती हैं? उनके साथ कब तक झूठ बोला जाता रहेगा कि सरकार आम आदमी की है! आम आदमी की परिभाषा अब तो नये सिरे से तैय करने की जरूरत आ पड़ी है। जैसी व्यस्था चल रही है, इसमें सिर्फ डर ही डर है, बोलने की आजादी भी नहीं है। हमें आदालत के नाम पर डराया जा रहा है, तोसंविधान के फंला अनुच्छेद के नाम पर डराया जा रहा है। नाना प्रकार के डर। जिसके कारण हमारे देश में लाखों की संख्या में केस-मुकदमों में फंसे बेगुनाह लोग मरते जा रहे हैं। केस की सुनवाई वर्षों तक लंबित रहने के कारण। कहाँ आम आदमी का भारत है? समाज के कुछ वर्गों के लिए तो योजनाओं का एक धेला भी नसीब नहीं होता!
हमारी इस व्यवस्था ने समाज को कई हिस्सों में बाँट कर रख दिया है। जिनके लिए योजना बनाई जाती हैं, उन तक उसका लाभ पहुँच नहीं पाता। क्यों? क्यों इतनी कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद 30 प्रतिशत ग्रामीण एवं शहरी आबादी नाले-नालियों के किनारे कचड़ों में जीवन गुजार रही है? कल्याणकारी व्यवस्था किसका कल्याण कर रही है? इन्हें वर्तमान में जीने का मौका क्यों नहीं दे रही है, ये व्यवस्था? इन सारे प्रश्नों का जवाब कब मिलेगा, कौन देगा? बगैर जवाब दिये तिरंगा के नीचे खादी टोपी लगाकर देशभक्ति का ढोंग कब तक चलता रहेगा?
अरुण कुमार झा
प्रधान संपादक
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अरुण कुमार झा द्वारा दृष्टिपात के लिए 1/28/2012 06:40:00 AM को पोस्ट किया गया
1 comment:
Very good sir... well said... you are right...
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