क्षमा का प्रार्थी हूं कि इस लेख को रजत दा के भेजने के दो दिनों के बाद पोस्ट कर रहा हूं। असल में इसे कंपोज़ करने में देरी हुई और प्रकाशन सप्ताह होने के कारण मुझे समय नहीं मिल पाया। क्षमा याचना पुनः।
रजत कुमार गुप्ता
जॉर्ज बुश पर जूता क्या चला, जूता चलाने का तो फैशन चल पड़ा। जिसे जब देखो जूता चलाकर दूसरों का भला कर जाता है। भारत के गृहमंत्री पी चिदांवरम पर जूता फेंकने वाले जरनैल सिंह के साथ भी यही फॉर्मूला लागू होता है। करीब एक दशक से कांग्रेस बीट पर ही काम करने वाले इस पत्रकार को एक अदना सा जूता इतनी ख्याति दिला गया, जितना उनका काम नहीं दिला पाता। बावजूद इसके सवाल लाख टके का कि आखिर जूते के पीछे क्या है। जूता के आगे तो दिखता है कि नाराजगी है पर जूता के चलते ही जो कुछ हुआ, उससे यह सवाल उठाना प्रासंगिक हो गया है। अमरीका से चीन होते हुए अब यह मसला दिल्ली दरबार तक आ पहुंचा। आम तौर पर प्रिंट मीडिया के पत्रकारों को चिरकूट समझने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी जरनैल के चारों तरफ घूमती नजर आयी। जिस खबरिया चैनल पर देखो, वही चलता हुआ जूता और बचते हुए केंद्रीय गृहमंत्री।
आमतौर पर आज के दौर के "सफल' पत्रकार राजनीति से खुद को दूर रखने की बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं पर रात की दिल्ली कुछ और कहानी बयां करती है। लिहाजा क्या वाकई जरनैल ने उत्तेजनावश जूता फेंका, यह जानबूझकर जूते को लक्ष्यभ्रष्ट होने दिया या किसी और ने उसके जूते के बहाने अना निशाना साधा, यह लाख टके का नहीं स्विस बैंक में जमा भारत के कालेधन वाले करोड़ों-अरबों रुपये का सवाल है।
सवाल इसलिए अधिक कीमती हैक्योंकि दिल्ली के अनेक दिग्गज नेताओं के आंख की किरकिरी बने जगदीश टाईटलर को पार्टी ने टिकट दिया है। इससे पहले भी उन्हें इन्हीं आरोपों की वजह से मंत्री पद छोड़ने के साथ-साथ राजनीतिक वनवास पर जाना पड़ा था। टाईटलर के वनवास के दिनों में कुकुरमुत्ते की तरह उगे दिल्ली के नेताओं को फिर से एक कद्दावर नेता के उभरने से परेशानी हो रही थी। जरनैल के जूते ने ऐसे लोगों को नये सिरे अपना टाईटलर विरोधी अभियान तेज करने का मसाला दे दिया है।
सभी जानते हैं कि यह चुनावी मौसम हैं। इस मौसम में बेवक्त बारिश, तूफान और कई-बार भूकंप तक आता रहता है। वरुण बाबा की जूबां क्या फिसली, तूफान खड़ा हो गया, जिसमें अंत-अंत में अपने रोड रोलर के साथ लालू प्रसाद भी फंसे नजर आ रहे हैं। ऐसे माहौल में जूता चलने से किसे क्या फायदा होने वाला है, इसे समझे बिना कहानी का क्लाईमैक्स समाप्त नहीं होता। आखिर यह भी तो एक पहेली है, अब बूझो तो जानें।
14 comments:
आपने तो खुल कर नहीं कहा, लेकिन मैं कह सकता हूं कि यह ज़रूर दिल्ली स्थित कांग्रेस मुख्यालय में बैठे सज्जन-टाइटलर विरोधियों की साजिश का ही परिणाम है। और वे अपनी साजिश में सफल भी रहे हैं। मुझे अफसोस है जरनैल सिंह पर, जिन्होंने जूता फेंक कर एक बार फिर पत्रकारिता के नग्न हो चुके चरित्र को सामने ला दिया है।
पत्रकारिता से जुड़े होने के नाते मुझे ऎसा लगता है कि पत्रकारों को भी अब थोड़ा नैतिक ज्ञान लेना ज़रूरी हो गया है। पत्रकार का काम कलम चलाना है, जूता फेंककर जरनैल सिंह ने एक बड़े और प्रतिष्ठि अखबार घराने का नाम मिट्टी में मिला दिया है। सब लोग तो यही कह रहे हैं कि जागरण के पत्रकार ने ऎसा किया। जागरण वैसे भी अपनी धर्म विशेष के प्रति कथित समर्पण को लेकर बदनाम है। कभी ये आरएसएस का अखबार कहा जाता था, तो अब ये समाजवादियों की गोद वाला हो गया है। ऊपर से जरनैल सिंह का जूता भी अखबार के मुंह पर पड़ गया। क्या करेंगे, संजय गुप्ता, सुनील गुप्ता, महेंद्र मोहन गुप्ता आदि आदि खानदानी लोग बेचारे...
