Wednesday, October 14, 2009
पुरुषोत्तम ....
(यह थोड़ी पुरानी कविता है)
त्याग दिया वैदेही को
और जंगल में भिजवाया
एक अधम धोबी के कही पर
सीता को वन वन भटकाया
उस दुःख की क्या सीमा होगी
जो जानकी ने पाया
कितनी जल्दी भूल गए तुम
उसने साथ निभाया
उसने साथ निभाया
जब तुम कैकेयी को खटक रहे थे
दर दर ठोकर खाकर,
वन वन भटक रहे थे
अरे, कौन रोकता उसको !!
कौन रोकता उसको !!
वह रह सकती थी राज-भवन में
इन्कार कर दिया था उसने
तभी तो थी वह अशोक-वन में !
कैसे पुरुषोत्तम हो तुम !
क्या साथ निभाया तुमने !
जब निभाने की बारी आई
तभी मुँह छुपाया तुमने ?
छोड़ना ही था सीता को
तो खुद छोड़ कर आते
अपने मन की उलझन
एक बार तो उसे बताते !
तुम क्या जानो कितना विशाल
ह्रदय है स्त्री जाति का
समझ जाती उलझन सीता
अपने प्राणप्रिय पति का
चरणों से ही सही, तुमने
अहिल्या का स्पर्श किया था
पर-स्त्री थी अहिल्या
क्या यह अन्याय नहीं था ?
तुम स्पर्श करो तो वह 'उद्धार' कहलाता है
कोई और स्पर्श करे तो,
'स्पर्शित' !
अग्नि-परीक्षा पाता है
छल से सीता को छोड़कर पुरुष बने इतराते हो !
भगवान् जाने कैसे तुम 'पुरुषोत्तम' कहलाते हो
एक ही प्रार्थना है प्रभु !
इस कलियुग में मत आना
गली गली में रावण हैं
मुश्किल है सीता को बचाना
वन उपवन भी नहीं मिलेंगे
कहाँ छोड़ कर आओगे !
क्योंकि, तुम तो बस,
अहिल्याओं का उद्धार करोगे
और सीताओं को पाषाण बनाओगे
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2 comments:
प्राचीन संदर्भों को भी गम्भीरता से प्रस्तुत किया है।
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क्या खूब कविता है! इसकी जितनी भी तारीफ की जाये कम है। मुझे दुख है कि मैंने आपके पहले पोस्ट आज की उर्मिला आैर शूपर्नख दोनों कविताएं पढी आैर बहुत ही अच्छा लगा। बहुत जानकारी भी मिली। मैं इसके लिए आपको धन्यवाद देना चाहूंगा। आैर आपसे आगे भी एसी ज्ञानवद्वर्क आैर इंटरेिस्टंग कविता, लेख आैर कहानियों की उम्मीद करता हूं।
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