सदियों पहले किसी दृष्टा कवि ने लिखा था- नर कहे दिन जात है/दिन कहे नर जात। बहुत बाद में आचार्य रजनीश ने इसी बात को दूसरे तरीके से बतायाकि इंसान समय को नहीं जीता, समय इंसान को जीता है। इसलिए समय कभी बूढ़ा नहीं होता, लेकिन हमारा शरीर हर बीतते क्षण के साथ बूढ़ा होता चला जाता है। परन्तु बात यहीं पूरी नहीं होती। अगर अध्यात्म के अंतस से देखा जाय तो आज का इंसान हर गुजरते क्षणों के साथ महज बूढ़ा नहीं हो रहा, बल्कि हर घड़ी कुछ न कुछ खो रहा है। एक नये की चाह में बहुत-सी पुरानी चीजों से दूर हो जाता है इंसान। यह प्रगति का फलसफा है। रास्ते पीछे नहीं छूटेंगे तो सफर कैसे तय होगा। पुराने से बंधे रहेंगे तो नये को कैसे पायेंगे। विकास का यही ग्रामर है, यही नियति है, यही इष्ट है।
सवाल उठता है कि क्या विकास का यह ग्रामर मानवीय भावनाओं एवं मानवीय संबंधों पर भी लागू हो सकता है? क्या भावनाओं को भी विकास की आधुनिक अवधारणा के तहत सतत बदलते रहना चाहिए ? अगर चाहिए, तो क्या यह संभव है ? क्या भावनाएं बदलने की चीज है या फिर इसे बदला भी जा सकता है कि नहीं? जवाब मुझे नहीं पता। लेकिन यह सच है कि विकास की आधुनिक युग में हम नयी चीजों के साथ जीने की आदत डाल रहे हैं, जो चीजें छूट जा रही हैं उन पर मगज नहीं खपाते, बल्कि वैकल्पिक व्यवस्थाओं के साथ खुद को एडजस्ट करते चले जाते हैं। इसका सबसे बड़ी बानगी है हमारे जीवन से चिट्ठी-पत्री का निकल जाना। एक समय था जब चिट्ठी लिखना और पढ़ना हमारे जीवन का हिस्सा था। अब इसका स्थान दूरसंचार के नव-साधनों ने ले लिया है। हम न तो चिट्ठी लिखते हैं और न ही पढ़ते हैं। मोबाइल फोन ने चिट्ठी-पत्री की अत्यंत प्रचलित विधा की मिट्टी पलीद कर दी। खत लिख दे सावरिया के नाम बाबू... यह मेरा प्रेम पत्र पढ़के तुम नाराज न होना... चिट्ठी आयी है... डाक बाबू आया... जैसे गाने शायद अब अप्रासंगिक हो गये हैं। भावनाओं से भरे ये गाने शायद अगली पीढ़ियों की समझ न आये और संभव है कि भविष्य की पीढ़ियां इन गीतों के रचनाकारों की खिल्ली तक उड़ायें। गोया कितना बेतुके थे,कितने पिछड़े और असभ्य थे वे लोग, जो बात करने के लिए कागज का सहारा लेते थे।
मोबाइल फोन ने भले ही पत्र-विधा को खत्म कर दिया हो, लेकिन वह इसकी जगह नहीं ले सकता। वजह साफ है। जो बातें लिखकर कहीं जा सकती हैं, वे बोली नहीं जा सकती। बोलना और लिखना; दो अलग-अलग विधाएं हैं। बोलकर हम अपनी बात तो बयां कर सकते हैं, लेकिन अक्सर अपनी भावनाओं को नहीं बता पाते। क्योंकि भावनाओं की अभिव्यक्ति बहुत कठिन होती है। इसके लिए बिम्बों की जरूरत होती है। अक्सर शब्दों की कमी हो जाती है। आखिर संवाद एक तरह का चित्र-शब्दानुवाद ही तो है। हम चित्रों में सोचते हैं और शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं। हर बात पहले दिमाग में चित्रात्मक रूप में जन्म लेता है और जुबान से शब्दों के मार्फत बाहर आता है। पत्र में यह आजादी रहती है कि हम अपनी भावनाओं को बिबांत्मक रूप दे सकें। भले ही वह प्यार की भावना हो या फिर गुस्सा या रोष की । पत्र को हम सहेजकर रख सकते हैं और उसे दोबारा पढ़ सकते हैं। लेकिन फोन को रिकॉर्ड कर सहेजना आसान नहीं है।
