Sunday, August 3, 2008
मैं भूत बोल रहा हूँ !!
मेरी पूर्व की दुनिया के भाइयों और बहानों ,जिन दिनों मै आपकी दुनिया में रहता था ,उससे कुछ समय पूर्व चाचा ग़ालिब यह कह कर गए थे कि न था कुछ तो खुदा था ,कुछ न होता तो खुदा होता ;डुबोया मुझको होने ने ,न होता मै तो क्या होता !!........ अपने आखरी वक्त तक मैं भी यही सोचता हुआ मरा कि धरती पर रहते हुए भी मैंने ऐसा क्या कबाड़ लिया ,इससे तो बेहतर तो यही होता कि मैं हुआ ही न होता !!जैसी जिंदगी मैं धरती पर गुजार कर आया ,उससे तो जिंदगी शर्मसार ही हुई ,मेरी आखों के सामने जो कुछ घटा ,उसमें यदि मैं चाहता तो थोड़ा बहुत अवश्य परिवर्तन कर सकता था ,किंतु कुछ करना तो दूर ,मैंने तो शायद कुछ सोचने कि हिमाकत नहीं की !! न जाने कितने दंगे ,कितने बलात्कार ,कितनी लूटपाट ,कितना भ्रष्टाचार ,कितनी बेईमानियाँ ,कितना छल-कपट ,कितना झूठ और भी न जाने कितने गलीच कर्म मेरी आंखों के सामने ,हाँ जी मेरी ख़ुद की आंखों के सामने घटे और घटते ही गए ,एक बेबस और निरीह जीव की तरह मैं चुपचाप देखता ही रह गया ,वह मेरी बेशर्मी की पराकाष्ठा ही तो थी !!दरअसल हम सारी जिंदगी मौत से काफी पहले ही मौत से भयभीत रहते हैं , एक आम आदमी के रूप में जो जिन्दगी हम जीते हैं ,उससे तो कहीं बहुत ज्यादा बेहतर किसी कीडे-मकोडे की जिन्दगी है ;ये पशु-पक्षी आदि तो सिर्फ़ उसी वक्त खौफ खाते हैं ,जब उनकी जान पर बन आई हो,मगर तब भी तो वो आखरी वक्त तक मुकाबला करते हैं,जद्दोजहद करते हैं और लहूलुहान होकर जब ये काल का ग्रास बन जाते हैं ,तो इनकी मौत में एक बेहद खास किस्म की शूरवीरता का आभास मिलता है,उनके मुकाबिल हम अपने जीवन को तौलें तो क्या मिलता है ?[घंटा?]इस शब्द के प्रयोग के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ,मगर हमारी बेहूदी स्थिति के लिए इससे "सुंदर" शब्द मैं खोज नहीं पा रहा !!आज अपनी मौत के बाद ये जो मैं सोच रहा हूँ ,यह मैंने अपनी तमाम जिन्दगी में कभी नहीं सोचा ,यदि कभी सोचा होता तो जिस प्रकार की कुत्ते की मौत मैं मरा ,उससे बेहतर भी कुछ घट सकता था अलबत्ता मरना तो फिर भी तय ही था!! मरने के बाद सोचता हूँ कि जिंदगी आराम से मस्ती काटते हुए जीने कि अपेक्ष कुछ बेहतर करके इस दुनिया से कूच करने का नाम है, हाँ यही सच है !!दरअसल आदमी अपनी उपस्थिति धरती पर अपने कर्मों से ही दर्ज करता है !!एक-एक हड्डी के लिए लड़ने का काम कुत्ते का है, आदमी का काम सब कुछ को बांटकर खाना है ,मगर आदमी अपना यह मूल स्वभाव खोकर कुत्ते-बिल्लियों की तरह आपस में लड़ रहा है ,यह देखना बड़ा ही तकलीफदेह है?आदमी दूसरे को तकलीफ में देखकर बड़ा ही खुश होता है!!आदमी दूसरे को मारकर,लूटकर,बलत्कृत कर बड़े मजे लेता है!!.....यदि आदमी ऐसा ही है,तो"थू"था मेरे होने पर!!.......आदमी जो देता है ,आदमी जो लेता है,जिंदगी भर वो दुआएं पीछा करती हैं,......आदमी जो कहता है,आदमी जो सुनता,जिंदगी भर वो सदाएं पीछा कराती हैं!! वैसे तो मैं भूत बोल रहा हूँ मगर अब तक भी आदमियत की अनगिनत कहानियाँ मेरा पीछा नहीं छोड़ती!!और सार यही पाया है की जियो तो सबके साथ प्यार से,प्यार को ही आदमियत का सार बना डालो,आदमी जब भी अपना चेहरा देखे,उसे प्यार दिखे,आदमी जब भी दूसरे का चेहरा देखे,उसे प्यार ही दिखे!!.......शायर ने कहा भी है .... हमको दुश्मन की निगाहों से न देखा कीजे,प्यार ही प्यार हैं हम...प्यार ही प्यार हैं हम,हमपे भरोसा कीजे....!!रौशनी औरों के आँगन में गवारा न सही,कम-से-कम अपने तो घर में ही उजाला कीजे ......दोस्तों कहना तो बहुत खुच है मगर एक ही बार में सारा कुछ कहने से बातें अपच हो जाएँगी.....वैसे मरने के बाद से आदमी से बात करने को तरस गया हूँ मगर अभी जिस जीव के अदंर बैठा हूँ, उसे नींद आ रही है इसलिए अभी शुभरात्रि कल फिर मिलेंगे रब्बा खैर करे.....!!
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5 comments:
भाई भूतनाथ जी, अद्भुत लिखा है आपने. आपकी कल्पना वाकई बहुत सराहने के लायक है. आप सिर्फ़ लिखने के समय थोड़ा हिन्दी टाइपिंग करते-करते english में कर दिए हैं, उसको ठीक करना होगा.
भूतनाथ जी आपका लेख वाकई बहुत प्रेरणादायी है. बातो को इतने करीने से सजाया है आपने की क्या कहने. सचमुच बहुत लाजवाब है.
Bhutnath jee, kavita kee aatma par likha gaya yah alekh sachmuch kavita ban padi hai. aap kavi jaise lagte hain aur kavi wahi jo akathniye kahe. bhut ka paschatap jinda bhuton ko shayad rah dikhaye..
भूतनाथ जी,
क्या किया जाए? मानव तो आख़िर मानव है, थोड़ा कम है तो भी मानव, थोड़ा ज्यादा है तो भी मानव. उसकी अपनी मजबूरियां हैं.उसे दूसरों का दुःख देखकर खुशी मिलती है, कभी-कभी दुःख भी होता है. इर्ष्या-द्वेष उसके आभूषण हैं, लड़ना, मरना-मारना उसके पुरुषत्व की पहचान है, अगर इन सबसे वो निवृत हो जाए तो फ़िर वह मानव थोड़े ही रह जाएगा, या तो वह आदमी बन जाएगा या फ़िर आपकी तरह भूत बन जाएगा.
आपके विचार, आपका प्रयास और आप सबों का रांचीहल्ला ब्लॉग सराहनीय है. नैतिक संवेदनाओं का अगर थोड़ा सा भी अंश हमारे अन्दर जीवित है तो मानवीय मूल्यों को ध्वस्त करते कार्यकलापों का निश्चय ही हमें यथासंभव निषेध करना चाहिए.
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