सवाल बड़ा दर्दनाक है......!!
एक भाई ने मेरे वृद्ध माँ-बाप को वृद्धाश्रम छोड़ने पर बहस की बात उठायी है...........मेरी समझ से बहस तो क्या हो अलबत्ता मैं ये जानने की चेष्टा अवश्य करना चाहता हूँ कि हमारी जिंदगी में बेशक चाहे जितनी मुश्किलें हों..... हमारी बीवी चाहे जैसी हो....हमारे माँ-बाप चाहे जितने गुस्सैल...सनकी...या किन्हीं और अवगुणों (हमारे अनुसार) से भरे हों....(बस व्यभिचारी ना हों...!!) मगर क्या हमें उन्हें छोड़ देना चाहिए....??क्या उन्हें वृद्धाश्रम या किसी और जगह पर फेंक देना चाहिए....??क्या किसी भी परिस्थिति या समस्या की बिना पर हमें उनसे नाता तोड़ना जायज है...??...........भारत के सन्दर्भ में ये प्रश्न बड़ा संवेदनशील...और मर्मान्तक प्रश्न है.....यहाँ मैं यह अवश्य जोड़ना चाहूँगा कि स्थिति गंभीर भी हो तो क्या उनके लालन-पालन का जिम्मा बच्चों (बड़े हो चुके) पर नहीं है....?? अगर बर्तन बजते हों....और उन्हें अलग रखना भी आमदनी के लिहाज़ से असंभव प्राय हो....तब क्या अपने ही जनक-जननी को त्याज्य देना समीचीन है.....??......आज इन सवालों के जवाब मैं आप सबों से चोटी-चोटी टिप्पिनियों के माध्यम से माँगता हूँ....आशा है आप आपनी निष्कपट और इमानदार राय यहाँ पोस्ट करेंगे....चाहे वो किसी के भी पक्ष या ख़िलाफ़ क्यूँ ना हो.....इस बहाने जनमानस के मन की पहचान भी हो जायेगी...... आपके उत्तरों के लिए बेकल मैं............भूतनाथ...........आप सबको यहाँ सादर आमंत्रित करता हूँ....अभी इसी वक्त से...!!
2 comments:
हालांकि इस सवाल का जवाब देने का हक़ मुझे नही है क्योंकी मैने विवाह नही किया है,लेकिन हम तीन भाईयो का परिवार एक साथ रहता है इसलिये इस सवाल का महत्व मै भी समझता हूं।एक आदमी के लिये दोनो महत्वपूर्ण है,मां-बाप जिनके कारण वो दुनिया मे आया और उसकी अपनी एक पहचान है,दूसरी पत्नी जो अपनी दुनिया छोड़ कर आपके साथ आई और आपके कारण उसकी पहचान है।अब अगर आपकी गाड़ी के दोनो पहियो मे तालमेल नही हो पा रहा है तो आप एक पहिये को निकाल कर फ़ेंक नही सकते चाहे वो मां-बाप हो या पत्नी। आप पर है की उनमे तालमेल कैसे बिठाया जाये। एक दुपहिया को चलाते समय जिस तरह हैंडल और ब्रेक का इस्तेमाल किया जाता है उसी तरह तालमेल बनाने से सारे मसले हल हो जाते हैं।दरअसल ये दो पीढीयो के अहं के टकराव का मामला है।वैसे मूल प्रश्न का सीधा-सीधा जवाब ये है कि मां-बाप का हमारे जीवन की हर उपलब्धियों ने जन्म से लेकर शिक्षण और विवाह तक़ मे पूरा-पूरा योगदान होत है इस्लिये उन्हे अपने से अलग करना न केवल एह्सान फ़रामोशी है बल्की अमानवीय भी है।ये मेरे व्यक्तिगत विचार है हो सकता है किसी भाई को ये ठीक न लगे उनसे अग्रिम क्षमा के साथ।
संस्कृत में एक श्लोक है - जननी जन्मभूमिस्च स्वर्गादपि गर्यसी . माँ-बाप का तिया-पाँछा नहीं करने वाले इन्सान कहलाने के काबिल नहीं .
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