Wednesday, May 7, 2008

बुश हुए नाखुशः अच्छा क्यों खाते हैं भारतीय


जार्ज बुश कहते हैं "भारत में 35 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें मध्य वर्ग माना जाता है. ये संख्या अमरीका से भी ज़्यादा है. भारत का मध्य वर्ग हमारी आबादी से भी ज़्यादा है. जब आपके पास धन आने लगता है तो आप बेहतर चीज़ों की मांग करने लगते हैं. इनमें बेहतर खाना भी शामिल है. इससे मांग बढ़ती है और फिर क़ीमतें आसमान छूने लगती हैं"

अभी इस देश में लोग कैलोरी का रोना रो रहे हैं. कह रहे हैं भाई 276 रूपये में महीनेभर 2200 कैलोरी नहीं खा सकते. कपड़ा ओढ़ना तो छोड़ ही दो. दो तिहाई आबादी का यही हाल है. लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने ऐन मौके पर इस तरह का बयान देकर कई संकेत दिये हैं. पहले कोंडोलिजा राईस और अब जार्ज बुश. बुश कहते हैं मंहगाई बढ़ने का बड़ा कारण भारत जैसे देश हैं जहां पैसा आ रहा है और वे अच्छा खाने लगे हैं. वे अच्छा खाने लगे हैं तो अमेरिका का बिजनेस तो बढ़ा लेकिन कीमतें भी बढ़ी हैं. बुश का यह बयान एक लंबी रणनीति का हिस्सा है. देश उलझ जाएगा कि हां समृद्धि आ रही है. और आधुनिकता की मशाल में और तेल डालने लगेगा. जितना मशाल में तेल पड़ेगा उतना अमेरिकी तेली की बिक्री बढ़ेगी. लेकिन इस तरह के बयानों का सिर्फ इतना ही मतलब नहीं है.

अमेरिका लंबी रणनीति के तहत अपने राष्ट्रपति से इस तरह का बयान दिलवा रहा है. इस रणनीति के कई पहलू हैं. पहला, यह स्थापित करना जरूरी है अमेरिका से जो अनाज भारत में निर्यात किया जा रहा है वह बहुत अच्छी किस्म का है. हकीकत इसके उलट है. अमेरिकी अनाज घटिया दर्जे का होता है और खुद अमेरिका में भी अमेरिकी अनाज दोयम दर्जे का ही समझा जाता है. अमेरिका में हर चौथा आदमी आर्गेनिक फूड खरीदने लगा है. अमेरिका में आज ऐसे 20 लाख फार्म हैं जो आर्गेनिक खेती करते हैं. अनुमान है कि आज अकेले अमेरिका में 20 अरब डालर का आर्गेनिक खाद्य बाजार है. ऐसे में अरबों डालर के निवेश से खड़ा किया गया जेनेटिकल फूड प्रोडक्शन टेक्नालाजी के फेल होने का खतरा है. इस तकनीकि पर लगे पैसे की भरपाई के लिए जरूरी है कि दुनिया के दूसरे "गरीब" देशों को फंदे में लिया जाए. इस तरह की बयानबाजी का सबसे पहला मकसद यह साबित करना है कि जेनेटिकली मोडिफाईड खाद्य पदार्थ सुरक्षित है. बुश के इस बयान के बाद बहस का मुद्दा यह हो जाएगा कि आप कैसे कह सकते हैं कि भारत के लोगों को कम खाना चाहिए. बुश और अमरीकी प्रशासन चाहता भी यही है कि बहस ऐसी हो जिसकी प्रतिक्रिया में अमरीकी माल ज्यादा मात्रा में भारतीय बाजारों में बिके और जीई/जीएम फूड्स पर सवाल न उठाया जा सकते. एक ओर खुद अमेरिका आर्गेनिक फार्मिंग के नाम पर परंपरागत खेती की ओर जा रहा है तो दूसरी ओर भारत जैसे देशों में वह परंपरागत खेती को नष्ट करके जहरीले रसायनों वाले खाद्यान्न को बढ़ावा देने में लगा हुआ है.