बहरहाल, याद नहीं कि पिछले कितने वर्षों से मैंने किसी को चिट्ठी नहीं लिखी। मुद्दतों से किसी ने मुझे पत्र नहीं लिखा। कुछ दोस्त हैं, जो पांच वर्ष पहले तक चिट्ठी लिखा करते थे। लेकिन अब कोई नहीं लिखते। वह भी नहीं ,जिसने यूनीवर्सिटी के फेयरवेल में कसम लेकर कहा था- भाई, खत जरूर लिखूंगा। एक मित्र, पत्र-लेखन जिसका मुख्य शौक था, उसकी भी चिट्ठी अब नहीं आती। वह बहुत शानदार पत्र लिखता था। शायद और लोगों की तरह उसने भी मान लिया होगा कि बातों के अप्रासंगिक होते ही कसमे-वादे भी बेतुके हो जाते हैं। वैसे जब भी उसकी याद आती है, बहुत सिद्दत से आती है। तब उसकी पुरानी चिट्ठी को ही नया समझकर पढ़ लेता हूं। एक और मित्र हैं, जिसके पत्र मेरे लिए किसी कविता से कम नहीं, लेकिन वर्षों से उसने भी कुछ नहीं लिखा। याद दिलाता हूं, तो एसएमएस भेज देता है। हाल में ही उसने एक एसएमएस भेजा था- हाउ ट्रयू ? द रीलेशन व्हिच रिक्वार्यड एफर्ट टू बी मेन्टेन्ड आर नेभर ट्रयू एंड इफ रीलेसंस आर ट्रयू दे नेवर रिक्वायर्ड एनी एफर्ट टू बी मेन्टेन्ड। वाह, क्या तर्क है, बट नाट एडजैक्टली ट्रयू यार ! आखिरकार आदमी ने अपनी आदतों को सही ठहराने के लिए तर्क खोज ही लिया। लेकिन मुझे नहीं लगता कि तर्क किसी कमी को पूरा कर सकता है। गुम हो गयी चीजें, तर्कों से नहीं मिल सकती। खतो-किताबत को हम खो चुके हैं। वह हमारी जिंदगी से निकल चूका है। शायद, सदा-सदा के लिए। कोई तर्क इस चुके, अभरे और रिक्त स्थान नहीं ले सकता। न तो विरक्त का तर्क और न ही आसक्ति का तर्क।
सवाल उठता है कि क्या विकास का यह ग्रामर मानवीय भावनाओं एवं मानवीय संबंधों पर भी लागू हो सकता है? क्या भावनाओं को भी विकास की आधुनिक अवधारणा के तहत सतत बदलते रहना चाहिए ? अगर चाहिए, तो क्या यह संभव है ? क्या भावनाएं बदलने की चीज है या फिर इसे बदला भी जा सकता है कि नहीं? जवाब मुझे नहीं पता। लेकिन यह सच है कि विकास की आधुनिक युग में हम नयी चीजों के साथ जीने की आदत डाल रहे हैं, जो चीजें छूट जा रही हैं उन पर मगज नहीं खपाते, बल्कि वैकल्पिक व्यवस्थाओं के साथ खुद को एडजस्ट करते चले जाते हैं। इसका सबसे बड़ी बानगी है हमारे जीवन से चिट्ठी-पत्री का निकल जाना। एक समय था जब चिट्ठी लिखना और पढ़ना हमारे जीवन का हिस्सा था। अब इसका स्थान दूरसंचार के नव-साधनों ने ले लिया है। हम न तो चिट्ठी लिखते हैं और न ही पढ़ते हैं। मोबाइल फोन ने चिट्ठी-पत्री की अत्यंत प्रचलित विधा की मिट्टी पलीद कर दी। खत लिख दे सावरिया के नाम बाबू... यह मेरा प्रेम पत्र पढ़के तुम नाराज न होना... चिट्ठी आयी है... डाक बाबू आया... जैसे गाने शायद अब अप्रासंगिक हो गये हैं। भावनाओं से भरे ये गाने शायद अगली पीढ़ियों की समझ न आये और संभव है कि भविष्य की पीढ़ियां इन गीतों के रचनाकारों की खिल्ली तक उड़ायें। गोया कितना बेतुके थे,कितने पिछड़े और असभ्य थे वे लोग, जो बात करने के लिए कागज का सहारा लेते थे।
