Saturday, April 26, 2008

वतन से दूर, कैद में मजबूर


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पंजाब के गुरदासपुर जिले से 1991 में गायब हुए कृपाल सिंह को पाकिस्तान में मौत की सजा सुनाई जा चुकी है. हर तरफ से निराश उनका परिवार चुपचाप इस दर्द को झेल रहा है. उनके परिजन कहते हैं कि पूर्वसैनिक कृपाल नशे की हालत में अनजाने में ही सीमा पार कर गया था. मगर सरहद पार के अधिकारियों को ऐसा नहीं लगता.

इस साल मार्च में पूर्व भारतीय जासूस कश्मीर सिंह की रिहाई से मुस्तकाबाद सैयदान गांव के निवासी कृपाल के घरवालों की उम्मीदें एक बार फिर से बंध गई हैं. कृपाल के 28 वर्षीय भतीजे अश्विनी ने दो अप्रैल को वाघा सीमा पर पाकिस्तान के पूर्व मानवाधिकार मंत्री अंसार बर्नी से मुलाकात की और उनसे कृपाल को रिहा करवाने की प्रार्थना की.

भारत के 490 और पाकिस्तान के 210 कैदी एक-दूसरे की जेलों में अभिशप्त जीवन जी रहे हैं. ये संख्या उस सूची में दर्ज है जिसे इस साल 31 मार्च को दोनों देशों की सरकारों ने एक दूसरे को सौंपा है. कैदियों में कई ऐसे हैं जो सजा की मियाद पूरी होने के बाद भी सलाखों के पीछे हैं. एक बड़ी संख्या उनकी भी है जिनकी सुनवाई अभी शुरू भी नहीं हुई है. कैदियों पर घुसपैठ, वीजा शर्तों का उल्लंघन या जासूसी जैसे आरोप हैं.

प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों को पत्र लिखने, मीडिया के सामने रोने और आधिकारिक लिखा-पढ़ी में अपनी कोशिशें और वक्त जाया करने के बाद इन कैदियों के घरवाले कश्मीर सिंह जैसे एक और चमत्कार की उम्मीद में अंसार बर्नी की तरफ देख रहे हैं.

प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों को पत्र लिखने, मीडिया के सामने रोने और आधिकारिक लिखा-पढ़ी में अपनी कोशिशें और वक्त जाया करने के बाद इन कैदियों के घरवाले कश्मीर सिंह जैसे एक और चमत्कार की उम्मीद में अंसार बर्नी की तरफ देख रहे हैं. गौरतलब है कि 34 साल पाकिस्तान की जेलों में बिताकर कश्मीर सिंह हाल ही में रिहा होकर भारत वापस आए हैं. इन कैदियों के परिजनों को सरबजीत कौर की बहन दलबीर कौर से भी प्रेरणा मिली है जो अपने भाई की फांसी की सजा को बदलवाने की हरमुमकिन कोशिश कर रही हैं.

38 वर्षीय रशवीर कौर तब चार साल की थीं जब उनके पिता अजमेर सिंह ग्रेवाल अपने एक दोस्त से मिलने के लिए फीरोजपुर गए थे. उस दिन के बाद उनका कुछ पता नहीं चला. फिर 1982 में एक पाकिस्तानी जेल में उनसे मिलकर आए एक व्यक्ति ने ग्रेवाल परिवार को बताया कि अजमेर सिंह को पाकिस्तान में उम्रकैद की सजा सुनाई गई है. उन्हें पता चला कि अजमेर को वहां जंजीरों में जकड़ कर रखा गया है और आदेश है कि अगर वो भागने की ज़रा भी कोशिश करें तो उन्हें गोली मार दी जाए.

1999 में अजमेर सिंह के परिजनों में उम्मीद की एक किरण जगी. अधिकारियों ने बताया कि अजमेर की रिहाई के लिए जानकारियों के सत्यापन की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है. मगर फिर उसी साल करगिल युद्ध होने लगा और उम्मीद फिर से जाती रही. रशवीर कहती हैं, हमें तो जैसे श्राप मिला हुआ है. 2004 में अधिकारी फिर से सत्यापन के लिए आए. मगर फिर कुछ मिला तो वही लंबा इंतजार.

सीमावर्ती जिलों में जासूसों की कहानियां आम हैं. नाम गुप्त रखने की शर्त पर एक पूर्व खुफिया अधिकारी बताते हैं, ये एक खुला राज है. मगर यदि आप ये मान लेते हैं कि आप जासूस हैं तो आपको बचाने कोई नहीं आएगा.

कृपाल और अजमेर सिंह के परिवार तो उनके जासूस होने की बात से इनकार करते हैं मगर पूर्व सैनिक रामनाथ की 65 वर्षीय पत्नी चंद्रकला भोलेपन में स्वीकार कर लेती हैं कि उनके पति जासूस थे. वो कहती हैं, उन्होंने 1975 में इंटेलीजेंस ब्यूरो के लिए एक जासूस के रूप में काम शुरू किया था. होशियारपुर जिले के निवासी और उस वक्त 37 साल के रामनाथ 1977 की एक सर्द सुबह में जो घर से निकले तो आज तक वापस नहीं आए. गायब हुए ज्यादातर लोगों की शिकायतों की तरह उनकी शिकायत पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया. रामनाथ के परिजन बताते हैं कि अधिकारियों ने उनके परिवार से पेंशन का वादा भी किया था मगर जब उन्हें इस बाबत पत्र लिखा गया तो इसका कोई नतीजा नहीं निकला. उस समय 25 साल की चंद्रकला ने पटाखा बनाने वाली एक फैक्ट्री में नौकरी कर ली. 31 साल बाद अब इस परिवार ने सरकार से छोड़ बर्नी से अपनी उम्मीदें जोड़ ली हैं.

