Monday, May 26, 2008

आख़िर क्यों बर्खास्त हुए एम जे अकबर

भारत में यह पहला प्रंसग नहीं है कि जब किसी संपादक को अशिष्ट ढंग से बर्खास्त किया गया है। इसे ऐसा अंतिम प्रसंग भी नहीं कहा जा सकता।

किन्तु अभी हाल तक `एशियन ऐज` के संपादक रहे एमजे अकबर की इस तरह की गई बर्खास्तगी ने कतिपय मौलिक प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं। क्या मालिक को यह हक है कि वह अपने संपादक को जब चाहे मनमाने ढंग से बर्खास्त कर दें? कुछ दिन पूर्व जब अकबर अन्य दिनों के समान प्रात:काल अपने कार्यालय जा रहे थे तो रास्ते में ही उन्हें स्टाफ के एक सदस्य ने मोबाइल पर बताया कि उनका नाम प्रिन्टलाइन से हटा दिया गया है। वह कार्यालय गए उन्होंने अपने कागज पत्र समेटे और वहां से चले आए। अखबार के मालिक ने न तो पुनर्विचार ही किया और खेद जताना तो दूर स्पष्टीकरण का कोई पत्र ही उन्हें मिला। मेरी धारणा है कि मालिक ने जो हैदराबाद के एक वरिष्ठ कांग्रेसजन हैं, यह कदम उठाया, उन पर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी की ओर से दबाव था कि वह अकबर से छुटकारा पा लें. दस जनपथ के विचार में एमजे अकबर सोनिया गांधी के प्रबल विरोधी थे।

सामान्य तौर पर कहें तो कहना होगा कि अतीत में भी कई अन्य संपादक हटाए गए हैं। फ्रैंक मौरेस, खुशवंत सिंह, जार्ज वर्गीस, प्राण चोपड़ा, एस मुलगांवकर, एचके दुआ और विनोद मेहता भी राजनीतिक दबाव का शिकार हुए थे। यदि मुझे ठीक-ठीक याद है तो इनमें से मात्र दो संपादक ही ऐसे रहे जिन्होंने मालिकों से टक्कर ली। प्राण चोपडा ने स्टेट्समैन से सीधे ही टक्कर ली और वर्गीस ने प्रेस काउंसिल आफ इंडिया की मार्फत। इन से एक का प्रबंधन से समझौता हो गया, जबकि दूसरे के मामले में सरकार ने प्रेस काउंसिल ही भंग कर दी। जो संदेश गया वह यह कि संपादक एक निपटाऊ माल है। जिसे जब चाहा बैठा दिया गया और जब मन आया हटा दिया गया। आपातकाल के बाद संपादकों के लिए हालात और भी जटिल हो गए, जब मालिकों ने यह पाया कि वे सरकार के समक्ष दंडवत कर देते हैं। उन्होंने (मालिकों ने) सोचा कि संपादक पर तो दबाव लाने भर की आवश्यकता होती है। दबाव जब भी पडे़गा तो वे आसानी से समर्पण कर देंगे।

मालिक और सरकार में नजदीकी बढ़ी, क्योंकि सरकार ने यह देखा कि उनसे निपटना कहीं अधिक आसान है क्योंकि उनके अन्य कई हित भी हैं। संपादक तेजी के साथ अपनी महत्ता से खिसक कर सरकार और मालिक के बीच संपर्क सेतु की स्थिति में आ गए हैं। वीआईपी स्वागत समारोहों, भोज स्थलों तथा ऐसे ही अन्य स्थानों पर मालिक अब देखे जाने लगे हैं, जबकि एक समय था, जब ऐसे आयोजनों में मात्र संपादक ही जा पाते थे। मालिकों का प्रोफाइल भी बदल गया है। नई पीढ़ी जो विदेशों से लौटी है, वह सामाजिक तौर पर महत्वाकांक्षी और अधिक दुनियादार है। मुझे याद है कि स्टेसमैन के मैनेजिंग डायरेक्टर सीआर ईरानी ने मुझसे पूछा था, `मंत्री तुम्हारे बजाय मुझे क्यों नहीं बुलाते, जबकि मैं उनके लिए संपादक की अपेक्षा कहीं कुछ ज्यादा कर सकता हूं।` इस सबके बावजूद अकबर के मामले ने महत्वपूर्ण प्रश्न उठा दिए हैं। संविधान अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी देता है। जवाहर लाल नेहरू ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि श्रमजीवी पत्रकारों को मालिकों द्वारा मनमाने ढंग से नहीं हटाया जा सके, कानून बनवाया था। इस तरह उन्होंने एक लिहाज से रिपोर्टिंग और टिप्पणी करने वालों को एक तरह से संरक्षण दिलाया। मगर इस व्यवस्था को ठेके की उस योजना ने मात दे दी है, जो मालिकों ने लागू की है।

सवाल यह है कि यदि मालिकों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग उन पत्रकारों के माध्यम से, जिनके सिर पर ठेके की तलवार लटकी है, एक हथियार के तौर पर किया जाएगा तो फिर प्रेस की उस आजादी का क्या होगा, जिस की गारंटी संविधान निर्माताओं ने दी थी? उन्होंने तो यह सोचा तक भी नहीं होगा कि ऐसा भी समय आ जाएगा कि जब ऐसे हालात बन जाएंगे, जब पत्रकार मालिकों के इशारे पर ही थिरकने को बाध्य हो जाएगें। यदि ऐसा है तो फिर यह मानना होगा कि मूल संवैधानिक गारंटी पर पुनर्विचार का समय आ गया है।