मोबाइल फोन ने भले ही पत्र-विधा को खत्म कर दिया हो, लेकिन वह इसकी जगह नहीं ले सकता। वजह साफ है। जो बातें लिखकर कहीं जा सकती हैं, वे बोली नहीं जा सकती। बोलना और लिखना; दो अलग-अलग विधाएं हैं। बोलकर हम अपनी बात तो बयां कर सकते हैं, लेकिन अक्सर अपनी भावनाओं को नहीं बता पाते। क्योंकि भावनाओं की अभिव्यक्ति बहुत कठिन होती है। इसके लिए बिम्बों की जरूरत होती है। अक्सर शब्दों की कमी हो जाती है। आखिर संवाद एक तरह का चित्र-शब्दानुवाद ही तो है। हम चित्रों में सोचते हैं और शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं। हर बात पहले दिमाग में चित्रात्मक रूप में जन्म लेता है और जुबान से शब्दों के मार्फत बाहर आता है। पत्र में यह आजादी रहती है कि हम अपनी भावनाओं को बिबांत्मक रूप दे सकें। भले ही वह प्यार की भावना हो या फिर गुस्सा या रोष की । पत्र को हम सहेजकर रख सकते हैं और उसे दोबारा पढ़ सकते हैं। लेकिन फोन को रिकॉर्ड कर सहेजना आसान नहीं है।
बहरहाल, याद नहीं कि पिछले कितने वर्षों से मैंने किसी को चिट्ठी नहीं लिखी। मुद्दतों से किसी ने मुझे पत्र नहीं लिखा। कुछ दोस्त हैं, जो पांच वर्ष पहले तक चिट्ठी लिखा करते थे। लेकिन अब कोई नहीं लिखते। वह भी नहीं ,जिसने यूनीवर्सिटी के फेयरवेल में कसम लेकर कहा था- भाई, खत जरूर लिखूंगा। एक मित्र, पत्र-लेखन जिसका मुख्य शौक था, उसकी भी चिट्ठी अब नहीं आती। वह बहुत शानदार पत्र लिखता था। शायद और लोगों की तरह उसने भी मान लिया होगा कि बातों के अप्रासंगिक होते ही कसमे-वादे भी बेतुके हो जाते हैं। वैसे जब भी उसकी याद आती है, बहुत सिद्दत से आती है। तब उसकी पुरानी चिट्ठी को ही नया समझकर पढ़ लेता हूं। एक और मित्र हैं, जिसके पत्र मेरे लिए किसी कविता से कम नहीं, लेकिन वर्षों से उसने भी कुछ नहीं लिखा। याद दिलाता हूं, तो एसएमएस भेज देता है। हाल में ही उसने एक एसएमएस भेजा था- हाउ ट्रयू ? द रीलेशन व्हिच रिक्वार्यड एफर्ट टू बी मेन्टेन्ड आर नेभर ट्रयू एंड इफ रीलेसंस आर ट्रयू दे नेवर रिक्वायर्ड एनी एफर्ट टू बी मेन्टेन्ड। वाह, क्या तर्क है, बट नाट एडजैक्टली ट्रयू यार ! आखिरकार आदमी ने अपनी आदतों को सही ठहराने के लिए तर्क खोज ही लिया। लेकिन मुझे नहीं लगता कि तर्क किसी कमी को पूरा कर सकता है। गुम हो गयी चीजें, तर्कों से नहीं मिल सकती। खतो-किताबत को हम खो चुके हैं। वह हमारी जिंदगी से निकल चूका है। शायद, सदा-सदा के लिए। कोई तर्क इस चुके, अभरे और रिक्त स्थान नहीं ले सकता। न तो विरक्त का तर्क और न ही आसक्ति का तर्क।
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