पूरे कुएं में भंग
रंजीत
जब कुएं में ही भंग हो, तो कौन होश में और कौन मदहोशी में , यह बात ही बेमानी हो जाती है ? ऐसे में अगर भ्रष्टाचार की प्रवृत्तियों का सामान्यीकरण न किया जाय तो क्या किया जाय ? हम बचपन से पढ़ते आये हैं कि अंगुली उठाने से पहले व्यक्ति की पहचान सुनिश्चित कर लो और अपने दामन की जांच भी। लेकिन लगता है अब इसकी अनिवार्यता नहीं रह गयी। जिसकी पूंछ उठाओं मादा ही निकलेगी। अंगुली जिस पर टिकेगी वही भ्रष्ट निकलेंगे । अगर नहीं, तो समझो इन्हें मौका नहीं मिला।
गत दिनों संसद में नोट और वोट के प्रदर्शन की घटनाओं के बाद पूरे देश के मीडिया ने गिरती राजनीति पर जमकर आंसू बहायी। ऐसा लगा जैसे राजनीतिक अधोपतन से सबसे ज्यादा व्यथित पत्रकार समुदाय ही है। लेकिन उसी घटनाक्रम में जो पत्रकार-मीडिया समूह भ्रष्टाचार के कटघरे में खड़ा होते नजर आये, उन पर शायद किन्हीं की नजर नहीं पड़ी। या यूं कहिए कि नजर पड़कर भी उन्हें कुछ नहीं दिखा। या फिर ऐसा कह लीजिए कि ये यह मानकर चलने लगे हैं कि जो अन्य करें वह पाप और जो हम करें वह पुण्य। इंसान का बचा जूठा और भगवान का प्रसाद। नोट प्रदर्शन प्रकरण में उस चैनल वाले ने क्या किया, जिसने पूरे मामले का स्टिंग ऑपरेशन किया था ? वह भी पूर्व नियोजित और पूरी तैयारी के साथ। आखिर उसने अगर इस लेनदेन को कैमरे में कैद किया तो प्रसारण क्यों नहीं किया। सामाजिक अधोपतन पर शब्दों और अक्षरों की आंसू बहाने वाले विद्वान पत्रकारों की अक्ल में यह बात नहीं अट रही क्या ? चैनल वालों की ओर से कह दिया गया कि यह विशेषाधिकार का मामला बनता है, इसलिए वे इसका प्रसारण नहीं करेंगे। लेकिन मैं मुफ्त में उन्हें कुछ सलाह देना चाहता हूं। उन्हें मालूम होना चाहिए भारत की 32 करोड़ जनता ग्रेजुएट हैं और उनको विशेषाधिकार की बात अच्छी तरह समझ में आती है। आखिर विशेषाधिकार की ही बात थी तो उस समय यह लागू क्यों नहीं हुई जब प्रश्न पूछने के लिए रिश्वत लेते सांसदों की तस्वीर सार्वजनिक की गयी थी। जवाब बहुत सरल है- तब बात टीआरपी की थी। लेकिन इस बार बात कुछ बना लेने की हो गयी तो सारी नैतिकता, ईमानदारी और सरोकार आदि- इत्यादि चले गये घास काटने।
झारखंड के एक बड़बोले पत्रकार आजीवन अपनी ईमानदारी का पींग अपने कनिष्ठों को सुनाते रहते थे और कहते थे कि उनके पास तो रहने के लिए एक अदद घर भी नहीं है। वे तो ईमानदारी की झुग्गी में रहते हैं। लेकिन इनकम टैक्स वालों के यहां उन्होंने जो रिटर्न फाइल किया उसमें दो जुड़वा फ्लैट का जिक्र भी है, जिसकी कीमत 35 लाख रुपये है।
ऐसे में यह बात अब बिल्कुल शोभा नहीं देती कि कोई जनता के नाम पर ईमानदारी का भाषण छोड़े। चाहे वह पत्रकार हो या नेता। सब बराबर हो गये हैं। जो नहीं हुए हैं वे लाइन में खड़े हैं। अगर यह सच नहीं है तो ईमानदार पत्रकार इसके विरोध में आगे क्यों नहीं आते। पिछले एक दशक में क्या पत्रकारों के किसी समूह ने मीडिया में बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की है ? मुझे तो याद नहीं आ रहा। दरअसल हम सभी भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे लोग हैं और अब इसके इतने आदी हो गये हैं कि हमें सड़ांध में भी खूशबू की महक मिलने लगी है। इसलिए जो जहां है वहीं थैला भर रहा है। कोई भी गंभीरतापूर्वक कभी भी यह नहीं सोचता की इसकी कीमत हम ही चुका रहे हैं। कभी आतंकियों के हाथों, तो कभी अपराधियों के हाथों तो कभी स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवस्था के भ्रष्टों के हाथों। हम सभी किस्तों में मरने के अभ्यस्त हो गये हैं। शायद इसलिए अज्ञेय जी ने कभी लिखा था
एक दिन मैं कहीं किसी सड़क पर गिरा पाया जाऊंगा
तब लोग मेरे शव के पास आयेंगे
मेरी नसों और धड़कनों को जांचे बगैर मुझे मृत घोषित कर देंगे
और कहेंगे अच्छा-भला आदमी था- बेचारा
उस दिन मैं हंसने लायक नहीं रहूंगा
इसलिए उस बात को लेकर आज मुझे हंसना चाहिए
4 comments:
that's really cute..wish i had one too.
bahut achcha hai
हमे सभी को एक नजर से नही देखना चाहिये, यह भी तो हो सकता, उस बले मानस को पहले अपने साथ मिलाना चाहा हो इन चोरो ने,जब उस ने इन का साथ नही दिया तो इन्हे झुठे केस मे बदनाम कर दिया,
Vow
That is Good,
पूरे कुएं में भंग
Aur cartoon reflecting the theme
Devi
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