Sunday, August 16, 2009

जन्नत सा एक पिंजरा बना लीजिये

रौनकें मेरे दिल की चुरा लीजिये.
देना है कुछ मुझे तो सजा दीजिये

लब हैं सूखे हुए जैसे साहिल कोई
आह की इनमें कश्ती चला लीजिये

खिल उठे हैं तसल्ली के बूटे, कई
शाखे-उम्मीद पर भी उगा लीजिये

हैं सदी की कतारों में लम्हे खड़े
गिन नहीं पायेंगे इनको सजा लीजिये

नीम-बाज आँखें कब से हैं सूनी पड़ीं
मुट्ठी भर ख्वाब इनमें छुपा लीजिये

है कहाँ कोई महफूज़ ज़माने में, तो
एक जन्नत सा पिंजरा बना लीजिये

1 comment:

नदीम अख़्तर said...

बहुत ही खूबसूरत रचना है आपा। बहुत अच्छा लगा।