इस तरह के बयान का दूसरा मकसद है भविष्य के कार्बन ट्रेड को बैलेंश करना. वर्तमान में भारत कार्बन उत्सर्जन में बाजी मारे बैठा है. अमेरिका में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 23 टन है तो भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 1.67 टन है. अगर अमेरिका को अपनी शानोशौकत को बनाए रखना है तो जरूरी है कि वह दुनिया के विकास को अपने हिसाब से निर्धारित करे. मसलन दुनिया के किस हिस्से में जंगल लगना चाहिए और किस हिस्से में उद्योग यह अमेरिका तय करेगा. इससे फायदा यह है कि दुनिया के अधिकांश देश अमेरिका के तय मानकों के अनुसार उत्पादन करेंगे और बदले में विश्वबैंक द्वारा घोषित कार्बन फण्ड से खाना खरीदकर खायेंगे. हो सकता है कल को विश्व बैंक कोई योजना ला दे कि भारत में पेड़ लगानेवाले को एक हजार रूपया मिलेगा. अब आप बैठकर पेड़ लगाईये, फूलों की खेती करिए और कार्बन क्रेडिट की कमाई से जो पैसा मिलता है उससे अपने और अपने परिवार का भरण पोषण करिए.

तीसरा मकसद है भारत के 35 करोड़ मध्यवर्ग को अपने साथ मिलाकर रखना. अमेरिकी राष्ट्रपति ने जानबूझकर 35 करोड़ मध्यवर्ग का जिक्र किया है. यह 35 करोड़ मध्यवर्ग भारत की सबसे बड़ी समस्या है. आज उदारीकरण का जितना कोढ फैल रहा है उसके मूल में इसी 35 करोड़ मध्यवर्ग की लालच है. अमरीकी कंपनियां लंबे समय से इस रणनीति पर काम कर रही हैं कि इस 35 करोड़ मध्यवर्ग को अमरीकी सोच-समझवाला कैसे बनाया जाए. बुश के इस तरह के बयान से यह 35 करोड़ मध्यवर्ग और उत्साहित होगा कि उसका विकास होगा और उसकी खर्च करने और विदेशी माल और भोजन के प्रति लगाव बढ़ेगा. अमेरिका चाहता भी यही है. 35 करोड़ को पटाने के लिए इससे अच्छा कुछ हो नहीं सकता कि आप उन्हें कहें आप विकास कर रहे हैं और विकास के नाम पर इतना पागल कर दें कि उनकी खरीदने की ललक बढ़ती चली जाए. इसी महीने एक रिपोर्ट जारी हुई है जो बताती है अमेरिकी नीतियां कामयाब हो रही हैं और मध्यवर्गीय भारतीय फूड और ग्रासरी पर अपनी कमाई का 11 प्रतिशत हिस्सा खर्च करता है. 2011 तक यह खर्च बढ़कर 23 प्रतिशत हो जाएगा. कहने की जरूरत नहीं कि यह सारी बढ़ोत्तरी पैकेज्ड फूड की होगी.

इसलिए जयराम रमेश जैसे लोग बुश के बयान की निंदा करके सिर्फ फौरी तौर अपनी जान छुड़ा रहे हैं. दबे अर्थों में तो वे बुश का समर्थन ही कर रहे हैं. जितना इस तरह का पैकेज्ड फूड वाला विकास बढ़ेगा उतनी अमेरिका और अमेरिकी प्रशासन भारतीयों को गिनीपिग बनाएगा. खाने और खर्च करनेवाला बुश का यह बयान भारत की निंदा नहीं बल्कि अमेरिका के लिए संभावित बाजार को तैयार करने के लिए दिया गया है. अब हम इसमें उलझ जाएं यही तो अमेरिकी रणनीतिकार चाहते हैं. यह कहना कि भारतीयों ने अच्छा खाना शुरू कर दिया है भारतीयों को मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव में डालता है कि पहले वे अच्छा नहीं खाते थे. जबकि हकीकत यह नहीं है.

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