Saturday, September 20, 2008

आ ना कुछ करके दिखाते हैं !!

आ चल तुझे इक खेल खिलाते हैं,चल ज़रा चाँद को ही छु आते हैं !!
आ ना खुशियाँ बटोर कर लाते हैं,कुछ देर जरा बच्चों को खिलाते हैं !!
हर रोज़ अच्छाई की कसम खाते हैं,रोज़ कसम तोड़कर सो जाते हैं!!
खुदा को तो जरा भी नहीं जानते हैं,और मस्जिद में नमाज़ पढ़ आते हैं !!
असल में कुछ दिखाई तो देता नहीं,लोग सपनों की महफ़िल सजाते हैं!!
ख़ुद तो खुदा से किनाराकशी करते हैं,बच्चों को उसकी कसम खिलाते हैं!!
इक दिन मुझे उदास देख बेटी बोली,पापा चलो ना पार्क घूम आते हैं!!
जिनके भीतर कुछ नहीं होता वे अक्सर,अपने कपड़े...जूते दिखाते हैं!!
बाहर तो चलाते हैं वो गोलियाँ और,घर में खुदा की फोटुयें सजाते हैं !!
बहुत ज्यादा छोटी रखी हुई है हमने,आओ प्यार की चादर और फैलाते हैं !!
इबादत थोडी ना करते हैं हम "गाफिल",वो तो बस अपना दिल बहलाते हैं !!

4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सही!!!

फ़िरदौस ख़ान said...

आ चल तुझे इक खेल खिलाते हैं,चल ज़रा चाँद को ही छु आते हैं !!
आ ना खुशियाँ बटोर कर लाते हैं,कुछ देर जरा बच्चों को खिलाते हैं !!
हर रोज़ अच्छाई की कसम खाते हैं,रोज़ कसम तोड़कर सो जाते हैं!!
खुदा को तो जरा भी नहीं जानते हैं,और मस्जिद में नमाज़ पढ़ आते हैं !!
असल में कुछ दिखाई तो देता नहीं,लोग सपनों की महफ़िल सजाते हैं!!

बहुत ख़ूब... अच्छी रचना है...

Advocate Rashmi saurana said...

खुदा को तो जरा भी नहीं जानते हैं,और मस्जिद में नमाज़ पढ़ आते हैं !!
असल में कुछ दिखाई तो देता नहीं,लोग सपनों की महफ़िल सजाते हैं!!
bhut badhiya. jari rhe.

Anonymous said...

क्या बात है बहोत बढ़िया