Friday, May 2, 2008

मैडम राइस! विचारों से 'भूखी' हैं आप


भानु चौबे
यह भूख का अपमान है। यह भोजन के बुनियादी अधिकार के कत्ल की कोशिश है, यह अमीरी की नजर में गरीबी के उपहास का अक्स है। अमेरिका की विदेश मंत्री कोंडालिसा राइस को यह अधिकार किसने दिया कि वे भारत (और चीन) के लोगों की खुराक पर टिप्पणी करें?

वे यह कैसे कह सकती हैं कि भारत तथा चीन के लोगों की खुराक में सुधार के कारण विश्व में खाद्यान्न संकट पनपा है। उनकी टिप्पणी में दोनों देशों की सरकारों पर किया गया यह कटाक्ष भी उतना ही अपमानजनक है कि खुराक में सुधार को देखते हुए दोनों सरकारें खाद्यान्न एकत्र करने में जुटी हैं इसलिए दुनिया में खाद्यान्न कम पड़ रहा है।

दरअसल, राइस का यह बयान अमेरिका की चौधराहट के दंभ की अति है। राजनीतिक, राजनयिक शिष्टता की तमाम सीमा रेखाओं को लाँघना और अपनी श्रेष्ठता कायम करना अमेरिकी नीति का प्रमुख बिंदु रहा है, लेकिन अब तो अमेरिकी सरकार की एक महत्वपूर्ण मंत्री मानवीय गरिमा की सीमा रेखा को भी लाँघ गई हैं।

क्या ऐसा इसलिए कि अमेरिका को उसकी भूल बताने का साहस कोई नहीं कर सकता है? लेकिन वे यह भूल रही हैं कि भारत वही देश है जहाँमूल्यों की लड़ाई के दौरान महाराणा प्रताप जैसे शूरवीर राजा ने घास की रोटी खाकर भी दिन निकाले हैं।

हम समझ रहे हैं कि भारत के प्रति पश्चिमी विश्व की धारणा बदल रही है। हमारा यह सोच राइस के एक बयान से भ्रम साबित हो गया है। वे अब भी भारत को भूख, भिखारी और भिक्षुओं का देश मानते हैं, इसे राइस ने खाद्यान्न संकट के उल्लेख के जरिए जता दिया है।

तो क्या यह भी सच है कि विश्व बैंक, मुद्राकोष और इनकी आड़ में अमेरिका द्वारा दी जा रही मदद को भी वह भिक्षुओं को दी जाने वाली दानराशि समझ रहा है? यदि यह सच है तो इसका प्रतिकार किया जाना चाहिए। अस्मिता का महत्व भूख से भी अधिक मानने वाले इस राष्ट्र का खून खौल उठे, राइस ने ऐसी बात कह दी है। वे यह भी भूल रही हैं कि अमेरिका भी बेरोजगारी, भूख से मुक्त नहीं है।

अमेरिका में कोई कमी, अभाव, बुराई नहीं है, उनका यह सोच किसी मानसिक ग्रंथि का परिणाम दिखाई देता है। राइस की पास की नजर की यह कमजोरी उनके देश अमेरिका के लिए भले ही राजनयिक कुशलता हो, किसी ओर राष्ट्र के बारे में इस तरह बकवास करना, वह भी बिना किसी ठोस आधार के, लज्जा का विषय होना चाहिए।

वैसे भी, खुराक में सुधार होना पेटू होने की नहीं, सेहत में सुधार की निशानी पहले है। नागरिकों की जरूरतों का ध्यान रखना, उन्हें किसी तरह के आपातकाल में मदद करने की तैयारी रखना हर निर्वाचित सरकार का कर्तव्य होता है। यदि भारत सरकार इस कर्तव्य का निर्वहन कर रही है तो अमेरिका को क्या आपत्ति है?

क्या वह अपने नागरिकों की इस तरह मदद नहीं करता है? क्या ऐसी मदद की मंशा उसकी नहीं होती है? वे दिन लद गए जब सामंतवादी अपने लिए अलग और प्रजा के लिए अलग रीति-नीति अपनाते थे। उन दिनों को भी रातों में बदले युग गुजर गया जब तानाशाह के इशारों पर दुनिया नाचती थी। अमेरिका यदि अपने लिए एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की भूमिका चुनने में ईमानदारी बरते तो उसकी सेहत के लिए ज्यादा लाभप्रद हो सकता है।
ऐसा करने से उसका 'सबका भला' का मुखौटा भी सुरक्षित रह जाएगा। वरन्‌ एक बार फिसली जबान सच उगलकर इतिहास रच देती है। कोंडालिजा राइस जो कह गई हैं, वह अमेरिका का असली चेहरा है, जिसे इराक के भूख से तड़पते बच्चों ने देखा है। कोसोवो के दहशतजदा नागरिकों ने देखा है। जर्जर अफगानिस्तान के गरीबों ने देखा है। जिन्होंने अमेरिका का असली चेहरा अभी तक नहीं देखा, कोंडालिजा उनकी मदद कर रही हैं।

धन्यवाद मैडम कोंडालिजा राइस आपके सत्य ने विकासशील देशों और उनके नागरिकों की आँखें खोल दी हैं जो अब तक अमेरिकी मदद को मानवता की सेवा समझ रहे थे। जो अमेरिकी सहानुभूति को ताकतवर की संवेदनशीलता मान रहे थे। जो अमेरिका के साथ खड़े होकर यह समझते थे कि वे भी मानवता, उसके अधिकार की रक्षा की प्रतिबद्धता के साथ खड़े हैं।

अच्छा हुआ एक बयान ने उनकी आँखें खोल दीं। अब भी जिनकी आँखें न खुलें, उनके लिए यह बहस व्यर्थ है। उनके लिए चेतावनी भी व्यर्थ है। लेकिन जिनकी आँखें खुली हैं, वे ठोकर को यूँ ही स्वीकार कैसे कर सकते हैं? अस्मिता के दीवानों के लिए यह गंभीर मुद्दा गौरतलब है।

उम्मीद है कि भारत सरकार अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडालिजा राइस के बयान का इतना कड़ा विरोध तो करेगी कि राइस मैडम कम से कमबयान वापस तो ले लें। इतना नहीं तो बयान का वह अर्थ ही जाहिर कर दें जो उन्होंने बोलने के पहले तय किया था। इतना भी नहीं तो बयान कोतोड़ने-मरोड़ने का ठीकरा मीडिया के सिर ही फोड़ दें। खालिस भारतीय राजनीतिज्ञों के अंदाज में। कम से कम, कुछ तो करें ताकि उन्हें भीअहसास हो कि जो कुछ उन्होंने कहा वह गलत है।
(यह आलेख वेबदुनिया.कॉम से साभार लिया गया है.)

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