कैसे कह दूं कि आज फिर होश नहीं ।
ऐसा डूबा हूं मैं तुम्हारी आंखों में,
हाथ में जाम है पर पीने का होश नहीं ।।
शेर में आंख को शायर ने जिस मकसद से इस्तेमाल किया है, मेरा मकसद उससे भिन्न है। पिछले कई महीनों से झारखंड में शराब की दुकानें बंद हैं। सरकारी द्वारा इन दुकानों की नीलामी नहीं हो पायी है। आधिकारिक तौर पर इसमें कई तकनीकी अड़ंगे हैं। लिहाजा शराब की दुकानों के शटर गिर चुके हैं यानी शराब नहीं मिल रही है। यह तो सरकारी बात हुई। अब वास्तविकता के धरातल पर उतारें तो हकीकत यह है कि दुकानें बंद होने के बाद भी धड़ल्ले से शराब बिक रही है। तो फिर नुकसान किसे है? सिर्फ और सिर्फ सरकार को। यूं तो इससे आम आदमी का कोई रिश्ता नहीं पर अगर गहराई से देखें तो इससे सिर्फ आम आदमी का ही वास्ता है। वरना सरकारी राजस्व की चिंता दूसरों को क्यों भला रहे।
गैर कानूनी तरीके से बिक रही शराब के लिए "प्यासों' को अधिक दाम देना पड़ रहा है। शराब के दुकानदारों ने इसकी जो वैकल्पिक व्यवस्था की है, वे उसका दाम उन्हीं से वसूल रहे हैं। सरकारी अधिकारी, जिन्हें गलत कारोबार रोकने के लिए वेतन मिलता है, इस धंधे को अप्रत्यक्ष संरक्षण देने के लिए अतिरिक्त घूस ले रहे हैं। नीति निर्धारकों ने इस विलंब की स्थिति को बनाये रखने के लिए ही दाम वसूले हैं। नतीजा है कि दूसरे राज्यों से शराब आने अथवा यहां की इकाइयों में उनके उत्पादन का काम यथावत चल रहा है। दुकानों तक शराब पहुंचने का सारा क्रम यथावत होने के बाद भी सरकार को बंदी के नाम पर राजस्व नहीं मिल रहा है।
वैसे यह स्थिति क्यों है, इसका खुलासा आवश्यक है। अखबारों में इस बारे में थोड़ा बहुत छपने के बाद भी मित्रों ने सच कहने का पूरा साहस नहीं किया है। लीजिए कहानी का सस्पेंस समाप्त कर देते हैं। इस शराब के ठेका में अपनी हिस्सेदारी की मांग पर झारखंड के एक नेता ने टांग अड़ा रखी है। उन्हें पहले की तुलना में अधिक हिस्सेदारी चाहिए। दूसरी तरफ राज्य के कुछ शहरों खासकर धनबाद और बोकारो की दुकानों के लिए शराब व्यापारी वह रकम देने पर तैयार नहीं है, जिसकी मांग की जा रही है। धनबाद और बोकारो की यह स्थिति सिर्फ इस वजह से है क्योंकि पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल से लोग अपनी "जरूरत का माल' सस्ते में हासिल कर लेते हैं। वैसे शराब की इस गंगा में पक्ष और विपक्ष दोनों के महारथी बह रहे हैं। इसके पहले भी कई अवसरों पर नकली अड़चन पैदा करने के लिए इन्हीं तैराकों ने शराब सिंडिकेट की मदद की है।
अब नेताजी की बढ़ी मांग ने शराब व्यापारियों को नाराज कर दिया है। उनकी नाराजगी का ही आलम है कि सरकार का सारा अमला अब मामले को सुलझाने में जुटा हुआ है। राज्य में गरीबी से होने वाली मौत पर फाइलें उतनी तेजी से नहीं चलती, जितनी की शराब के ठेके की चलती है। जीता-जागता उदाहरण सामने है। सभी को याद होगा कि रामगढ़-ओरमांझी के बीच हुए एक सड़क हादसे में 25 लोग मारे गये। सरकार में शामिल किसी को उनके परिजनों को मुआवजा देने की याद नहीं आयी। सारी सरकार विधायक रमेश सिंह मुंडा की नक्सलियों द्वारा की गयी हत्या से थर्रायी हुई थी। यह है सरकार की प्राथमिकता की असलियत।
इसीलिए तो कहता हूं यारों कि इशारों को समझो
ज़िंदगी ग़मों से भरी है, फिर भी जिए जा रहे हैं,
जाम ख़ाली है फिर भी पिए जा रहे हैं।
जाने क्या क़शिश है उनकी आंखों में,
क्या हम उस बेवफा से वफा किए जा रहे हैं।।
1 comment:
very nice! hahahahaha
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