Sunday, July 20, 2008

राम रतन धन पाओ












कोई कुर्सी सामने देख गदगद है, तो कोई मन ही मन घुट रहा है

रजत कुमार गुप्ता
केंद्र सरकार के विश्वासमत हासिल करने की जद्दोजहद के बीच यह कहानी याद आ रही है। घटना वास्तविक है और नागपुर के पुराने पत्रकार इस शीर्षक से ही संपूर्ण घटनाक्रम को याद कर चुके होंगे। नागपुर में एक पत्रिका के मालिक का नाम राम-रतन से मिलता जुलता था।
पत्रिका के संपादक तीखे तेवर वाले थे। नागपुर में ही चुनावी सर्वेक्षण के नाम पर विज्ञापन छापने की प्रथा चालू हुई थी। सो पत्रिका के मालिक ने एक प्रत्याशी से पैसा लेकर उनकी जीत सुनिश्चित होने संबंधी एक लेख अखबार में प्रकाशित कराये। जब यह लेख छपा, तब पैसे का भुगतान नहीं हुआ था। दो दिन के बाद प्रत्याशी ने मालिक को इस लेख के पैसे भिजवा दिये तो मौके की प्रतीक्षा करते संपादक ने इसी शीर्षक से संपादकीय लिखा- राम रतन धन पाओ। अंदर में राम की महिमा और राम कथा से संपादकीय की शुरुआत होने के बाद अंततः कलियुग और भ्रष्टाचार की चर्चा पर आकर लेख की समाप्ति कुछ इस तरीके से हुई, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि आखिर संपादक ने यह लेख क्यों लिखा है।
परमाणु करार के मसले पर वामपंथियों द्वारा यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद उपजी स्थिति ने इस घटना की याद दिला दी है। मामला 25 करोड़ की न्यूनतम बोली से प्रारंभ होकर 30 तक जा पहुंचा है। इसकी चर्चा नेता ही कर रहे हैं। इसलिए सरकार का टिका रहना, कितना जरूरी है, इसे समझा जा सकता है।
झारखंड के संदर्भ में बात करें तो केंद्र की सरकार के साथ राज्य की सरकार का अस्तित्व भी सीधे तौर पर टिका हुआ है। वहां सरकार गयी तो यहां भी जाते देर नहीं लगेगी। झामुमो ने वहां कांग्रेस का समर्थन नहीं किया तो यहां बाहर से सरकार को समर्थन दे रही कांग्रेस को भी पलटवार करने में समय नहीं लगेगा। भले ही इससे पहले अजय माकन (झारखण्ड कांग्रेस के प्रभारी) राज्य सरकार को कोस कर थक चुके हों, पर इस बार मामला कोसने का नहीं कसने का है। मैं नहीं तो तू भी नहीं की तर्ज पर खुदगर्जी का खेल चल रहा है।
इस खेल में कौन कहां बीमार पड़ा है, दूसरों को सुध तक नहीं है। एक अखबार ने एक नेता की बेहिसाब संपत्ति का विवरण क्या छाप दिया, दूसरों को सांप सूंघ गया। सत्ता को दूसरों की मदद से टिकाये रखने की मजबूरी ने मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को भी लाचार से बना दिया है। हाल के कई घटनाक्रम यह बताते हैं कि राज्य में महत्वपूर्ण फैसलों पर मुख्यमंत्री की नहीं उनके अधीनस्थ अधिकारियों और पीए की चलती है। वैसे इस मसले पर सिर्फ दूसरों को कोसना शायद हमारी आदत में शामिल हो चुका है। लिहाजा मेरी अपील होगी कि हम समय-समय पर आत्म विश्लेषण भी करें। मंत्रियों और उनके पीए से निजी लाभ लेने, अपना जेब भरने के लिए भ्रष्ट अधिकारियों के तबादले की पैरवी करने, लाईसेंस, ठेका और राजनीति मैनेज करने के नाम पर अतिरिक्त आमदनी का जो जरिया पत्रकारों ने अपना रखा है, वह स्पष्ट तौर पर इसी भ्रष्ट राजनीति से जुड़ता है। पलायनवादी सोच यह हो सकती है कि प्रबंधन की इच्छा पर बहुत कुछ करना पड़ता है। जाहिर सी बात है कि अखबार एक ऐसा उत्पाद (प्रोडक्ट) है जो अधिक पैसे में तैयार होने के बाद कम पैसे में बिकता है। ऐसे में प्रबंधन विज्ञापन के बाद भी अतिरिक्त राजस्व (कमाई) को विवश है। पर इस खोखली दलील में यह बात निश्चित तौर पर शामिल नहीं हो सकती कि हम अपने मोबाइल बिल का रिचार्ज कूपन तक दूसरों से लें, अपनी गाड़ी में तेल डलवाने के लिए दूसरों की चिरौरी करें या अधिकारियों से मोबाइल लें। जिनसे यह निजी लाभ प्राप्त करेंगे, वह भी आपसे कोई न कोई लाभ पाना ही चाहेगा। ऐसी स्थिति में दूसरों को कोसने का क्या फायदा, क्योंकि हम खुद उसी दलदल में शामिल हैं। इसे समय की मांग बताने वालों को भी मैं हिदायत देता हूं क्योंकि हम में से किसी को भी किसी अखबार ने पत्रकार बनने के लिए न्योता नहीं दिया था। हम सभी अपनी इच्छा से इस पेशे से जब जुड़े तो हमें इस पेशे की जिम्मेदारियों और कठिनाइयों का एहसास था। फिर आज मौका देखते ही पलटी मारने का कोई औचित्य भी नहीं। वैसे भविष्य में झारखंड के राम रतनों के धन पाने की कहानी भी आयेगी, पर वह फिर कभी।

1 comment:

Anonymous said...

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