सरहद पार की दास्तानें इससे कुछ खास अलग नहीं हैं. पाकिस्तान के घाट-ए-बरोत के रहने वाले जरार बलोच 1989 में लाहौर से गायब हो गए थे. उनके घरवालों ने तो उनके जिंदा होने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. मगर फिर उन्हें 1998 में एक चिट्ठी मिली जो जरार ने जम्मू एवं कश्मीर की एक जेल से भेजी थी. उनकी मां गंज बीवी कहती हैं कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों ने उन्हें मीडिया या मानवाधिकार संगठनों से बात न करने की चेतावनी दी है. वो पूछती हैं, मेरे बेटे को यहां की मिट्टी क्यों नसीब नहीं होनी चाहिए?”

कई बार तो कैदियों की राष्ट्रीयता पर भी विवाद हो जाता है जिसका उदाहरण लुहार आमीना बाई के बेटे अहमद की ये अजीब और गरीब कहानी है. अमीनाबाई ने आज से आठ महीने पहले तक अमृतसर का नाम तक नहीं सुना था. आमिना का 10 साल का बेटा अहमद 1980 में गुजरात के सीमावर्ती कस्बे नलिया से गायब हो गया था. आमीना के पास अहमद की कोई तस्वीर नहीं थी इसलिए पुलिस उसे ढूंढ नहीं सकी. 28 साल बाद आमिना को अमृतसर जेल से भेजी गई अहमद की चिट्ठी मिली. आमिना कहती हैं, वह उम्रदराज लग रहा था मगर जैसे ही वो आगंतुक कक्ष में घुसा मैंने उसे पहचान लिया.

कई बार तो कैदियों की राष्ट्रीयता पर भी विवाद हो जाता है जिसका उदाहरण लुहार आमीना बाई के बेटे अहमद की ये अजीब और गरीब कहानी है.

पता चला कि इन सालों के दरम्यान अहमद पाकिस्तान में बस गया था और उसने कराची निवासी सीमा से शादी कर ली थी. दिसंबर 2006 में अहमद, सीमा के साथ अपनी मां के पास गुजरात जाने की कोशिश में वाघा सीमा पर पकड़ा गया. उसके पास कोई वीजा नहीं था इसलिए पंजाब पुलिस ने उसे विदेशी कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया. उसे अधिकतम एक साल की ही सजा हो सकती थी. पिछले साल हाईकोर्ट ने आमिना के पक्ष में फैसला देते हुए पंजाब पुलिस को इस दंपत्ति को रिहा करने का आदेश दिया था मगर वो दोनों आज भी जेल में हैं.

मार्च में खबरें आई थीं कि अमृतसर की सेंट्रल जेल में 46 पाकिस्तानी कैदी अपनी घरवापसी का इंतजार कर रहे हैं मगर पाकिस्तान उन्हें स्वीकार करने के लिए आगे नहीं आ रहा. सीमा का नाम तो इन कैदियों की सूची में था पर अहमद का नहीं. दरअसल अधिकारियों को पता चला कि अहमद असल में भारतीय नागरिक है. 1993 से पाकिस्तानी कैदियों की रिहाई के लिए कोशिशें कर रहे चंडीगढ़ के वकील रंजन लखनपाल ने अहमद और सीमा की रिहाई और उन्हें भारतीय नागरिकता दिलवाने के लिए एक याचिका दाखिल की है.

विदेश मंत्रालय की मानें तो पाकिस्तानी जेलों में 1971 के 74 युद्धबंदी हैं. पाकिस्तान हमेशा उनकी मौजूदगी से इनकार करता रहा है. इनमें बैडमिंटन की पूर्व राष्ट्रीय चैंपियन दमयंती तांबे के पति फ्लाइट लेफ्टिनेंट वी वी तांबे भी शामिल हैं. भारत सरकार पर कई साल तक दबाव डालने के बाद इन कैदियों के 14 रिश्तेदारों के एक दल को पिछले साल जून में पाकिस्तान जाने की इजाजत दी गई थी. पर 12 जेलों का दौरा कर 500-600 किलोमीटर का सफर तय करने वाले इस दल को निराश ही लौटना पड़ा.

जनवरी 2007 में इन कैदियों के मामले पर एक आठ सदस्यीय भारत पाकिस्तान संयुक्त न्यायिक समिति का गठन किया गया था. गठन के एक साल बाद इसकी फरवरी 2008 में एक बैठक हुई जिसमें कैदियों की जल्द रिहाई के लिए कदम सुझाए गए. कमेटी के सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के वकील नागेंद्र राय तहलका से बात करते हुए ईमानदारीपूर्वक स्वीकार करते हैं, सरकारों की ही कैदियों की रिहाई में कोई दिलचस्पी नहीं है.

समित के सदस्य जल्द ही एक-दूसरे की जेलों का दौरा करने वाले हैं. सवाल उठता है कि क्या इससे कैदियों के लिए कोई उम्मीद बंधती है? एक पूर्व खुफिया अधिकारी कहते हैं, कैदियों की रिहाई के लिए बनी समिति का सरकार की नजर में कोई मोल नहीं है.

शायद यही वजह है कि इन कैदियों और उनके परिवारों की जिंदगी बस आंकड़ों तक सिमट के रह गई है. ऐसे आंकड़े जिनका कोई मतलब नहीं.

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