कृपया नैतिकता की बात मत कीजिये
नदीम अख्तर
एक बात बताइए कि आख़िर इस हमाम में कौन नंगा नहीं है. जो लोग ख़ुद को सबसे साफ़ सुथरा छवि वाला बताते हैं, उनके कारनामे जानते हैं न आप. कोई माई का लाल ये कह नहीं सकता है कि उसने पत्रकारिता के माध्यम से अनुचित लाभ अर्जित करने की कोशिश न की हो. हाँ ये अलग बात है कि कुछ लोग निशाना साधने में कामयाब हो गए और कुछ चूक गए. वैसे अपवाद हर पेशे में आपको मिल जायेंगे. आज भी हमारे सामने बहुत सारे पत्रकार मित्र ऐसे हैं, जिनके घरों में ठीक से चूल्हा नहीं जलता, लेकिन उन्होंने अपनी ईमानदारी नहीं बेचीं है. या फिर यूँ कहें कि उनका भाव ही नहीं लगा है बाज़ार में. मैं बिल्कुल शर्त के साथ कह सकता हूँ कि आज जिसकी बोली लगेगी वो बिकने को तैयार हो जाएगा. केवल अच्छा खरीदार चाहिए. फ़िर हम लोग सिर्फ़ राजनीति को ही क्यूँ कोसते रहें. राजनेताओं से तो वैसे भी कभी कोई नैतिकता की उम्मीद की ही नहीं जाना चाहिए, क्यूंकि आप अगर पिछले 70 सालों का भारतीय राजनीतिक इतिहास देखेंगे, तो पाएंगे कि सिर्फ़ स्वार्थ ही वो तत्व था, जिसने हर बड़ी राजनीतिक घटना को घटित होने का मौका दिया. जैसे देश को आज़ादी मिलना भी अंग्रेजों की स्वार्थ परक राजनीति का एक हिस्सा था. अंगरेजों ने इस लगभग खोखले हो चुके देश को चलाने से बेहतर यहाँ के स्वार्थियों को सौंप कर इस देश को एक दुधारू गाय की तरह पालने में ही अपनी भलाईए समझी. और आप इतिहास को गौर से पढेंगे तो पाएंगे कि अंग्रेजों ने जब देश को मुक्त किया तो इस देश रुपी गाय का पीछे वाला हिस्सा रखा, जहाँ से दूध ढूह जा सके और गाय के अपशिष्ट से भी उन्हें ही फायदा हो. लेकिन भारत के लोगों को गाय का मुंह मिल गया, जहाँ से सिर्फ़ घास झोंक-झोंक कर गाय को तगड़ा किया जाता है. ये सिर्फ़ सन्दर्भ के लिए था, मुद्दा यह है कि झारखण्ड बना तो यहाँ के लोग यह मान कर चल रहे थे कि बिहार इस गाय का मुंह था और हमारे हिस्स्से जो आया है, वो गाय का थन है और गाय जो खायेगी वो गोबर के रूप में हम लोगों को मिलेगा, इसलिए यहाँ के लोग बहुत खुश थे, लेकिन ज़रा याद कीजिये कि यहाँ के राजनेता वही हैं, जो नरसिम्हा राव की सरकार को बचाने के लिए वाया हर्षद मेहता अपने-आप को तुष्ट करवा चुके हैं. इन्हें तो जब-जब ऐसा मौका मिलेगा, ये कूद जायेंगे हमाम में, क्योंकि ये आज से 18 साल पहले भी नंगे थे, आज भी नंगे हैं और कल भी रहेंगे. कृपया इनसे इनके आचरण के विपरीत सदाचरण की प्रतीक्षा ना करें. और पत्रकार मित्रों का तो कोई दोष ही नहीं, असल में जो लोग एक ईमानदार रिक्शाचालक बनने की भी काबिलियत नहीं रखते, जो एक जाम में दूसरों के तलवे चाटने लगें, जो यह मान बैठें कि चौहान को बस एक ही मौका मिला है, इसलिए चूकना नहीं है, वैसे लोगों को अगर अखबारों और मीडिया समूहों में जगह मिले और वे कथित रूप से पत्रकार हो जायें, तो उनसे कसी नैतिकता कि उम्मीद? वो तो अपने आचरण के अनुकूल काम कर रहे हैं. असली सवाल तो ये है कि आज बाजारवाद कि अंधी दौड़ में अखबार मालिकों और कुछ संपादकों को हर एक बेरोजगार और कम रोज़ी मांगने वाला पत्रकार नाम की वास्तु ही दिखता है. कम पैसा मांग रहा है या फ्री में काम करने को कोई तैयार है, तो बना दो पत्रकार. चला तो चला नहीं चला तो जाएगा बूट लादने. ऐसी मानसिकता के साथ किसी को रखा जाएगा तो कहाँ से गुणवत्ता मिलेगी. गुणवत्ता तो तभी मिलेगी जब आप अपने हिसाब से पत्रकार खोजिये. टेस्ट लीजिये, इंटरव्यू लीजिये और ख़ुद मत लीजिये. अपने संस्थान के लिए बहार से जाने माने, प्रसिद्ध और ख्याति प्राप्त पत्रकारों को बुलवा के उनसे अपने लिए अच्छे पत्रकार चुनवाइये. फिर आपसे वो गुणवत्ता वाला आदमी अगर पैसे ज़्यादा भी मांगे तो दीजिये. आपके पास पैसों की तो कोई कमी है नहीं? जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक हमें पत्रकारों को गाली नहीं बकना चाहिए. क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई जानवर अपनी प्राकृतिक शैली बदल दे, और मनुष्य भी तो एक जानवर ही है, प्राकृतिक रूप से.... वैसे पतनात त्रायते इति पत्रकारः" यानि कि जो पतन से बचाए वह ही पत्रकार है, कम से कम पत्रकारों को इतना ज़रूर याद रखना चाहिए। शेष बहुत जल्द
यह उस कमेन्ट के जवाब में है, जो किसी बाबु जी ने सी-बॉक्स में लिखा है...
