Saturday, May 3, 2008

जान हथेली पे लेकर चलता हूं


अपने भव्य फार्महाउस में राजनीतिक हलचलों के केंद्र में बैठे पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ का वनवास आज भी पूरा नहीं हुआ है। वो कोई चुनाव नहीं लड़ सकते और प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। लेकिन वो आज की पाकिस्तानी राजनीति के किंगमेकर हैं इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। शरीफ ने लाहौर में तहलका.कॉम के पत्रकार हरिंदर बवेजा से बड़ी ही साफगोई से मुशर्रफ, जरदारी, भारत और गठबंधन की चुनौतियों पर विस्तारपूर्वक बात की

चुनावों के नतीजे पूरी तरह से मुशर्रफ के खिलाफ और लोकतंत्र के पक्ष में आए हैं। आप किंगमेकर हैं, अब आप लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए क्या करेंगे? गठबंधन में पहले से ही बर्खास्त जजों की बहाली के मुद्दे पर दरारें नज़र आने लगी है।

यही बात है जिसे हमें साफ-साफ समझने की जरूरत है। और इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि जनता ने बदलाव के लिए वोट दिया है। वो तानाशाही का अंत चाहती है। जनता चाहती है कि सेना और उसके अधिकारी राजनीति से दूर रहें। और मेरे ख्याल से बीते आठ सालों में हमने तानाशाही के तथाकथित फायदों को भी देख लिया है। हमने ठोकर खा कर ये सीखा है। मेरे ख्याल से लोकतंत्र की बहाली के लिए हम सबने लंबा संघर्ष किया है। अल्लाह के फज़ल से हमने एक सैन्य तानाशाह और उसके समर्थकों को शिकस्त दी। लिहाजा आगे बढ़ने के साथ इस बात को हमें भूलना नहीं चाहिए। मेरा मानना है कि इस मसले पर किसी भी तरह के समझौते के परिणाम बहुत बुरे होंगे। इसीलिए मैं कहता हूं कि मुशर्रफ को अपने वादे के मुताबिक हार के बाद गद्दी छोड़ देनी चाहिए। दूसरी बात, मुशर्रफ के कार्यकाल में किए गए सभी संविधान संशोधनों को भी खत्म कर देना चाहिए।

संसदीय लोकतंत्र को उसके असल मायनों में बहाल करने की कोशिशें हमें करनी चाहिए। क्योंकि चुनाव के समय तक कहने को भले ही हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र था लेकिन चलती राष्ट्रपति की ही थी। जिस तरह के अधिकार मुशर्रफ के हाथ में हैं, आपके राष्ट्रपति के पास नहीं हैं। यहां आज भी मुशर्रफ के पास नेशनल एसेंबली भंग करने का अधिकार है, इसे हर हाल में उनसे छीनना होगा। ऐसा जितना जल्दी हो उतना ही बेहतर। यही मैं हमेशा आसिफ अली ज़रदारी से कहता रहता हूं कि--तत्काल हमें ये काम करके इसके बाद न्यायपालिका समेत तमाम संस्थानों को बहाल करना चाहिए, ये आपके हित में भी है और साथ ही देश के हित में भी।

आपने कहा था कि मुशर्रफ को पद छोड़ देना चाहिए। मेरा सवाल ये है कि क्या उन्हें अपना पद अब तक छोड़ देना चाहिए था?

हां, उन्हें बहुत पहले ऐसा कर देना चाहिए था। अब तक अगर वो काबिज हैं तो मेरे ख्याल से राजनेताओं को दृढ़ता दिखानी चाहिए और मैंने ज़रदारी को इसके लिए आगाह भी किया है।

और उनकी विदाई तक आप चैन से नहीं बैठेंगे?

ये पाकिस्तानी आवाम की इच्छा है और जनता उन्हें नहीं चाहती। मैं परसों टीवी देख रहा था। एक बड़ा समाचार चैनल एक सर्वेक्षण प्रसारित कर रहा था। इसमें 62 फीसदी जनता की इच्छा थी कि मुशर्रफ फ़ौरन गद्दी से हटें। उन्हें त्यागपत्र दे देना चाहिए।

आपके मुताबिक उन्हें जनता ने नकार दिया। तो फिर वो गद्दी पर काबिज क्यों हैं?