जयन्ती मैडम, यदि यही जूता किसी मुस्लिम पत्रकार ने नरेन्द्र मोदी पर चलाया होता तो भी क्या आपका रवैया यही होता? या जो लोग पत्रकारिता की नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं उनका भी यही रवैया होता? मैं दावे से कह सकता हूँ कि नहीं होता… ऐसा क्यों? अपने दिल से पूछिये… कांग्रेस जैसी बदकार और भ्रष्ट पार्टी को लतियाने-गरियाने की बजाय ये "पत्रकार कौम" भाजपा-संघ और हिन्दुत्व के पीछे पड़ी रहती है, इसलिये इनके प्रति सहानुभूति कम होती जा रही है, एक जरनैल ने हिम्मत करके कांग्रेस को नंगा कर दिया तो सबके सब नैतिकता बघारने लगे…
परम आदरणीय सुरेश जी,
लगता है आपने खांसी की दवाई समझ कर गलतफहमी की दवा उड़ेल ली है। आपके दिव्य ज्ञान चक्षुओं ने यह कैसे संजयातीत किया कि मैं किसी मुस्लिम पत्रकार के मोदी को जूता पड़ने पर अपनी प्रयोगधर्मिता आपकी समझदारी के दर्पन से दुनिया को दिखाऊंगी। मुंतज़र अल जैदी, जो अल-बगदादिया चैनल का पत्रकार था, उसने भी बुश पर जूता फेंका था, तो मैंने इसकी सार्वजनिक मंच से निंदा करने में देर नहीं की थी। वैसे आपको बता दूं कि जूता फेंक कर ही आदमी से बदला लेना पत्रकारिता के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। इसमें हिन्दू-मुस्लिम की बात ही कहां है। जूता किसी भी देश के किसी भी प्रतिष्ठित पद पर बैठे आदमी के ऊपर चले, वह गलत है। और अगर जरनैल सिंह को जूता फेंकना ही था, तो उसके लिए गृहमंत्री को क्यों चुना उन्होंने? कुछ बातें ऎसी होती हैं, जो बिना कहे समझ में आ जाती हैं। आप जो समझाना चाहते हैं, वो पहले आपको खुद समझना होगा। पहले समझिये, फिर आइये समझाने। बेवजह किसी को भी हिन्दुत्व और इस्लामी, ख्रीस्तीय मार्ग पर धकेलना कहीं से भी उचित नहीं है।
rajat da aapne sahi sawal uthaya
मैं आलेख पढ़ने के बाद कमेंट के रूप में रजत जी को धन्यवाद देना चाहती थी इस लेख के लिए। यहां आकर मैंने देखा कि सुरेश जी और जयंती जी के बीच में बहसबाजी हो रही है। मैं सुरेश जी की बातों से पूरी तरह से असहमत हूं और जयंती जी की बातों से कुछ हद तक सहमत। सुरेश जी से मैं यह पूछना चाहती हूं कि जो सवाल उन्होंने जयंती जी से पूछा है, वही सवाल क्या वे खुद से पूछ सकते हैं, कि... अगर कोई मुस्लिम पत्रकार नरेंद्र मोदी को जूता मारेगा, तो वे क्या कहेंगे। उनकी विचारधारा से मैं पूरी तरह असहमत हूं कि अगर कोई आदमी किसी की आलोचना करता है, तो हमेशा वह किसी का धर्म-जाति ही देखकर नहीं करता।
यदि यह मान भी लिआ जाए कि पत्रकार होने के नाते जरनैल सिहं को जूता नही चलाना चाहिए था। तो ऐसी पत्रकारिता का क्या फायदा कि पच्चीस सालों तक वह किसी को न्याय दिलाने में कामयाब ही ना हो पाए। क्या सिर्फ खबरें दिखाना ही पत्रकार का धर्म है या फिर सच्चाई को जनता के सामने लाना? कृपया बताए?
