देश के चंद नीति निर्धारकों की संपत्ति में पांच सौ गुणा बढ़ोत्तरी की नैतिकता के पक्ष में अब तक कोई दलील नहीं आयी है।
जाहिर है कि अर्थशास्त्र और देश का हाल जानने समझने वाले इसके पक्ष में दलील देना भी नहीं चाहेंगे क्योंकि इसे सही ठहराना कोई आसान काम नहीं होगा।
लेकिन हर मुद्दे पर अपनी जुबान खोलने वाले नेता इस पर चुप क्यों हैं, इसे समझने का वक्त आ चुका है।
हर नियम कानून की दुहाई देने वाले सभी दल ऐसे अवसरों पर जब चुप्पी साध जाते हैं तो आपसी गठजोड़ का संकेत मिलता है। कुछ इसी तरह आयकर के मामले में हुआ है।
राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का हिसाब सार्वजनिक हो, इसका विरोध सभी दलों ने किया। सवाल है कि अगर आप वाकई देश से भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं कि बेनामी चंदे के प्रति आपका यह रवैया क्यों है।
फिर यह क्यों नहीं समझ लिया जाए कि इस किस्म की तमाम घोषणाएं सिर्फ दिखावा और जनता को भरमाने की कोशिश भर है।
दरअसल राजनीतिक दल सार्वजनिक मंचों से भ्रष्टाचार के बारे में बोलते तो बहुत कुछ हैं पर अपनी करनी में इसे ढालना ही नहीं चाहते।
जब तक दलों को मिलने वाले हर प्रकार के चंदे को आयकर के तहत सार्वजनिक करने की सूची में नहीं लाया जाएगा, यह गोरखधंधा तो चलता रहेगा। लेकिन हाल के दिनों में इतनी जागरुकता तो आयी है कि जनता अपने अपने स्तर पर सवाल उठाने लगी है।
किसी भी राजनीतिक दल को मिलने वाले चंदे के बारे में जानकारी सार्वजनिक करने से परहेज सिर्फ इसी वजह से हो सकता है कि चंदे के एवज में कंपनी अथवा चंदा देने वाले व्यक्ति को मिले फायदे के साथ जोड़कर इसे नहीं देखा जाए।
अगर आपका दिल साफ है तो आपको इस पर कोई हिचक भी नहीं होनी चाहिए। अगर आप चंदे का हिसाब गुप्त रखना चाहते हैं तो आपकी मंशा पर हमें भी संदेह होता है।
इस मोड़ पर आकर भारतीय राजनीति के लिए ऐसा महसूस हो रहा है कि हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट में यह मामला प्रारंभिक सुनवाई के बाद फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया गया है। भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को किसी भी किस्म की नौकरी अथवा कारोबार करने की छूट नहीं होती।
ऐेसी स्थिति में उनकी संपत्ति कैसे बढ़ जाती है। यहां से दूसरा सवाल यह जन्म लेता है कि आखिर जिन संपत्तियों की कीमत साल दर साल बढ़ रही है, वह कैसे हासिल की गयी।
निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को ढेर सारी सुविधाएं जब देश अपने खर्च पर उपलब्ध करा रहा है तो उसे सवाल पूछने का भी पूरा हक है। अदालत में सुनवाई के दौरान सांसदों और विधायकों की संपत्ति 500 गुना बढ़ने पर कोर्ट ने पूछा कि क्या सांसद और विधायक रहते हुए आप कोई भी बिजनेस कैसे कर सकते हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने सीबीडीटी की जांच पर संतोष जताया, जिसमें कहा गया है कि सांसदों और विधायकों की संपत्ति पिछले पांच सालों में 500 फीसदी बढ़ गई है।
आयकर विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में सीलबंद लिफाफे में उन सांसदों और विधायकों का नाम सौंपा, जिनकी संपत्ति में चुनाव जीतने के बाद बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई है।
जब सीलबंद लिफाफे में नाम सौंपे गए तो जस्टिस चेलमेश्वर ने पूछा कि ये तो अखबारों में पहले ही आ चुका है फिर सीलबंद लिफाफे में क्यों। तो सीबीडीटी की तरफ से पेश वकील राधाकृष्णन ने कहा कि उसमें लोगों की पहचान का खुलासा नहीं किया गया था।
6 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग और केंद्र को निर्देश दिया था कि वो आयकर विभाग की पूरी रिपोर्ट पेश करे। सीबीडीटी ने सांसदों और विधायकों की आय से अधिक संपत्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया था।
हलफनामे के मुताबिक 26 लोकसभा सांसदों, 11 राज्यसभा सांसदों और 257 विधायकों की संपत्ति में काफी वृद्धि हुई है। प्रथम दृष्टया पाया कि 26 लोकसभा सांसदों में से सात की संपत्ति में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। अब आयकर विभाग इन 7 लोकसभा सांसदों की संपत्ति की जांच करेगी।
257 विधायकों में से 98 विधायकों की संपत्ति में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। हलफनामे में कहा गया है कि इनके अलावा 42 और विधायकों की संपत्ति का आकलन किया जा रहा है।
सीबीडीटी ने कहा कि समय-समय पर उसने निर्वाचन आयोग को इन सूचनाओं से अवगत कराया है। यह कानूनी और अदालती प्रक्रिया है लेकिन दूसरे सभी मुद्दों पर विचार देने वाले इस विषय पर आकर एक जैसा आचरण क्यों करने लगते हैं, यह अब सामाजिक सोच का विषय है।
आम आदमी को जो संपत्ति हासिल करने में पूरा जीवन लग जाता है, वह किसी जनप्रतिनिधि को पांच वर्षों में कैसे हासिल हो जाता है, इस जादू को अब देश की जनता समझना चाहती है।
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