मुझे नहीं पता।

क्या आपको नहीं लगता कि वो अब भी अमेरिका की वजह से बने हुए हैं?

विदेशी ताकतों को छोड़िए। हमें इसे अपने हाथों में लेना होगा। हमें अपने फैसले खुद लेने होंगे। यही मेरी नीति रही है और अभी भी मेरी पार्टी की नीति है। हम एक सम्प्रभु राष्ट्र हैं। हमारा देश सभी देशों की सम्प्रभुता का सम्मान करता है और दूसरों से भी हम ऐसी ही उम्मीद रखते हैं। इसलिए मेरा स्पष्ट रूप से ये मानना है कि हमें दूसरे को अपनी तरफ से कुछ भी करने की इजाजत नहीं देनी चाहिए।

इसी हफ्ते एक प्रमुख पाकिस्तानी समाचारपत्र की मुख्य ख़बर थी, "मुशर्रफ को ज़रदारी के रूप में नया सहयोगी मिला" आप स्पष्ट रूप से प्रतिरोध के प्रतीक बन गए हैं। लेकिन आपको नहीं लगता कि ज़रदारी काफी हद तक न्यायपालिका की बहाली और मुशर्रफ को बाहर का दरवाजा दिखाने के प्रति उदासीन हो गए हैं?

ये अख़बारों का अपना आंकलन हो सकता है। लेकिन सच तो सच ही है। मुशर्रफ ही वो आदमी है जो लोकतंत्र के लिए ख़तरा है और पूर्व में भी उन्होंने लोकतंत्र की गाड़ी को पटरी से उतारा था। ध्यान रखें कि यही वो व्यक्ति था जिसने भारत-पाक के बीच शांति प्रक्रिया को ठेंगा दिखाया था। आज पाकिस्तान की जो दुर्दशा है उसके लिए अकेले यही व्यक्ति जिम्मेदार है। इस व्यक्ति ने हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को तहस-नहस कर दिया। उन्होंने जजों को गिरफ्तार किया, उन्हें बर्खास्त किया, उन्हें अपमानित किया और अभी भी ऐसा कर रहे हैं। ये आदमी संविधान के साथ खिलवाड़ करने और उसे तोड़ने-मरोड़ने का अपराधी है और अगर हम ऐसे व्यक्ति को मौका देते हैं तो ये एक घातक भूल होगी।

क्या आप ये दृढ़ता ज़रदारी में भी पाते हैं?

मैंने उनसे कह दिया है। जितना जल्दी हम मुशर्रफ से छुटकारा पा लें उतना ही बेहतर होगा।

और उनकी प्रतिक्रिया क्या है?

उन्होंने इस बारे में मुझे कोई स्पष्ट जवाब नहीं दिया है।

मैं पूछना चाहती हूं, मुशर्रफ ने तख्ता पलट दिया, आपको जेल में डाल दिया, एक प्रधानमंत्री ही नहीं बल्कि एक इंसान के तौर पर भी आपका अपमान किया। आपके मन में कोई कड़वाहट है?

बिल्कुल कड़वाहट है। इसमें कोई शक नहीं। आखिरकार मैं भी इंसान हूं। अगर मैं "ना" कहूं तो ये ग़लत होगा। लेकिन मैं इससे पार पाना चाहता हूं क्योंकि कि मैं आदमी ही ऐसा हूं। मैं किसी के साथ निजी दुश्मनी नहीं रखना चाहता। मेरा देश मेरी प्राथमिकता है। संस्थाएं मुझसे ऊपर हैं और मैं देश के लिए अपनी व्यक्तिगत भावनाओं की बलि देने को तैयार हूं। लेकिन मेरा मानना है कि जिन लोगों ने संविधान को ताक पर रखने, न्यायपालिका को लात मारने, उन्हें अपमानित करने का अपराध किया है उन्हें दंड मिलना चाहिए। उन्होंने मेरे साथ, मेरे परिवार के साथ, मेरी पार्टी के साथ क्या किया ये अलग मामला है।

क्या ऐसा भी कोई मौका आया जब आपके मन में भरी कड़वाहट बदले की भावना में बदल गई हो?

मैं ऐसा व्यक्ति नहीं हूं जो हमेशा बदले की ताक में रहता है। मैं प्रतिक्रियावादी व्यक्ति नहीं हूं। मैं हमेशा माफ करने और भूलने में यकीन रखता हूं।

क्या पाकिस्तान वापस लौटने के बाद कभी आपका मुशर्रफ से आमना-सामना हुआ?