परमजीत जी,
आपके कहने का क्या मतलब है कि पत्रकारिता से क्रांति न आये, तो जूता उठा लो। गजब-गजब बात कह रहे हैं भाई आप लोग। पत्रकार को पत्रकारिता की मर्यादा का पालन करना ही चाहिए। फिर आप क्यों हैं पत्रकारिता के क्षेत्र में। हाथ में उठाइये झंडा और कहते फिरिये- इंकलाब जिंदाबाद!!!
शाहनवाज जी,यदि पत्रकारिता से क्रांती संभव न हो सके तो पत्रकारिता की क्यों जाती है ? यही तो जानना चाहता हूँ।जूता उठाने की बात को सही या गलत ठहराना मेरा मकसद नही है।
परमजीत जी,
जहां तक मैं जानता हूं कि पत्रकारिता क्रांति लाने के लिए नहीं की जाती, बल्कि दुनिया को क्रांति की सच्चाई बताने के लिए की जाती है। क्रांति लाना क्रांतिकारियों का काम होता है, पत्रकारों का नहीं। पत्रकार सिर्फ इतना करें कि अपनी कलम से सच लिखें, सच्चाई लोगों तक पहुंचायें और लोकतांत्रिक व मर्यादित तरीके से अपने अधिकारों का संरक्षण करें। किसी भी मुद्दे को लेकर अगर आपमें जाति या धर्म आधारित कोई विभेद का भाव पनपता है, तो समझिये कि आपमें पत्रकारीय गुण हैं ही नहीं। आदमी को इस पेशे में आते वक्त ही सोच लेना चाहिए कि आप जिस स्तंभ को प्रतिबिंबित करनेवाले हैं, वहां आपकी व्यक्तिगत राय आपके कलम के अलावा किसी और भौतिक वस्तु से नहीं निकलनी है। आशा है कि आप समझ गये होंगे। धन्यवाद।
शाहनवाज जी,लेकिन क्या पत्रकार सच्चाई सामने लाने में कभी कामयाब हुए हैं ? जिस मकसद को लेकर जरनैल सिहं सामने आया है।यही तो जानना है कि वह सच्चाई कभी सामने क्यों नही ला सके?
ho sakta hai ki jarnail ka virodh galat ho. lekin aap sabhi baataiye ki aaj se 25 years pehle yeh ghtna hui. four se five thousand log maare gaye. aur aapka kanun ek ko bhi saja nahi de paya. isne to shoe nahi pheka balki ucchala tha. galat hai. lekin tytler jiski maa sikh thi aur baap christan. to isse yeh nahi lagta isen nehru pariwar ke adhik se adhik najdik pahuchane ke liye ish kam ko anjam diya. aur uske tha aapka prime minister galbahiya mila kar chalta hai. to ish dristi me yeh shoe kitna galat hai. jaha tak jarnail ki baat hai to wah ek senior journalist hai. pm aur home minister ke saath uske behtar relation hai. inteligent journalist hai. agar juta pheka to sensative hokar. iske babjud usne juta pheka nahi balki ucchala. jo indian democracy me uska faith dikhlata hai.