अब क्योंकि न तो शासकों और न ही मालिकों के मन में प्रेस की स्वतंत्रता के प्रति आदर की कोई भावना है, राष्ट्र के समक्ष एक चुनौती उपस्थित है। यह चुनौती ऐसी है, जिसे लोकतांत्रिक समाज को अपनी उस राज्य शासन व्यवस्था के हित में स्वीकार करना होगा, जिसमें स्वतंत्र प्रेस उन स्तम्भों से एक है, जिन पर यह ढांचा खड़ा है। दरअसल इस सिद्धांत को नेहरू की पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने तब ध्वस्त कर दिया है, जब उन्होंने पहले `प्रतिबद्धता` के बारे में कहा था और तदुपरांत आपातकाल थोपकर प्रेस का गला घोंटा था। उनकी विदाई के बाद से परिदृश्य और धूमिल हो गया। जब जनता सरकार सत्तासीन थी और वह भी एक हिंसा विग्रह त्रस्त घर थी कि जिसमें यही ज्ञात नहीं हो पाता था कि दायां हाथ क्या कर रहा है और बाएं कि उसे चिंता नहीं होती थी, तब के थोड़े से समय को छोड़कर हालात ने ऐसी करवट ली कि मालिक और सरकार के बीच सांठगांठ और सुदृढ़ हो गयी चाहे शासन कांग्रेस का हो या भाजपा का, सरकार के आलोचकों के लिए कोई ठोर-ठिकाना ही नहीं रह गया। चतुर्थ स्तम्भ पर सर्वाधिक विघातक प्रभाव तो निगमित (कारपोरेट) क्षेत्र से पड़ा है। प्रेस की आजादी का एक अलग ही अर्थ लिया जाने लगा है। निगमित क्षेत्र सरकार से भी अधिक सशक्त हो गया। अब वही धुन निर्धारित करता है। उपलब्ध वस्तुओं को अधिकाधिक लाभ के लिए आगे लाना ही तो निगमित क्षेत्र का मन भावन सिद्धांत है। वही अब प्रेस के मामले में भी अपनाया जा रहा है। एक समय पर पत्रकारिता एक पेशा थी अब उसने एक उद्योग का रूप ले लिया है। अखबार एक उत्पाद है, उसी तरह जैसे साबुन अथवा टैलकम पाउडर है। अब आदर्शवाद का उनसे कोई नाता नहीं है और न ही किसी सामाजिक कर्तव्य का कोई सरोकार रह गया है। अब तो यही डगर है कि जो बिकता है, उसी से सरोकार है।


परिणाम यह है कि प्रेस की विचारों के प्रसारक के रूप में तो मृतवत सी हालत है। टीवी नेटवर्क का हाल तो और भी बुरा है। मीडिया अब टाइटल टैटल (शीर्ष-प्रलाप) का वाहक मात्र होकर रह गया है। फिल्म स्टार और क्रिकेट क्षेत्र के चर्चित नाम मीडिया के लिए प्रतिमा सी महत्वपूर्ण हो गए हैं और आप उन्हें अखबारों में छाए हुए देखते हैं और टीवी पर्दों पर भी उन्हीं की उबकाऊ पुनरावृत्ति होती है। इस समग्र प्रक्रिया में मीडिया की विश्वसनीयता बलि चढ़ रही है। लोगों का अब मुद्रित शब्द पर से भरोसा अधिकाधिक घटता जा रहा है और उस पर से भी जो वे पर्दे पर देखते हैं। वे दिग्भ्रमित हैं।

एक बात सुनिश्चित है कि मीडिया अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है, जिसे वह वापस नहीं ला सकता। अब लोगों को उस पर भरोसा नहीं रहा। आम आदमी की आकांक्षाओं का अभिवक्ता होने का अपना अधिकार वह गंवा चुका। यदि प्रेस की आजादी की मशाल फिर से कभी जली तो अनेक अकबरों की वापसी भी होगी।
(यह आलेख कुलदीप नैयर ने लिखा है, जो विस्फोट.कॉम से साभार लिया गया है)

3 comments:

sunil choudhary said...

baat journalist ki ho rahi hai. par ab we hai khahan. mai is baat se sahmat hoo ki media ab ek industries. newspaper product hai. journalist ek salary pane wala aam theka mazdoor hai. jise jab chaha bahar ka rasta dikhaya ja sakta hai. chahe wo mj akbar ho koi aur...

पुष्यमित्र said...

aapke blog par chuninda achchhi archnaon aur khabaro ko poast kiya jana achchha laga. aaj kal kayee gambhir lekh aur story najaron se ojhal hi rah jate hain.

Ashish Choudhary said...

God always lies in truth.You can't find god easily, but u can found the truth.So a honest journalist is yogi that achives god.
Truth is above all, it above from law,people,country,earth or even the hole universe.Sacrifice everything for truth and u rewarded by truth.mean true love, true wisdom,true life or even god himself.