Saturday, April 18, 2009

नक्सलियों को नहीं, निरीह ग्रामीणों को मार डाला


विश्णु राजगढ़िया

झारखंड में नक्सली लगातार चढ़े जा रहे हैं। पुलिस और अर्द्धसैनिक बल उनका मुकाबला नहीं कर पा रहे। इसका बदला निरीह ग्रामीणों से लिया जा रहा है। इससे नक्सलियों को ही अपना आधार बढ़ाने में मदद मिल रही है। वे उन इलाकों में पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की ज्यादती के खिलाफ ग्रामीण युवकों को गोलबंद होने का आह्वान कर रहे हैं। 15 अपै्रल को नक्सलियों ने लातेहार जिला के बरवाडीह थाना क्षेत्र में बारूदी सुरंग विस्फोट किया। इसमें सीआरपीएफ के दो जवान मारे गये 12 जवान घायल हो गये। निजी वाहन के चालक व खलासी की भी मौत हुई। इसके साथ ही खबर आयी कि विसफोट के बाद सीआरपीएफ ने बहादुरी के साथ नक्सलियों का सामना करके पांच को मार गिराया। लेकिन बरवाडीह इलाके के लोग इसे फरजी मुठभेड़ बता रहे हैं। मारे गये पांचों लोग निरीह ग्रामीण थे। ग्रामीणों के अनुसार सीआरपीएफ के जवानों ने गांव में जाकर सोमा बोदरा के घर से पिताई मुंडा, सुपे बोदरा, मसीह बोदरा, संजय बोदरा और सुपाई बोदरा को पकड़ ले गये। फिर विस्फोट स्थल के पास ले जाकर गोलियां से भून दिया.

ये तथ्य सामने आये हैं-

पांचों मृतकों का घर घटनास्थल के समीप है। ऐसे उग्रवादी संगठनों के लोग अपने घर-परिवार की सुरक्षा के लिहाज से अपने घर के समीप किसी आपरेशन में शरीक नहीं होते।

मारे गये सभी एक ही परिवार के सदस्य हैं। किसी परिवार के पांच सदस्य एक ही उग्रवादी संगठन में शामिल हो जायें और एक ही आपरेशन में शामिल हो जायें, इसे भी विश्वसनीय नहीं माना जा रहा।

मृतकों के पास से कोई हथियार बरामद नहीं हुआ है। मुठभेड़ होती तो हथियार भी मिलते। सभी मृतक लुगी-गंजी में थे, जो इतमिनान से घर में होने का संकेत है, किसी मुठभेड़ में शामिल होने का नहीं। एक मृतक सुपाय बोदरा तो रांची में सीएमपीडीआइ में कार्यरत है जो भारत सरकार का संस्थान है। वह छुट्टी पर घर गया था। बरवाडीह क्षेत्र के सभी राजनीतिक दलों के लोग इसे फरजी मुठभेड़ मानते हैं और जांच की मांग कर रहे हैं।

नक्सली हमलों में सीआरपीएफ या पुलिस को होने वाले नुकसान से नागरिक समाज चिंतित है और इसे रोकने की मांग करता है। लेकिन मुठभेड़ के नाम पर आम लोगों को मार गिराना कहां तक जायज है? क्या नक्सलियों और जवानों, दोनों ने ही अपनी मरजी करने की ठान रखी है और दोनों की ही मार सहते रहना आम नागरिकों की नियति है?

(रांचीहल्ला आभारी है विष्णु जी का जिन्होंने पुलिस की बर्बरता दर्शाती तथ्यपरक रिपोर्ट स‌े लोगों को अवगत कराया।)

6 comments:

Anonymous said...

भाई आपने जो जूता मारने के विकल्प दिये हैं उनमें आप विनोद दुआ, बरखा दत्त, प्रनव राय, रवीश कुमार वगैरह पत्रकारों का नाम भी शामिल कर लो और पता करो कि जनता किन किन में और जूता मारना चाहती है?

सिर्फ सोनियां गांधी, मायावती, अमरसिंह का नाम क्यों लिख रखा है?

हम तो तुम सब पत्रकारों में जूते मारना चाहते हैं, पूछो तो?

kabad khana said...

hiiiiiiiiii fully agree with u my friend nakalim ek bahut hi khatarnak hai hamare desh ke liye ,,,,,,
aor inka jyada badna desh ki ekta ko khatara paida karta hai

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

अगर सचमुच ऐसा ही है......तो सचमुच बड़ा ही भयावह है.....अगर इस बर्बरता की कोई हद नहीं है....तो फिर इसका कोई इलाज भी नहीं है... आप बंदूकें चलाते रहो....और नक्सली बढ़ते ही जायेंगे.....क्योंकि दरअसल गोलियों में कोई हल नहीं छिपा होता....बन्दूक और गोलियाँ हल नहीं बल्कि खुद ही इक समस्या है....नक्सलियों के लिए भी और पुलिस के लिए भी.....हल तो संवाद ही है.....संवाद की अक्ल किसमें कितनी है...दरअसल यह भी तो इक सवाल ही है.....!!

hem pandey said...

इस बात पर विश्वास किया जा सकता है कि मुठभेड़ फर्जी थी.लेकिन यह कुछ अजीब लगता है कि निर्दोष ग्रामीणों को घर से उठा कर गोलियों से भून दिया गया.निश्चित रूप से ग्रामीणों पर नक्सलियों को मदद देने का
शक होगा.हालांकि शक के आधार पर ह्त्या करना जायज नहीं ठहराया जा सकता.

रजत कुमार गुप्ता said...

स‌च लिखने के लिए विष्णु जी को बधाई। लगातार इस किस्म की घटनाएं घटित हो रही हैं। फिर भी स‌रकार और उसके करीबी लोग यह नहीं स‌मझ पा रहे हैं कि आज गांवों-जंगलों में जो नक्सली दबाव है, वह निहत्थे और निर्दोष ग्रामीणों की हत्या के बाद महानगरों और ए स‌ी कमरों तक आ धमकेगा।

जितेंद्र राम said...

सर आपने जो भी सवाल उठाये हैं उनका जवाब शायद सरकार के पास नहीं है आैर है भी तो देने से परहेज करेगी। क्योंकि प्रशासन के लए यह कोई नई बात नहीं है कि गुनाहगारों को न पकडपाने की अवस्था में वे बेगुनाहों को ही अपना िशकार बनाते हैं। किसी बडी घटना के बाद पुलिस मुजरिम को कई दिनों तक पकड नहीं पाती, लेकिन जब पार्टी का अल्टीमेटम जाता है कि 24 या 48 घंटे के अंदर गुनाहगार नहीं पकडाया तो थाना का घेराव या बंद। तब तो घंटों में गुनाहगार सलाखों के पीछे नजर आता है आैर पुलिस इसे बडी सफलता मानती है। आिखर कैसे? इसलिए यह तो पुलिस प्रशासन की पुरानी नीति है। जब गुनाहबार पहुंच से दूर हो तो बेगुनाह आैर निरिह ही मुजरिम होते हैं।