Saturday, July 5, 2008

रेडियो स्टेशन या फ्लर्ट ब्यूरो





रंजीत

बाजारवाद
! इंसान की तमाम संवेदनाओं को बेच डालने का नया औजार। भले ही इसके कारण समाज की बुनियादी ढांचा तक हिल जाय तो हिल जाय, बाजार को हर हाल में मुनाफे ढूंढने हैं। चाहे वह आम को इमली बताकर हो या फिर प्यार के नाम पर काम की नैसर्गिक संवेदनाओं का भुनाकर आये। इसके लिए कुछ खास प्रयास नहीं करना है। बस तमाम वर्जनाओं को आधुनिकता के लिफाफे में डालकर फैशन बना डालना है। मसलन यौन जुगुप्सा को प्यार के लिफाफे में डाल दीजिए और जो करना है कर लीजिए। और तो और किसी लड़की को सड़क चलते आइ लव यू कह डालिये। बकौल बाजारवाद इसमें कुछ भी आपित्तजनक नहीं है। अगर स्कूल, कालेज के क्लासेज के दौरान किसी लड़के का पढ़ने से मन उचट जाय तो बस सामने वाली लड़की का नाम लेकर एफएम रेडियो वालों को एक एसएमएस भेज दीजिए। वह आपका संदेश उस लड़की तक पहुंचा देगा और अगले दिन से आपका मन क्लासेज में दोगुना ज्यादा गहराई से लगने लगेगा। रेडियो मीडियम की दुनिया का नया संस्करण - एफएम रेडियो वालों ने तो लगता है कि कसम खा ली है कि वे टेलीविजन चैनलों के पत्तलों में बचे-खुचे विकारों और वर्जनाओं को भी बेच डालेंगे। क्योंकि उन्हें हर हाल में अपने लिए श्रोताओं की संख्या में इजाफा करना है। महानगरों से रांची और पटना जैसे छोटे शहरों में अवतरित हुए रेडियो चैनल्स ने जैसे यह ठान लिया है कि वे साल दो साल में ही इन शहरों के रगों मे दौड़ने वाले सभ्यता और परम्परा के खून के अंतिम कतरे तक को चूसकर ही दम लेंगे। अब जरा इनके कार्यक्रमों पर गौर कीजिए। ये चैनल्स टीनएजर्स श्रोताओं के लिए लव गुरू, लव इनिसिएटर, लव साल्वर, लव काउंसेलर तक की भूमिका निभा रहे हैं। अगर किसी लड़के को किसी लड़की से आइ लव यू कहने का मन कर रहा है और वह अपने संस्कार, सामाजिक व्याकरण, शर्म आदि की बाधाओं के कारण इसे व्यक्त करने में झीझक रहे हैं तो अब उसे अब निराश होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि एफएम रेडियो है न । इसके लिए एफएम वाले आपको कुछ फार्मूला बतायेंगे। बस आप उनका कार्यक्रम सुनते रहिये और धड़ाधड़ एसएमएस करते रहिये।किशोरवय की असुलझी काम-जिज्ञाशा के शिकार किशोरों और टीनएजर्स युवा धड़ाधड़ इनकी जाल में फंस रहे हैं। ये बच्चे अपने तथाकथित प्रेमिकाओं को रिझाने के लिए एफएम वालों से मोहब्बत के दर्द भरे नग्मे सुनाने का अनुरोध करते हैं। एक फोन के लिए ये घन्टों प्रयास करते रहते हैं। जैसे ही फोन लगता है उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता है। एफएम वाली दीदी या भाई क्षण भर के लिए उनके हमदर्द बन जाते हैं। कोई बात नहीं निराश नहीं होइये, हम आपके साथ हैं न ... इसका नतीजा यह होता है कि ऐसे लड़के-लड़कियां पढ़ाई छोड़कर फ्लर्ट को अपना जन्मसिद्व अधिकार और कर्तव्य मानने लगे हैं। लेकिन बाजारवाद को बदलते युग का ईश्वर अवतार मानने वाली सरकारों के लिए ये कोई मुद्दे नहीं हैं। मनोरंजन और शिक्षा के नाम पर ये जैसे चाहें अपनी दूकान चला सकते हैं। भले ही इसके कारण पीढ़ियां बरबाद हो जाय तो हो जाय। गैरसरकारी संगठनों से कोई आशा करना बेकार है। ऐसे में प्रिंट मीडिया, जो कम से कम पीढ़ि को बरबाद करने के युग पुण्य से बचे हुए हैं उन्हीं से कुछ आशा की जा सकती है। रांची के प्रिंट मीडिया के पत्रकार बंधु, कुछ कीजिए। वरना आपको अपनी सड़कों और अपने घरों में ही कुछ समय बाद घुटन का अनुभव होगा।

3 comments:

Anonymous said...

Baw ah, kasagad sa imo maghimo blog. Nalingaw gd ko basa.

Anonymous said...

This is a nice blog. I like it!

Anonymous said...

जब दुनिया बाज़ार बन चुकी हो तो क्या परम्परा और क्या समाज. जहाँ सब कुछ बेचना ही सफलता हो वहां ऐसा होना ही है. पर याद रखना होगा की जब पूरा समाज ही कालिदास बनकर डाली काटने मे जुट जाएगा तो आगे डूबना तय है.