Thursday, September 4, 2008

आंसुओं का सैलाब

रंजीत
कि गलती भेले हमरा से गे माय कोशिकी
किया भेलै एतैक प्रचंड ???
कतैक भौजी के रांड़ बनेले, कतैक बुदरू भेले टूगर
गोहाली में बांधल गैया भासि गेले , द्वार पर सूतल बाबू के कुनू थाह-पता नै
असगर हम जीव कै कि करबै गे कोशिकी मैया
हमरो ले अपने में समाय
कि गलती भेले हमरा से गे माय कोशिकी

(हे कोशी मां, हमसे क्या गलती हुई, किस बात से नाराज होकर तुमने यह प्रचंड रूप धारन कर लिया ? कितनी ही भावियां विधवा हो चुकी हैं, गोशाला में बंधी गायें भसिया गयीं और द्वार पर मेरे पिताजी सोये हुए थे जिनका कोई अता-पता नहीं चल रहा। अब अकेले मैं जिंदा रहकर क्या करूंगी , मुझे भी अपने आगोश में ले लो)
सदियों पुराना यह आंचलिक लोकगीत अब शायद ही किसी को याद हो। मुझे भी यह गीत ठीक से याद नहीं आ रहा। इन पंक्तियों को लिखने के लिए मुझे 25-26 वर्ष पुरानी स्मृतियों में जाना पड़ रहा है। स्मृतियों के धुंधले व उलझे धागे को पकड़ने की कोशिश करता हूं तो कुछ पंक्तियां याद आ जाती हैं। यह गीत मेरी दादी गाती थी, तब शायद हम पांच-छह वर्ष के रहे होंगे। दादी भी आदतन ही यह गीत गुनगुनाती थी और यह गीत उनके जीवन काल में ही अप्रासंगिक हो चुका था,क्योंकि तबतक कोशी को तटबंधों के अंदर कैद किया जा चुका था। लेकिन जब भी दादी यह गाना गाने लगती उनकी आंखें भर आतीं। पड़ोस की दादियां इकट्ठा हो जातीं और साथ मिलकर विलाप करने लगतीं। जिसका मतलब तब हम बच्चे नहीं समझ पाते थे। बाद में समझा कि दादियां इसलिए रोने लगती थीं क्योंकि यह गाना उन्हें कोशी द्वारा दी गयीं मौतें-बीमारियां, दरीद्रता और कष्टों की याद दिला देता था।
आज साठ-सत्तर वर्षों के बाद एक बार फिर यह गीत प्रासंगिक हो गया है। लेकिन कई हजार गुना ज्यादक भयानक और करूण होकर। लगता है कि 30 लाख की आबादी दादियों की एक समूह में परिवर्तित हो गयी है। ये लोग बाढ़ में नहीं डूबे हैं, बल्कि आसुंओं के सैलाब में कोशी मैया डूब गयी हैं। छातापुर प्रखंड के जीबछपुर गांव के मेरे दोस्त रामनारायण मंडल का स्वर डिस्चार्ज होते मोबाइल पर टूट रहा है। 31 अगस्त को कई घंटों के प्रयास के बाद रामनारायण से मेरी बात हो पायी थी। हमलोग एक ही हाइ स्कूल में पढ़े थे। वह पढ़लिखकर किसान बन गया और मैं कलमघिस्सू पत्रकार ! जिनकी कलम न जाने कब नपुंसक हो गयी पता ही नहीं चला। लीजिए आप भी सुन लीजिए एक पत्रकार के मरते हुए मित्र का अंतिम शब्द और पत्रकार की बेबसी, जो सरकार के आंख-कान माने जाते हैं।
रंजीत भाई, आब फेर मुलाकात नै हेत अ... भाई धीरज राखअ, सरकारी नाव पहुचैये वला हेतअ. .. ... आठ दिन भै गेलो हो भाई, नै पीये ले पैन छै, नै पेट में दैय ले दाना, दुनू बुदरू बेर-बेर बेहोश भै रहलै ये, मन हैछे फेक दियै एकरा सब कोशिकी में आउर अपनों कुइद जैपानि में । भाई.. . भाई ... मोबाइल के बैट्री खत्म भै रहल ये , हम सब मैर रहलिअ ये.. . रामनरैन ? ? ?
पेंपेंपें... मोबाइल का बैट्री खत्म, रामनरायण खत्म ! .. . सरवा बड़ा अच्छा फुटबाल खेलता था, रमनरैना !!! । पत्नी पूछती है- ऐं क्या हुआ, कौन था ? ... लगता है माथा में दस पसेरी कोयला का गरदी भर गया है।
फिर साहस नहीं हुआ कि फोन करूं, लालपुर के अरूण को, बेला के विवेक को, लछमिनिया के झिरो को , बलभद्रपुर के मुस्तकिम को .. . लेकिन मोबाइल घिधिंयाते ही जा रहा है। मूर्लीगंज के रामपुर से देवी प्रसाद ने फोन किया है कि वह किसी तरह उसके गांव की सूचना प्रशासन को दे। देवी के गांव में पांच सौ लोग फंसे हुए हैं। बच्चा, औरत, बूढ़ों की स्थिति बहुत खराब है। लेकिन सबके सब लाचार। राजेश्वरी से मनोज मिश्र ने फोन किया है, उसके गांव में दो हजार लोग पानी में फंसे हैं। कच्चा मकान गिरते जा रहा है। गांव में पांच-छह ही पक्के मकान हैं। एक-दो दिनों तक अगर उन्हें नहीं निकाला गया तो सबके सब खत्म। दिमाग काम करना बंद कर देता है। घर में मन नहीं लगता। क्या करूं ? किधर जाऊ ? टेलीविजन खोलूं तो वही दृश्य नहीं खोलूं तो भी वही दृश्य।
चालीस लाख लोगों का सवाल है। कहां जायेंगे वे ? दिमाग कहता है कि एक-डेढ़ लाख तो मर गये होंगे। दिल कहता है - नहीं-नहीं , ऐसा नहीं होगा। कोई न कोई चमत्कार जरूर होगा। किसी को कुछ नहीं होगा। फिर दिमाग कहता है नहीं-नहीं ? पिछले साल देखा नहीं था कि कोशी के पानी में कितना वेग होता है। पांच-पांच मीटर ऊंचा लहर उठता है। भीमपुर, जीवछपुर,सीतापुर, घूरना, कोरियापट्टी , तुलसीपट्टी जैसे सैकड़ों गांव के अस्तित्व मीट चुके होंगे। इसकी तस्वीर कोई कैमरा नहीं उतार सकता, कोई प्रेस रिपोर्टर वहां तक नहीं पहुंच सकता , क्योंकि ये गांवें नदी की मुख्य धारा में आ गयी हैं। अबतक विलीन हो चुकी होंगी ये बस्तियां। कोसी के जोर के सामने फूस के बने ये घरें कितने घंटे टिके होंगे।
टेलीविजन बंद कर देता हूं। मोबाइल ऑफ करके पस्त होकर पड़ जाता हूं। दादियों की झुंडें स्मृति पटल पर तैर जाते हैं। धरती पर नंग-धड़ंग और भूख से बिलबिलाते बच्चों की फौज घूम रहा है। रोती-बिलखती औरतें के दर्द से मानवता मरती नजर आ रही है। मानवता हार रही है। सरकारें जीत रही हैं, उनकी लापरवाही जीत रही है। भ्रष्टाचार जीत रहा है, अधिकारियों और नेताओं के गंठजोड़ जीत रहे हैं ...

