चार बांसों के ऊपर झूलती रस्सी.....
रस्सी पर चलता नट....
अभी गिरा, अभी गिरा, अभी गिरा
मगर नट तो नट है ना
चलता जाता है....
बिना गिरे ही
इस छोर से उस छोर
पहुँच ही जाता है.....!!
इस क्षण आशा और
अगले ही पल इक सपना ध्वस्त....!!
अभी-अभी.....
इक क्षण भर की कोई उमंग
और अगले ही पल से
कोई अपार दुःख
अनन्त काल तक
अभी-अभी हम अच्छा-खासा
बोल बतिया रहे थे और
अभी अभी टांग ही टूट गई....!!
कभी बाल-बच्चों के बीच....
कभी सास बहु के बीच.....
कभी आदमी औरत के के बीच
कभी मान-मनुहार के बीच
कभी रार-तकरार के बीच....
कभी अच्छाई-बुराई के बीच
कभी प्रशंसा-निंदा के बीच
कभी बाप-बेटे के बीच
कभी भाई-भाई के बीच
कभी बॉस और कामगार के बीच
कभी कलह और खुशियों के बीच
कभी सुख और के बीच....
जैसे एक अंतहीन रस्सी
इस छोर से उस छोर तक
बिना किसी डंडे के ही
टंगी हुई है ,और हम
एक नट की भांति
करतब दिखाते हुए
बल खाते हुए
गिरने-संभलने के बीच
चले जा रहे हैं.....
बिना यह जाने हुए कि....
दूसरा जो छोर है....
उस पर तो मौत खड़ी हुई है....
हम संभल भी गए तो
कोई अवसर नहीं है....
कुछ भी पा लेने का.....!!!!
2 comments:
शायद और कुछ हमारे हाथ में भी नहीं है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
गिरने-संभलने के बीच
चले जा रहे हैं.....अद़भुत रचना, अच्छा प्रयास, एक एक पंक्तियां कुछ कह रही हैं...
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