Saturday, August 9, 2008

एक पिता की वसीयत

एक पिता की वसीयत
विवेक रंजन श्रीवास्तव
माना कि मौत पर वश नही अपना
पर प्रश्न है कि क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?
हर नवजात के अस्फुट स्वर
कहते हैं कि ईश्वर इंसान से निराश नहीं है
हमें जूझना है जिंदगी से और

बनाना है जिदगी को जिंदगी
इसलिये मेरे बच्चों
अपनी वसीयत में
देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति
मैं डालना नहीं चाहता
तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ
तुम्हें देता हूँ अपना नाम
ले उड़ो इसे स्वच्छंद
खुले आकाश में जितना ऊपर उड़ सको
सूरज की सारी धूप
चाँद की सारी चाँदनी
हरे जंगल की शीतल हवा
और झरनों का निर्मल पानी
सब कुछ तुम्हारा है
इसकी रक्षा करना
इसे प्रकृति ने दिया है मुझे
और हाँ किताबों में बंद
ज्ञान का असीमित भंडार
मेरे पिता ने दिया था मुझे
जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है
अपने अनुभवों से
वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें
बाँटना इसे जितना बाँट सको
और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर
अपने बच्चों को
हाँ एक दंश है मेरी पीढ़ी का
जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता
वह है सांप्रदायिकता का विष
जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं
अपने सामने अपने ही जीवन में ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
सी ६ विद्युत मंडल जबलपुर

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत खूब लिखा है-भावपूर्ण रचना.

-समीर लाल

Udan Tashtari said...

आप तो जबलपुर के पड़ोसी दिखते हैं. मेरा घर सत्यानन्द विहार में है.