Wednesday, July 23, 2008
बस बोलना है, इसलिए बोल दो...
नदीम अख्तर
लोकसभा में सरकार को बहुमत मिलने की खबरें सभी अखबारों में आयी हैं, आज मैं दफ्तर आया तो हिन्दी अखबारों पर नज़र डाल रहा था. एक अखबार में राधाकृष्ण किशोर (झारखण्ड के पलामू से विधायक हैं और काफी जानकार माने जाते हैं.) का वक्तव्य पढ़ा. बहुत हंसी आयी, और अफ़सोस भी हुआ कि किशोर के स्तर का नेता ऐसा नादानी भरा बात भी कर सकता है. दरअसल किशोर ने कहा है कि जब नोटों का बंडल सदन में लहरा दिया गया तो वोटिंग नहीं करानी चाहिए. किशोर शायद संसदीय मामलों के कम जानकार हैं और साथ ही साथ साक्ष्यों की पहचान के मामले में भी उनकी समझ सिर्फ़ बोलने के लिए बोल देने के जैसी और उतनी ही प्रतीत होती है. किशोर साहब कह रहे हैं कि नोट के बंडल ही साक्ष्य थे, इस मामले में मैं अमर सिंह के बयान की तारीफ करता हूँ कि क्या कल को अमर सिंह सदन में स्पीकर के आसन के पास जा कर कहें कि मुझे आडवाणी जी ने पाँच करोड़ रुपए भिजवाये हैं और कहा है कि उनके बारे में जितना उल्टा-सीधा जानते हो वो राज़ मत उगलना, और मेरे पक्ष में संसद में वोट करो, तो क्या रुपयों को आधार मान कर उस समय उसे ही साक्ष्य मान लिया जाएगा. और क्या उस कथित साक्ष्य के सन्दर्भ में ही सदन की कार्यवाही अपने निर्धारित कार्यक्रमों के अनुसार नहीं चलेगी या रोक दी जायेगी. वैसे भी सदन कि कार्यवाही (business of house) कार्य मंत्रणा समिति तय करती है, उसी अनुसार सदन की कार्यवाही चलती है. ये कार्यवाही तभी बदल सकती है, जब किसी आपात स्थिति में कोई सदस्य ये सूचना देने के लिए खड़ा हो कि स्पीकर नियमानुकूल कार्यवाही का सञ्चालन नहीं कर रहे हैं. और/या किसी सदस्य के द्वारा पक्ष की ओर से विधि सम्मत कार्य न करने के साक्ष्य दिए जायें, वो भी कार्य सञ्चालन सूची में उल्लेख के उपरांत, पूर्व सूचना पर. अब ज़रा गौर कीजिये की राजग की ओर से कल के प्रसंग से पहले विपक्ष के नेता के मध्यम से कोई जानकारी आसन तक नहीं पहुंचवाई गयी, कि हम लोगों को पैसे दिए गए हैं और हम उसे सूचना के रूप में स्पीकर तो बताना चाहते हैं. नोटों का बण्डल उठाया और आ कर लहरा दिया सदन में. अरे नोट तो किसी के पास भी हो सकते हैं, फिर अगर ऐसे ही नोट दिखने से संसद की कार्यवाही का रुख मुड जाया करेगा, तो कल से सदन की नियमावली में एक नियम यह भी जोड़ना होगा कि नोटों का बण्डल ही किसी भी समय सदन की कार्यवाही को रोकने के लिए पर्याप्त है. और किशोर साहब ये भी कहते हैं, कि सरकार जिस विशवास के लिए मत प्राप्त करने वाली थी, उसे ही रोक देना चाहिए था. कितनी बचकानी है ये बात. सरकार जिसके ऊपर विपक्ष को ही विश्वास नहीं, सत्ता पक्ष का चार सालों तक साथ देने वाले वाम दलों को ही विश्वास नहीं, उसे सत्ता में बने रहने कैसे दिया जाना चाहिए, जब तक वो बहुमत साबित ना कर दे. दरअसल, किशोर साहब और उनके जैसे और भी लोग कल के घटनाक्रम को लेकर इसलिए ज़्यादा हाय-तौबा मचा रहे हैं, क्योंकि इन्हें अपने गंठबंधन का ही रटा-रटाया राग अलापना है. लेकिन किशोर साहब जैसे लोगों से मैं पूछता हूँ कि क्या बोलने के लिए ही सिर्फ़ बोलना ज़रूरी है. अरे जिस मुद्दे पर आपके साथियों ने ही आपका साथ छोड़ दिया हो, क्या उस मुद्दे पर चुप ही रहना बेहतर नहीं है. क्या बोलने से आदमी बहुत विद्वान माना जाने लगता है?
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4 comments:
किसी कानूनविद ने भी यह कहा है कि पहले जांच करनी चाहिए थी, और फ़िर उस के बाद मतदान. किशोर जी की अपनी राय है, इस विश्वास मत में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जो नहीं होना चाहिए था. नेताओं की सारी जमात नंगी हो गई है.
मामला नोटों के बंडल का है. मेरे एक मित्र ने हर्षद मेहता मामले का हवाला देकर कहा क्या उस बैग मे एक-एक हज़ार की सौ बंडल आ सकते हैं. कई टीवी चैनल पर घर से निकलते सांसद को एक बैग के साथ दिखाया गया है. एक सौ बंडल उसके अन्दर होने पर बैग वैसा नही होगा जैसा दिख रहा है. इसलिए हमे और प्रतीक्षा करना होगा.
"KISHOR" ko Adult hone ka time dijiye nadim ji. The politics of Jharkhand is still in a nursury stage. Why are you asking for maturity from these liliputs
आपके रांची के पत्रकारों पर जो कार्टून आपने भेजा है उसे ही देखकर नदीम साहब कहानी पूरी समझ में आती है। बहरहाल, आपका एक नीचे वाला आर्टीकल बस बोलना है तो बोल दो बहुत बढिया कटाक्ष किया है आपने।
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