6 comments:

नदीम अख़्तर said...

सचमुच ये बहुत ही भयंकर त्रासदी है. मैं समझ सकता हूँ कि जिनके साथ आपने जीवन के अधिकाँश दिन बिताये हों उनके डूब कर धीरे धीरे जल समाधिलीन होने की आशंका किसी को कैसे खाए जाती होगी. मैं संकट की इस घडी में सिर्फ़ अपनी संवेदनाएं ही व्यक्त कर सकता हूँ, लेकिन साथ ही साथ यह भी विशवास दिलाता हूँ कि अगर सब कुछ छोड़ कर भी रहत कार्य के लिए मुझे बिहार जाना पड़े तो मैं आपका साथ देने को तैयार हूँ. कभी आपको ऐसा लगे कि मैनपावर की ज़रूरत है, तो मुझे रात को 2 बजे भी कॉल कर सकते हैं. यूँ तो आप जा रहे हैं रिपोर्टिंग के लिए, लेकिन आपके अन्दर का अच्छा आदमी बिहार के जलमग्न लोगों का ज़रूर भला करेगा, इसी कामना के साथ आपको सुभकामनाएँ देता हूँ. किसी भी परिस्थिति में एक फ़ोन करना मत भूलियेगा.

शायदा said...

dua karein bas, sab milkar.

Udan Tashtari said...

सब इश्वर की लीला है. प्रार्थना ही एक सहारा है. भयंकर त्रासदी!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

jab kuch bhi hamare haath men nahin hota,to ham apni or se jo kuch bhi kar sakte hain karen;saath hi bhagwan se sabke mangal kee kaamna !!

vishal said...

mera dil to bas itna kehta hai ki us par bharosa karo kyon ki jo bhi kuch hota hai usme uska kuch na kuch aacha hota hai . ham sab phase hai hame bhar nikalna hoga ghabrao mat.

Anonymous said...

mera dil to bas itna kehta hai ki us par bharosa karo kyon ki jo bhi kuch hota hai usme uska kuch na kuch aacha hota hai . ham sab phase hai hame bhar nikalna hoga ghabrao mat.