Friday, September 11, 2009

मेरे तो चारों तरफ आग ही आग है!!



यहाँ से वहां तक कैसा इक सैलाब है
मेरे तो चारों तरफ आग ही आग है!!
कितनी अकुलाहट भरी है जिन्दगी
हर तरफ चीख-पुकार भागमभाग है!!
अब तो मैं अपने ही लहू को पीऊंगा
इक दरिंदगी भरी अब मेरी प्यास है!!
मेरे भीतर तो तुम्हे कुछ नहीं मिलेगा
मुझपर ऐ दोस्त अंधेरों का लिबास है!!
हर तरफ पानियों के मेले दिखलाती है
उफ़ ये जिंदगी है या कि इक अजाब है!!
हर लम्हा ऐसा गर्मियत से भरा हुआ है
ऐसा लगता है कि हयात इक आग है !!
हम मर न जाएँ तो फिर करें भी क्या
कातिल को हमारी ही गर्दन की आस है!!
रवायतों को तोड़ना गलत है "गाफिल"
यही रवायतें तो शाखे-दरख्ते-हयात हैं!!

5 comments:

अनिल कान्त said...

bahut khoob likhte ho miyaan

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सुंदर रचना है, आज के इंसान की जिंदगी को बयाँ करती हुई।

संगीता पुरी said...

सचमुच यही आज का सच है !!

ओम आर्य said...

bilkul yah aaj ka sach hai...........shukriya

Vinay said...

poem is so right...