............दोस्तों एक कलमकार का अपनी कलम छोड़ कर किसी भी तरह का दूसरा हथियार थामना बस इस बात का परिचायक है कि अब पीडा बहुत गहराती जा रही है और उसे मिटाने के तमाम उपाय ख़त्म....हम करें तो क्या करें...हम लिख रहें हैं....लिखते ही जा रहे हैं....और उससे कुछ बदलता हुआ सा नहीं दिखाई पड़ता....और तब भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता तो हमारी संवेदना में अवश्य ही कहीं कोई कमी है... मगर जिसे वाकई दर्द हो रहा है....और कलम वाकई कुछ नहीं कर पा रही....तो उसे धिक्कारना तो और भी बड़ा पाप है....दोस्तों जिसके गम में हम शरीक नहीं हो सकते....और जिसके गम को हम समझना भी नहीं चाहते तो हमारी समझ पर मुझे वाकई हैरानी हो रही है....जूता तो क्या कोई बन्दूक भी उठा सकता है.....बस कलेजे में दम हो.....हमारे-आपके कलेजे में तो वो है नहीं....जिसके कलेजे में है.....उसे लताड़ना कहीं हमारी हीन भावना ही तो नहीं...........??????
भाई परमजीत जी
क्या आप ये कहलवाना चाहते हैं कि जो कुछ जरनैल सिंह जी ने किया, सच बाहर न आने पर वैसे ही किया जाना चाहिए। आपको पता होगा कि तहलका.कॉम ने दो एक साल पहले गुजरात दंगों की असलियत उगलते लोगों का स्टिंग ऑपरेशन किया था। बाबू बजरंगी से लेकर न जाने कैसे-कैसे और कितने ही प्रभावशाली लोगों ने छुपे कैमरे के सामने यह स्वीकार किया कि उन्हें कुछ नहीं होगा, क्योंकि सरकारी वकील भी मिला हुआ है। आरोप लगाने वाली पुलिस भी केस को कमज़ोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखेगी, क्योंकि ऑर्डर ऊपर से आते हैं और सरकार के मंत्री व सत्ता पक्ष के विधायक तक इन दंगों के लिए दोषी हैं, इसलिए नहीं कि सरकार में रहते हुए उन्होंने अल्पसंख्यकों की हिफाजत नहीं की, बल्कि इसलिए, क्योंकि ये लोग सक्रिय रूप से दंगों को अंजाम दे रहे थे। कोई पेट फाड़ रहा था, तो कोई घरों-दुकानों और वाहनों को आग लगा रहा था। ये सभी जानते हैं कि गुजरात में हुए दंगों का प्रयोजन गुजरात सरकार ने किया था। चूंकि गुजरात एक ऎसा राज्य है, जहां हिन्दू हितों की बात करनेवाली सरकार ने वोटों के ध्रुवीकरण का एकमात्र फार्मूला कत्ले-आम खोज लिया था, इसलिए उन्होंने चुन-चुन कर एक समुदाय विशेष को टारगेट किया। अब मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि किसी कोर्ट ने अभी तक यह नहीं कहा है कि गुजरात दंगों में सरकारी मशीनरी की मिलीभगत लगती है। किसी कोर्ट में अभी फैसला नहीं हुआ है कि गुजरात दंगे क्यों हुए, तो इसका क्या मतलब है कि जो आदमी उन दंगों से आहत है, वो नरेंद्र मोदी और गाहे-बगाहे आडवाणी जी या किसी जज पर जूता फेंकने लगे??? ये कैसी मानसिकता है भाई। टाइटलर को कोर्ट ने क्लीन चिट दे दी है। उनके खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से विरोध भी हो सकता है। गृहमंत्री पी.चिदंबरम पर जूता फेंकना न सिर्फ अलोकतांत्रिक है, बल्कि अमर्यादित, असभ्य, पत्रकारिता की समाप्त हो रही छवि को अंधे कुएं में डालने के समान भी है। कृपया पत्रकारिता के आदर्शों के साथ इसलिए समझौता मत करने लगिए, क्योंकि आपकी मनःस्थिति परिपक्वता की परिधि से परे चली गयी हो।
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