नहीं, पर वो मुझसे हमेशा टकराना चाहते होंगे। मैं जगहें बदलता रहा, अलग-अलग रास्ते चुनता रहा।

क्या उन्होंने आप तक पहुंचने की कोशिशें की?

हां।

आपकी क्या प्रतिक्रिया रही?

वो मेरी प्रतिक्रिया को नकारात्मक तरीके से ले सकते हैं, लेकिन मैं अपने सिद्धांतो से बंधा हुआ हूं। मुझे उनसे कोई बात नहीं करनी है। ईमानदारी से कहूं तो मुझे उनसे कोई सौदेबाजी नहीं करनी है। मुझे उनसे कुछ लेना है ना ही उन्हें कुछ देना है।

यानी बातचीत की कोई गुंजाइश नहीं है?

निरर्थक चीज़ों पर समय क्या बर्बाद करना? मेरे पास और भी ज्यादा महत्वपूर्ण काम करने को हैं, जैसे आपके साथ इंटरव्यू।

निर्वासन के दौरान आपके पिताजी की मृत्यु हो गई। आपने उनके जनाजे में शामिल होने की मांग की थी लेकिन उन्होंने इजाज़त नहीं दी। ये बात शायद आपको सालती होगी...

आज भी जब कोई मुझसे इन मसलों पर बात करता है तो मैं भावुक हो जाता हूं। उन्होंने मुझे, मेरे परिवार को, यहां तक कि मेरी मां को भी मेरे वालिद के जनाजे में शामिल होने की इजाज़त नहीं दी। उनकी कब्र बगल ही में है लेकिन इसे मैंने उनकी मौत के पूरे चार साल बाद देखा। मेरे ख्याल से किसी को इस हद तक नहीं जाना चाहिए। आखिर इंसानियत भी एक शब्द है जिसे भूलना नहीं चाहिए।

जब अटल बिहारी वाजपेयी ने करगिल के दौरान आपको फोन किया क्या आपको वास्तव में नहीं पता था कि पाकिस्तानी सेना भारतीय हिस्से में घुस आई थी?

जहां तक मुझे याद है वाजपेयी ने मुझे तीसरे या चौथे दिन फोन किया था। मुझे इसका भान नहीं था कि सेना इसमें शामिल है।

लेकिन आपको पता था कि आतंकवादी सीमा का अतिक्रमण कर रहे थे?

थोड़ा बहुत...

आप अभियान की शुरुआत से पहले ही इसके बारे में जानते थे?

पहले जांच शुरू होने दीजिए। तभी सारे तथ्य और सच्चाइयां सामने आएंगी।

तो फिर आपको पता कब चला कि इसमें पाकिस्तानी सेना शामिल है?

वाजपेयीजी के फोन के बाद। मैं बहुत परेशान हो गया। इसलिए मैंने मुशर्रफ को फोन करके उन्हें इसकी सच्चाई पता करने को कहा। दुर्भाग्य से ये सच था। इसके बाद दूसरे स्रोतों से भी मुझे जानकारी मिलने लगी। सूत्रों ने खुलासा किया कि हमारी सेना वहां मौजूद थी।

उस वक्त पाकिस्तान से परमाणु बम का शोर उठने लगा था.

ग़ैरज़िम्मेदार लोग ये सब कर रहे थे। मेरे ख्याल से भारत और पाकिस्तान दोनों पिछले 40-50 सालों से हथियारों की दुर्भाग्यपूर्ण दौड़ में शामिल हैं। ये खत्म होना चाहिए। हम पड़ोसी हैं। 60 साल पहले तक हम एक ही देश थे। ठीक है, आज हम दो अलग देश हैं लेकिन हम पड़ोसी हैं और हमारा धर्म हमें अपने पड़ोसियों से भाई, दोस्त की तरह रहने की सीख देता है। पिछले पांच-छह दशकों में हमारा पाला तमाम दुर्भाग्यशाली चीजों से पड़ चुका है। क्या हम इसे खत्म नहीं कर सकते? मैं दोनों देशों के बीच वीसा की बाध्यता को खत्म करना चाहता हूं। मेरे ख्याल से अगर ऐसा दोनों ओर से नहीं होता है तो हम इसे एकतरफा ही लागू कर सकते हैं।

भारत-पाक रिश्तों पर आपके विचार क्या हैं?

