प्रमोद
वाह! स्वतंत्रता दिवस की एक और वर्षगांठ की कल्पना कर मन प्रफुल्लित हो रहा है। याद करने का समय आया है राष्ट्रभक्त आजादी के दीवानों की कुर्बानियां, उनके द्वारा संजोये गए देश के स्वरुप की कल्पना, जो इतिहास की किताबों में सांसे ले रही है। विडम्बना यह है की प्रथम स्वतंत्रता दिवस को भारत के जिस संरूप की कल्पना की गई थी वह प्रत्येक वर्षगांठ के साथ विकृत रूप ग्रहण करती जा रही है। आजादी की प्रथम वर्षगांठ पर हमारे सामने गर्व करने के लिए थी राष्ट्र को स्वतंत्र कराये जाने के लिए किए गए संग्राम एवं बलिदानों की कहानी। आज है हमारे पास मानवीय मूल्यों के ह्रास की कहानी।
उत्सव मनाकर ही हमारे कर्तव्य की इतिश्री नही होने वाला। अगर हम में जरा-सी भी शर्मो-हया बाकी है तो यह सोचने की बात है कि राष्ट्र के प्रति समर्पण के मंजर के गवाह तिरंगे को हम क्या मुंह दिखायेंगे? शान से लहराते तिरंगे के निचे खड़े होकर हम कैसे यह स्वीकारेंगे कि हमने राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय मूल्यों का गला घोंट दिया है और इसकी शान में गंभीर गुस्ताखी की है।
यह आख़िर कैसे स्वीकारेंगे हम कि जिस राजनैतिक इच्छाशक्ति के बल पर हमने अंग्रेजो को भगा दिया था आज उसका ध्वंश हो चुका है। हम आज संसद में रुपयों के खेल को देखकर भी लज्जित नही होते। लोकतंत्र की मर्यादा को बार-बार कलंकित करते हैं। अब राष्ट्रहित की बात पीछे रह गई है और तुच्छ राजनैतिक हितसाधन के लिए किसी हद तक गिरने में हमें कोई संकोच नही होता। सरकारें बनाने और बचाने के किए कोई भी तिकड़म आजमाने से हम बाज नही आते। चुनावों में जो एक दूसरे को धुर विरोधी बताते है चुनावों के उपरांत कुर्सी के लिए गले मिल जाते हैं।
स्वतंत्रता दिवस की वर्षगांठ पर हर्षोल्लास की जो भावभूमि हम निर्मित करेंगे उसके नीचे का सत्य क्या देखने योग्य होगा? किस मुंह से बताएँगे हम तिरंगे को कि आजादी की लड़ाई को सभी जाति-सम्प्रदाय के लोगों ने एक साथ मिलकर लड़ा था पर आज अपने स्वार्थपूर्ण हितों की पूर्ति के लिए हमने उसे इस कदर विभाजित कर दिया है की वे एक-दूसरे के रक्त के प्यासे हो जाते हैं। अब वाह एकता इतिहास की बात ही रह गई है।
तिरंगे के नीचे खड़े होकर हम कैसे स्वीकारेंगे कि वह स्वंत्रता के समय निर्धारित जिन मूल्यों का गवाह है अब उन मूल्यों की कोई कीमत नही रह गई है। अब उसका स्थान भ्रस्टाचार, धार्मिक कट्टरता, जातिगत विभेद, स्वार्थपरकता, संवेदनशुन्यता आदि ने ग्रहण कर लिया है। आज़ादी के समय सम्पूर्ण भारत ने जिस एकता का परिचय दिया था उसका स्थान अब क्षेत्रवाद ने ले लिया है। देश भाषागत-जातिगत-सम्प्रदायगत विभेद की आग में झुलस रहा है। कैसे कह पाएंगे हम कि जिस इच्छाशक्ति के समक्ष शक्तिशाली अंग्रेज नही टिक पाए वह अब आपसी विद्वेष को भी दूर कर पाने में सक्षम नही रही। बापू ने जिस अहिंसा को अपना हथियार बनाया था उसे हम कब का भूल गए और हिंसा की पराकाष्ठा पर पहुंचकर नर-पिशाच बने घूम रहे हैं।
हम कहेंगे, सब स्वीकारेंगे, पर बेशर्मों की तरह क्योंकि हममें शर्म नाम की चीज अब बची ही नही। सच स्वीकारने से हमें कोई ऐतराज़ नहीं पर हम आत्ममंथन नही करेंगे। हम जियेंगे, लडेंगे, मरेंगे, सबकुछ करेंगे पर बेशर्मों की तरह तिरंगे को फहराकर, ढोल-नगाडे बजाकर, मिठाइयां बाटकर, आने वाले प्रत्येक स्वंत्रता दिवस की वर्षगांठ धूम-धाम से मनाएंगे और फ़िर अगले रोज से देश पर लगे जख्मों को कुरेदने बैठ जायेंगे।
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