मोनिका गुप्ता
स्लमडॉग मिलिनेयर को ऑस्कर क्या मिला प्रतिक्रिया करने वालों के सुर ही बदल गये। जब फिल्म प्रदर्शित की गयी तो फिल्म स्टार से लेकर, समाज सुधारकों, एनजीओ समेत कई लोगों ने फिल्म की यह कहकर आलोचना की कि फिल्म में भारत की गरीबी को बेचा गया है। आगरा के एक एनजीओ ने फिल्म में ताजमहल में चोरी होते हुए जूते चप्पलों को दिखाये जाने पर विरोध प्रकट किया तो फिल्म स्टार अभिताभ बच्चन ने कहा कि इस फिल्म में भारत की गरीबी को बेचा गया है। लेकिन आठ ऑस्कर मिलने के बाद तो तारीफों की झड़ी लग गयी। अब लोग डैनी बॉयल की फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर को हाथों हाथ ले रहे है। इस बात में कोई शक नहीं कि इस फिल्म में शहरी झुग्गी झोपड़ियों की असलियत सामने आयी है। निःसंदेह इस फिल्म को भारत के अलावा दुनिया के किसी भी देश में फिल्माया जा सकता था। इस फिल्म के लिए भारत से भी अच्छी जगह शायद अफ्रीका हो सकती थी क्योंकि झुग्गी झोपड़ियों के मामले में भारत से ज्यादा धनी अफ्रीका है। वैसे इस दुनिया में जहां विश्व आबादी की एक अरब जनसंख्या झुग्गी झोपड़ियों में जीवन बसर कर रही हो वहां गरीबी ढूंढना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन डैनी बॉयल ने भारत को ही चुना तो इस मायने में हमें फिल्म निर्देशक का शुक्रगुजार होना चाहिए। इसके द्वारा अंतरराष्ट्रीय पटल पर भारत की जो ब्रांडिग हुई वह बिल्कुल उसी तरह है जिस तरह मंदी से जूझ रहे अमेरिका में राष्ट्रपति बराक ओबामा की ब्रांडिंग की गयी। साथ ही गुलजार, एआर रहमान और रसूल पोकुट्टी का ऑस्कर तक पहुंचना भी भारत के लिए गौरव की बात है। ऐसा नहीं है कि स्लमडॉग मिलिनेयर से पहले इन तीनों ने इससे अच्छा संगीत नहीं दिया। लेकिन भारत के इन कलाकारों का ऑस्कर तक पहुंचना भी इसी फिल्म के कारण ही हो पाया है। फिल्म के द्वारा इन कलाकारों ने यह साबित कर दिया है कि संगीत में तकनीक का इस्तेमाल हॉलीवुड की बपौती नहीं। इस मामले में भारतीय कलाकार भी पीछे नहीं। ऐसा नहीं है कि अब से पहले भारतीय फिल्में ऑस्कर के नामांकित नहीं हुई। सारांश, लगान, रंग दे बसंती, तारे जमीं पर आदि फिल्में भी बनीं जिसकी पटकथा, निर्देशन, संगीत आदि बेजोड़ थी। लेकिन इन सबके साथ एक दुर्भाग्य शायद यह रहा कि ये सभी फिल्में हिन्दी भाषा में थी। इस बार कहानी भारत की थी, लेकिन भाषा अंग्रेजी थी जो ज्यूरी मेम्बर का ध्यान आकर्षित कर पायी और गाड़ी पटरी पर आ गयी। इस फिल्म में अभिनय करने वाले स्लम में रहने वाले दो बच्चों को देखें तो इस फिल्म के कारण मिलने वाली उपलब्धियां साफ नजर आएंगी। रूबीना (लतिका) और अजहरुद्दीन (जमाल) के एक कमरे और एक जोड़े कपड़े में जीवन बिताने से लेकर लॉस एंजिल्स के कोडक थियेटर में गाउन और सूट बूट पहनकर रेड कॉरपेट में चलना और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना उपलब्धि के सिवा और कुछ नहीं। अगर इनका धारावी से लॉस एंजिल्स तक जाना संभव हुआ तो माध्यम डैनी बॉयल ही है। वैसे भारत में उगते सूरज की ओर देखने की प्रथा बड़ी पुरानी है सो लोग इस प्रथा का निर्वाह करने से चूकते नहीं। इस बात में कोई दो मत नहीं कि इस फिल्म के लिए ऑस्कर सम्मान भी कम है।
6 comments:
बहुत अच्छा लिखा आपने, साधुवाद!!
गुलज़ार को क्यों ऑस्कर मिला. क्या जूरी हिंदी के बोल समझते थे.
हिंदुस्तानी फिल्म संगीत के लिए ये बेहद गौरव के क्षण हैं। पुरस्कार इस फिल्म के लिए भले मिला हो पर रहमान और गुलज़ार दोनों इससे भी बेहतरीन काम पहले भी कर चुके हैं। पर कब क्या क्लिक कर जाए कौन जानता है।
शायद अत्यंत गरीबी के बीच भी यहाँ के लोगों में जीवन में आगे बढ़ने की ललक वाली भावना निर्णायक मंडल के दिल को छू गई।
सही है ... बहुत सुंदर लिखा आपने मोनिका ।
बेशक आपकी बातें ठीक हैं..............मगर कुछ बातों से मैं सहमत नहीं.........मगर उससे क्या हुआ....आपने लिखा तो अच्छा ही है ना.....!!
सफलता ही सबसे बडा आत्मविश्वास है।
अगली कडी की प्रतीक्षा रहेगी।
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