हम हर मुद्दे पर तरक्की करना चाहते हैं- व्यापार, वाणिज्य, संस्कृति और कश्मीर। हमें हर मसले पर साझा विकास करना होगा।

आप साझा विकास की बात कर रहे हैं। क्या कश्मीर अब मुख्य मुद्दा नहीं रहा? ये तो लंबे समय से पाकिस्तान का मुख्य मुद्दा रहा है और इससे कई बार रुकावट भी पैदा हुई है।

बिला शक कश्मीर मुख्य मुद्दा है और हम सभी जानते हैं कि पाकिस्तान की जनता इसे काफी गहराई से महसूस करती है। लेकिन मेरे ख्याल से ये राजनीतिक इच्छा शक्ति का मामला है। मेरा मानना है कि वाजपेयी के पास वो इच्छाशक्ति थी।

मनमोहन सिंह के बारे में आपके क्या विचार हैं, अगर आपको उनसे मिलने का मौका मिला तो उनसे क्या कहना चाहेंगे?

सरदार मनमोहन सिंह भले आदमी हैं जिन्हें कोई भी पसंद करेगा। वो भारत के लिए बेहतर काम कर रहे हैं। मेरे ख्याल से उन्हें और उनकी पार्टी को पाकिस्तानी सरकार से बातचीत शुरू करने के लिए क़दम उठाना चाहिए। लगे हाथ हमें भी हिंदुस्तानी नेतृत्व तक पहुंचने की पहल करनी चाहिए। दोनों देशों के नेताओं को भविष्य की सोचते हुए आपस में बातचीत करनी चाहिए। अवसर की ये खिड़की एक बार फिर से खुल गई है। हमें इसका फायदा उठाते हुए सभी मसलों को सुलझा लेना चाहिए। ईमानदारी से कहूं तो ये आसान नहीं है लेकिन अगर हमारे पास राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो हम आगे बढ़ सकते हैं।

राजनीतिक नेतृत्व तो स्वाभाविक रूप से दोनों देशों के बीच शांति का समर्थक है, लेकिन इसे पाकिस्तानी सेना के समर्थन की भी जरूरत होगी। क्या ये सही नहीं है?

नहीं, भारत के साथ शांति प्रक्रिया को सेना के समर्थन की कोई जरूरत नहीं है। हमें सेना से किसी राजनीतिक सहयोग की जरूरत नहीं है। हम उनसे यही उम्मीद रखते हैं कि वो अपना काम पेशेवर तरीके से करें और कभी भी राजनीति में वापस आएं। इस देश में फिर से राजनीति करने के बारे में सोचें क्योंकि हमने पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही का नतीजा देख लिया है। सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर दिया गया है। देश अधर में फंस गया है। देखिए आज देश को क्या दिन देखना पड़ रहा है। देश में आटे की समस्या है। बिजली की भयंकर कमी है। बेरोजगारी आसमान छू रही है। महंगाई का भी यही हाल है। इस देश का इससे बुरा और क्या हो सकता है? बस अब बहुत हुई सैनिक तानाशाही। अब उनके बैरकों में बैठने का समय है।

एक स्तर पर आपकी पार्टी और पीपीपी के बीच सत्ता की भागीदारी अजीब सी बात लगती है। ये तो ऐसा है कि जैसे भारत में बीजेपी और कांग्रेस हाथ मिला लें। विचारधारा के स्तर पर वो बिल्कुल अलग हैं।

आपका मतलब ये झूठा प्यार है?

मैं तो सवाल पूछ रही हूं...

मेरे ख्याल से ये अच्छी शुरुआत है। इस तरह का ये पहला प्रयोग है। मेरा मानना है कि ये सफल होना चाहिए। ये देश की बेहतरी के लिए है, व्यवस्था के लिए हैं, संस्थाओं के लिए और अंतत: लोकतंत्र की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए है। इस गठजोड़ का यही मकसद है। ये सत्ता में हिस्सेदारी का जुगाड़ नहीं है। उदाहरण के लिए अगर हमने न्यायपालिका को बहाल नहीं किया तो हम कहीं भी नहीं पहुंचेंगे।

तो आप इस पर कोई समझौता नहीं करेंगे.

