Wednesday, November 26, 2008

हकीकत से सामना

अक्सर बस में सफर करते कुछ एेसी चीजें देखने सुनने को िमल जाती हैं िजससे समाज का चिरतऱ अाईने की नजर अाने लगता है। िदल्ली से नोएडा ३२३ नंबर की बस में जब िकसी तरह घुस कर लोहे की पाइप से लटक गया और सांस लेने की कोिशश करने लगा तो देखा िक सामने सीट पर एक काफी बुजुगॆ व्यिक्त उंघ रहे हैं। िसर में कई जगह से िसली हुई टोपी, काफी पुराना स्वेटर और अपनी उमऱ जी चुका चूजा पहने हुए थे। हाथ में सांईं बाबा की अंगूठी पहन रखी थी। पास में एक छोटा सा झोला था। मैं उन्हें देख रहा था। उस वक्त मेरी दादी मुझे याद अाईं, जो अब नहीं हैं। उनकी ही तरह झुिरॆयां थीं। उमऱ के साथ त्वचा का िसकुड़ जाना मैंने उनमें देखा था। वैसा ही इन बाबा के हाथों में देखा। मन में ख्याल अाया िक इस उमऱ तक िजंदा रहा तो मेरी भी यही दशा होगी। बस में गाना बज रहा था न कजरे की धार न मोितयों का हार न कोई िकया श्रंगार िफर भी िकतनी सुंदर हो.... बस टोल िबऱज होते हुए नोएडा अाई तो कुछ सवार उतरे। अब सही से सांस ले पा रहा था। इतने में ही उस बुजुगॆ की नींद खुली और उन्होंने बड़ी धीमी अावाज में कुछ कहा। मैंने ध्यान िदया, तो उन्होंने िफर कहा, १२-२२ कहां है। मैंने कहा अभी दूर है। बस में लोगों का चढ़ना-उतरना जारी था। थोड़ी ही देर में उन्होंने मुझसे कहा वृद्ध लोगों का अाश्रम कहां है। यह बात कहते-कहते उनका गला रुंध गया। मुझे मालूम नहीं था िक वह कहां है। मैंने अन्य याितऱयों और बस के कंडक्टर से जानना चाहा, पर िकसी को कुछ नहीं मालूम था। उन्होंने िफर कहा सरकारी स्कूल के पास है सेक्टर २२ में। मैंने उनसे कहा िक अाप सेक्टर २२ में उतर जाइये िफर िकसी से पूछ लीिजएगा। एक बार को मेरा मन िकया िक मैं भी उतर लूं और िजतनी मदद हो सके कर दूं। पर कर न पाया। मेरे साथ कुछ सामान था और अॉिफस समय पर पहुंचने का दबाव। इन िदनों मंदी ने इस कदर डरा रखा है िक लगता है िक हो सकता है समय पर न पहुंचा तो क्या होगा? खैर वह तो उतर गए सेक्टर २२ में, पर मैं सोचता रहा, अात्म मंथन करता रहा। पहले िसफॆ समाचार सुनता था िक अाज कल के बच्चे अपने माता-िपता को वृद्धा अाश्रम में रहने भेज देते हैं। पतऱकािरता के अाठ वषॆ के अनुभव में बड़े शहर की इस हकीकत से पहली बार सामना हुअा था।

3 comments:

Aloka said...

राजू थाप्र्रे और मेरा पड़ोसी
नाटक की एक दुनिया है दोस्त
जहा मिलते है हर रोज एक न्यू दुनिया बनानी के लिया
और फिर
कितनी साल के बाद मिलते है नेत्नेट के मंच पर. है हम दूर
पर
यादे कर पड़ोसी होने की ख़बर ब्लोग्स ही सही पा लेते है हम
आप को सलाम नमस्कार जोहर जाना पडा सुना
अलोका

admin said...

सही कहा आपने, हकीकत वास्‍तव में बहुत निष्‍ठुर है।

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

आजकल के बच्चे....!!क्या करें इन पर दबाव ही कित्ता सारा है....??कित्ता बोझ है...अपने एकाध बच्चों की परवरिश का...और मुई महंगाई ये भी तो पीछा कहाँ छोड़ती है...इसलिए बच्चे माँ-बाप को ही छोड़ देते हैं....बिचारे आज कल के बच्चे....और ये माँ-बाप....कित्ते तो तंगदिल हैं...कि जिन्हें वर्षों प्यार से पाला-पोसा है...उन्हें ही धिक्कारते हैं....छी-छी-छी ये कैसे माँ-बाप हैं जो अपने ही बच्चों की मजबूरी नहीं समझते.....!!.......इसलिए हे आजकल के बिचारे बच्चों कल का इंतज़ार मत करो....कल करते हो सो आज ही करो....ऐसे मनहूस और गैर-संवेदनशील माँ-बापों को घर बाहर करो....ये गुजरा हुआ कल हैं....ऐसे भी इन्हे मरना है...और वैसे भी...इनकी खातिर तुम अपने बच्चों की इच्छाओं का गला क्यूँ घोंटते हो...अरे आने वाले कल का भविष्य तो उज्जवल करो...माँ-बाप तो यूँ ही हैं....उन्होंने अपने बाल-बच्चों के प्रति अपना कर्तव्य पूरा किया...अब तुम भी तो वो ही करोगे ना... भाड़ में जाएँ माँ-बाप...इनकी बला से क्या तुमने उनके बुढापे का ठेका ले रखा है..?? जाओ एश-मौज करो...और बच्चों को वही सिखाओ... अलबत्ता ये जरूर है....कि चाँद सालों बाद ही इतिहास स्वयम को दुहरायेगा....और तुम्हारे साथ भी वही.....!!!!!!