भारतीय लोकतंत्र का सबसे महान पर्व सम्पन्न हो गया। चुनावी सर्वे में किसी की भी राय आम जनता की राय से मेल नहीं खाती। इसी तरह ज्योतिष के दुकानदार भी इस बार फिर फेल हो गये। अब इस एकतरफा फैसले के पीछे तर्क गढ़ने का दौर चल पड़ा है। यह दुखद स्थिति है कि जनता बार-बार नीति निर्धारकों को अपनी पसंद और प्राथमिकताओं के बारे में बताती है पर सत्ता पर बैठे लोग या तो इन्हें समझ नहीं पाते या फिर समझना नहीं चाहते।
चारों खाने चित भाजपा की दलील है कि अल्पसंख्यकों ने कांग्रेस को एकमुश्त वोट दिया। कैमरे के सामने ऎसी दलील देने वालों से कोई यह नहीं पूछता कि अगर ऎसी ही बात थी तो रामपुर सीट से सपा की जयाप्रदा क्यों जीती जबकि कांग्रेस की प्रत्याशी बेगम नूरबानो सहित दो मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में थे। दूसरी तरफ जिन इलाकों में मुसलमान वोट निर्णायक नहीं थे, वहां भाजपा क्यों पराजित हो गयी। इसके ठीक विपरीत विजयी मुस्कान लिये कैमरे के सामने आते कांग्रेसियों को अपनी जीत के लिए नई-नई उपलब्धियां नजर आ रही हैं। इसी क्रम में नये सिरे से इस दल में व्यक्तिपूजा के लिए नया कैरेक्टर बतौर राहुल गांधी के रूप में उभरा है। कांग्रेस की नीतियां अगर इतनी ही प्रभावी थीं तो उसे स्पष्ट बहुमत क्यों नहीं मिला और करीब तीन दशक के वामपंथी शासन से इस बार मुक्ति कैसे मिली। ये चंद सवाल है, जिनके सही जबाव एयरकंडिशंड कमरों में बैठे वन मैन आर्मी वाले नेता नहीं समझ सकते। मजेदार बात यह है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों में अब बिना समर्थकों वाले नेताओं की ही चलती है। ऎसे लोगों का जनसरोकार से कुछ लेना देना नहीं। वे अपने लिए शायद नगर निगम के पार्षद का चुनाव भी नहीं जीत सकते पर पार्टी के महत्वपूर्ण चिंतक बने हैं। चूंकि यह लेख इंटरनेट के अभ्यस्त हो चुके साथियों को समर्पित हैं। इसलिए मित्रों किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मैं अपनी ओर से आपको कोई तर्क नहीं दूंगा। सिर्फ मेरी समझ से पांच चरणों में हुए चुनाव के परिणामों के इसी क्रम में विश्लेषण से बहुत सी बातें अपने-आप ही स्पष्ट हो जाएंगी। पहले चरण में कहां-कहां चुनाव हुए, उसके बाद क्या स्थिति बनी, दूसरे, तीसरे और चौथे चरण के चुनाव में कौन-कौन से इलाके थे और वहां होने वाले चुनाव प्रचार में कौन से मसले देश के सामने उछाले गये। इनका क्रमवार अध्ययन करते ही हमें एक स्पष्ट फैसले की झलक मिल जाती है। इसलिए दोस्तों यह मान लेना चाहिए कि चुप्पी साधे बैठा वोटर मूर्ख नहीं है और वह बार-बार किसी आवेश में वोट नहीं करता। इस बार के चुनाव में निश्चित तौर पर दलों के कट्टर मतदाताओं ने तो हर हाल में अपने दलों को ही वोट दिया होगा। वोटों का विचलन इस आधार पर नहीं हुआ करता पर जो सामान्य वोटर हैं, उन्होंने पिछले पांच वर्षों के कार्यकाल में, जनता की प्राथमिकताओं के बीच ताल-मेल बैठाते हुए इस बार का फैसला सुनाया है। जरूरी नहीं कि आने वाले विधानसभा चुनावों में ये वोटर इसी क्रम में वोट दें क्योंकि उस चुनाव में उनकी प्राथमिकता कुछ और होगी। इसलिए पांच चरण के चुनाव कार्यक्रम को अपने सामने रखिये और उस क्रम में चुनाव परिणामों को ऱखने के साथ-साथ हर दौर में चुनाव प्रचार के नारों और भाषणों को याद कीजिए। बड़ी आसानी से यह समझ में आ जाएगा कि देश की जनता दरअसल सभी राजनीतिक दलों से क्या कहना चाहती है।
1 comment:
आपने बहुत अच्छी बात कही है। वास्तव में अब हम लोगों को सोचना होगा कि क्या अब भी जात-पात और धर्म के आधार पर राजनीति की कोई जगह है या नहीं।
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