ये तो पहली परीक्षा है. इसमें हमें खरा उतरना ही है. मुरी घोषणापत्र सभी चीज़ों का स्पष्ट उल्लेख करता है. पहला ये कि जजों की 2 नवंबर, 2007 वाली स्थिति को बहाल कर दिया जाएगा. दूसरा ऐसा संसद में एक प्रस्ताव के ज़रिए होगा. इसमें सारी बातें हैं. हमें पाकिस्तान के लोगों से किए गए वादे का सम्मान और उसका पालन करना है. हमने लोगों के सामने हस्ताक्षर किए हैं. प्रेस ने उसकी तस्वीरें खीचीं और दिखाई हैं.

ये बड़ी शर्मिंदगी वाली बात होगी. इसके अलावा ये जनादेश के साथ भी विश्वासघात होगा.

मुझे लगता है कि ये हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है.

क्यों ऐसा लगता है कि सरकार दुबई से ज़्यादा चलाई जा रही है. ज़रदारी वहां हैं, कई मंत्री और आपके भाई शाहबाज़ शरीफ भी वहीं हैं.

नहीं, ऐसा नहीं है. ज़रदारी वहां इसलिए गए हैं क्योंकि उनकी बेटी की तबियत ठीक नहीं है. इसलिए हमने अपने लोगों को दुबई में उनसे बात करने के लिए भेजा क्योंकि न्यायपालिका की बहाली की समयसीमा खत्म हो रही थी. उन्हें ये समझाना जरूरी था कि अगर हम अपने वादे से मुकर जाएंगे तो हमें पाकिस्तान की जनता के सामने बेहद शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी.

मुशर्रफ ने नेशनल रिकंसिलिएशन ऑर्डिनेंस के तहत ज़रदारी के खिलाफ मामलों को वापस ले लिया था. क्या यही कारण है कि वे मुशर्रफ के खिलाफ जाने से कतरा रहे हैं?

मैं किसी और मुद्दे के बारे में बात ही नहीं कर रहा. मैं अपने आपको मुरी घोषणापत्र तक सीमित रख रहा हूं. उन्होंने और मैंने, दोनों ने न्यायपालिका की बहाली के मुद्दे पर हस्ताक्षर किए थे.

क्या आपको कभी ये सोचकर चिंता होती है कि पीपीपी, पीएमएल-क्यू के साथ हाथ मिला सकती है बावजूद इसके कि चुनावों में वो बुरी तरह हार गई थी?

हम सबने उनके खिलाफ इसलिए संघर्ष किया क्योंकि वो तानाशाह मिस्टर मुशर्रफ के साझेदार थे. इसलिए हमने उनके और तानाशाही, दोनों के खिलाफ लड़ाई जीती थी. वो दोनों एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं.

तख्ता पलट के बाद आपको सऊदी अरब में निर्वासित कर दिया गया. कुछ पाकिस्तानी पूछते हैं कि उनके नेता यहां रूक कर लड़ाई क्यों नहीं लड़ते. क्या ये एक तानाशाह द्वारा जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटकाए जाने की वजह से है?

हम भयभीत नहीं हैं. इस देश में राजनेताओं ने बहुत साहस दिखाया है. जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी ऐसा किया था. मोहतरमा बेनजीर भुट्टो ने भी बहुत साहस का परिचय दिया. जहां तक हिम्मत का सवाल है मुझमें भी इसकी कमी नहीं है. मैं दोबारा से संघर्ष कर रहा हूं और ये पिछले आठ सालों का परिणाम है.

क्या आपको कभी अपनी जान जाने का डर लगता है?

लोग कहते हैं कि मुझे बहुत सावधान रहना चाहिए. वो कहते हैं कि देश में कुछ ऐसे तत्व हैं जो मेरी जान के पीछे हैं. इसलिए वो मुझे डराते रहते हैं. लेकिन मैं भयभीत नहीं हूं. जान हथेली पे लेके चलते हैं.

आखिरी सवाल, क्या मैं पाकिस्तान के किंगमेकर से बात कर रही हूं.
(हंसते हैं) ना ना ना. हम तो छोटे से आदमी हैं जी. मुझे आपकी शुभकामनाओं की जरूरत है.

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