आदरणीय वयोवृद्ध बाबू जी
आपकी पहचान तो मैं नहीं जानता, लेकिन इतना ज़रूर समझ रहा हूँ कि आप कुंठा से बुरी तरह ग्रस्त हैं. पत्रकार बिरादरी में अधिसंख्य लोगों का पतीत होना और सभी का पतीत होना दोनों अलग-अलग बातें हैं. मैंने जो लिखा है वो संख्या में अधिक वाली जमात की तरफ़ इशारा है. आप अगर मेरे लेख को ध्यान से पढ़ें होंगे तो आपने देखा होगा की मैंने ये भी लिखा है कि आज भी कई पत्रकारों के यहाँ ठीक से चूल्हा नहीं जलता. और आप अगर चूल्हा जलने का मतलब सिर्फ़ खाने-पकाने से ही निकालते हैं, तो मैं क्षमा चाहूंगा आपसे, लेकिन बता दूँ कि मैंने इस वाक्यांश का प्रयोग दरिद्रता दर्शाने के लिए किया है. मतलब साफ़ है, जो बिल्कुल दरिद्र है, उसके पास अर्थ अर्जन के साधन नहीं हैं बाबू जी. इसलिए मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि हम लोग दूसरों के गिरेबान में झाँकने से पहले अपनी बाहों में भी देख लें. हो सकता है कि हम में से कुछ लोग ईमानदार हों, अपवाद कहाँ नहीं होते, लेकिन जिस रफ़्तार से पत्रकारों का पतन हुआ है, उसने पूरी बिरादरी पर सवालिया निशाँ लगा दिया है. मैंने इसका उपाय भी तो सुझाया है, आप उसे क्यों नहीं मानते. असल में आज इंसान की ये फितरत हो चली है कि वह दूसरों के छप्पर में तुंरत छेद देख लेता है. और रही बात मेरे इन एक्सपेरिएंस होने कि तो मैं बता दूँ कि किसी भी आदमी का अनुभव दो तरीके का होता है, पहला जो वक्त गुजरते-गुजरते अपने आप आ जाता है, और दूसरा ये कि एक आदमी वक्त के साथ-साथ अपने आप को अपग्रेड भी करता है, मुझे लगता है आपके साथ साथ ज्यादातर लोगों ने अनुभव का मतलब सिर्फ़ वक्त का गुज़रना ही समझ लिया है, इसके लिए मैं आपसे फिर क्षमा का प्रार्थी हूँ, लेकिन यकीन मानिये, सिर्फ़ वक्त गुजरने से ही हर पत्रकार बहुत जानकार और काबिल हो गया होता तो आज जितने बड़े घराने हैं, उनके प्रमुख युवा नहीं होते. आपके सामने बहुत सारे उद्धारण होंगे, तो पकी हुई बालों के साथ अपने लिए एक अदद रोज़गार की तलाश में भटक रहे होंगे. क्या वजह है जानते हैं? क्योंकि ज्यादातर घराने आज युवाओं की कार्य क्षमता के कायल हो चुके हैं और मुझे ये कहने में कोई हिचक नहीं कि युवाओं ने अपनी काबिलीयत के बल-बूते वक्त के साथ-साथ भूरे हो रहे बालों वालों को काफ़ी पीछे छोड़ दिया है. आप अगर अपनी उम्र से ही आकलन करेंगे, तो क्या खोया और क्या पाया, इसका अंदाजा आपको भी हो जाएगा...कोशिश तो कीजिये.
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