Monday, September 29, 2008
ये आप कैसी पूजा कर रहे हैं?
मोनिका गुप्ता
भारत में नवरात्र के उत्सव का आगाज हो चुका है। भव्य प्रतिमाएं लोगों तक पहुंचने लगी हैं। पंडाल सजने लगे हैं। प्रकाश व्यवस्था की होड़ मची है। दुर्गा मां की प्रतिमा को विभिन्न वस्त्रों और आभूषणों से सजाने के लिए खरीददारी हो रही है। चंदे इक्ट्ठे किये जा रहे हैं। यह पूजा नारी शक्ति की अराधना का पर्व है। पूरे देश में रात-रात भर जागकर पूजा की तैयारियां की जा रही हैं। एक ऐसे देश में जहां शाम ढलने के बाद बाहर निकलने के लिए स्त्री को किसी साथी की जरूरत होती है। उसके मन में डर होता है कि कोई छेड़ न दे, कोई बदतमीज़ी न कर दे। भारत विभिन्नताओं का देश है। यहां हर बात में विभिन्नता पायी जाती है। इस विभिन्नता की सबसे अच्छी मिसाल हमें नवरात्र के उत्सव में देखने को मिलती है। पंडाल में हजारों की संख्या में उमड़ी भीड़ प्रतिमा को देखने के लिए ऐसे ललायित रहते हैं, मानो देवी दर्शन न हुए तो जीवन ही निरर्थक हो जाएगा। लोग दोनों हाथ जोड़कर भक्तिभाव से माता की प्रतिमा को नमन करते हैं और जैसे ही पंडाल से बाहर आते हैं उनके हाथ भीड़ का फायदा उठाने में व्यस्त हो जाते हैं। इस मामले में यहां के लोगों की सोच में भी विभिन्नता देखने को मिलती है। मानवीय संस्कार, संदर्भ, आदर्श, विचार सब भूल जाओ लेकिन पूजनीय प्रतीकों को कभी मत भूलो। जिस देश के करोड़ों नर-नारी नारीशक्ति की इतनी भक्तिभाव से पूजा अर्चना करते हैं, खुद को समर्पित करती हैं, उत्सव के आनंद के लिए करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, उसी देश में कन्या संतान के पैदा होने को बोझ समझा जाता है। उसके पैदा होने पर अपने अराध्य देव से यही कामना की जाती है कि हमें नहीं चाहिए यह कन्या शिशु। हमें तो अपने कुल का चिराग चाहिए और वो लड़की नहीं हो सकती। भेजना ही है तो कोई गोपाल, कन्हैया या फिर ठुमक-ठुमक चलने वाले रामचंद्र भेजो, लक्ष्मी जी और सरस्वती जी को अपने पास ही रखो। उनकी तो हमें पूजा करनी है लेकिन लक्ष्मी, दुर्गा और सरस्वती सरीखी बेटी का पालन पोषण नहीं करना है। सचमुच अदभुत देश है यह। जहां जय माता की और औरत को लेकर दी जाने वाली गालियां...जैसे शब्दों का उच्चारण एक साथ होता है। वसुधैव कुटुंबकम की तर्ज पर माता का यूनिवर्सल सम्मान भी है और यूनिवर्सल अपमान भी। इस देश के लोग नवरात्र के अवसर पर नौ दिन पूजा अर्चना करेंगे, हवन करेंगे, मदिरापान-मांसभक्षण छोड़ देंगे, मगर साक्षात नारी के सामने आते ही देवी भक्तों की आंखें वहीं टिक जाएंगी जहां जन्म के समय टिकी थीं। स्त्रीस्वरूप की पूजा तभी हो सकती है जब वह मूर्ति रूप में शक्ति की प्रतीक हो। स्कूल-कॉलेज जाने वाली, बाजार जाने वाली, बच्चे पालने वाली, पति की सेवा करने वाली, मोपेड चलाने वाली औरतें तो बस सीटी सुनने या सामने से आ रहे किसी पुरुष के धक्के खाने योग्य है। लोग न जाने किस देवी की पूजा कर रहे हैं? पूजा करनी है तो अपनी मां, बहन, बेटी और पत्नी की करो- जो तुम्हारा लालन पालन करती है, जो तुम्हारी सहभागी होती है, जो तुम्हारा मार्ग प्रशस्त करती है। वैसे सही में शक्ति स्वरूपा दुर्गा, विद्यादायिनी सरस्वती, धन की देवी लक्ष्मी की पूजा तभी सफल होगी, जब पंडाल में रखी प्रतिमा के साथ-साथ सड़क पर चलने वाली साधारण महिला का सच्चा सम्मान होगा। उस दिन भारत में नवरात्र के उत्सव में भक्ति के अलावा भारतीय संस्कृति की सार्थकता भी सिद्ध हो जाएगी।
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5 comments:
मैं आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ. आपको मालूम होगा की पूजा पंडालों में घूमने के लिए उनकी भी भीड़ लगी रहती है, जो ख़ुद देवी-देवता की पूजा नहीं करते. ऐसे लोग पंडालों में क्यूँ जाते हैं, कोई पूछता क्यों नहीं ऐसे लोगों से...
असल में देह-हाथ गरम करने वाले लोगों के लिए वरदान है पूजा जैसे भीड़वर्धक उत्सव. लेकिन इससे समाज को बहार आना चाहिए. कुछ तो ख़ुद में और कुछ बहार वालों में कंट्रोल हम अपने आप कर सकते हैं. खैर धार्मिक मामला है, इसलिए बहुत संवेदना के साथ इस मुद्दे पर समाधान ढूंढ़ना होगा...
http://anamdasblog.blogspot.com/2007/10/blog-post_19.html
एक साल पहले छपी इस पोस्ट के बारे में क्या कहना है, लगता है कि अनामदास जी ने एक साल पहले ही आपके विचार चुरा लिए थे.
मोनिका जी ,
आप ने अत्यन्त ही ज्वलंत एवं समाज के घृणित कृत्य को उजागर किया है.! और हाँ हम ऐसे समाज में रहते हैं जन्हा सिर्फ़ अपनी सोचो स्वयम खाओ ख़ुद जियो हम स्वार्थ में जीते है मोनिका जी , नही तो कभी भी चलती ट्रेन में बलात्कार नही होते न ही ट्रेन लुटी जाती हमारे इस स्वार्थी एवं घृणित समाज में हम दीखते जरूर एक जैसे हैं पर हम हैं सब अलग अलग सब के सब स्वार्थी और हाँ सायद उसमे से एक मैं भी हूँ और मोनिका जी आप भी !.नही तो जो आप ने लिखा या दरसाया वोह कभी नहीं होता !
पता नहीं क्यों भारत में पूजा का मतलब भव्यता और आडम्बर ही माना जाता है,इसे ही प्रचार भी मिलता है,इस भ्रामक विचार ने ना सिर्फ़ पूजा की पवित्रता को नष्ट किया है,बल्कि पैसों के अपव्यय को भी बढावा दिया हैं,काश कि लोग इस विषय पर चेत सकें !!
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