Wednesday, July 13, 2011

कॉरपोरेट सोशल रेस्पांसिबिलिटी

रजत कुमार गुप्ता

एक बार किसी पत्रकार ने रतन टाटा स‌े पूछा- टाटा लोग उतनी तेजी स‌े तरक्की क्यों नहीं कर रहे हैं, जितने की अंबानी लोग।बताया जाता है रतन टाटा ने उत्तर दिया था - हमलोग उद्योगपति हैं और वे व्यापारी।इस मर्म को अधिकांश लोग नहीं स‌मझ पाये पर बाद के घटनाक्रमों स‌े इस बात की गहराई का पता चलता है। 26-11 के पीड़ितों के प्रति टाटा का क्या योगदान रहा, इसे अधिक लोग नहीं जानते पर स‌मय की मांग है कि इसे लोग जाने।मुंबई हमले के दौरान मात्र एक दिन भी अस्थायी कर्मचारी रहे लोगों को टाटा ने अपना स‌्थायी कर्मचारी मांगा और होटल बंद होने के दौरान उसे स‌्थायी कर्मचारी के स‌ारे लाभ दिये गये। हमले के दौरान मारे गये अथवा घायल हुए तमाम लोगों को कंपनी ने स‌ारे राहत उपलब्ध कराये। यहां तक कि रेलवे स‌्टेशन और आस-पास के इलाकों में मारे गये लोगों के परिवारों को भी इस राहत के दायरे में रखा गया, इनमें वहां के पान दुकानदार और पाव भाजी बेचने वाले भी शामिल थे। जब तक होटल बंद रहा, स‌ारे कर्मचारियों को मनी आर्डर द्वारा वेतन भेजा जाता रहा। टाटा इंस्टिटि्यूट ऑफ स‌ोशल स‌ाइंसेज की मदद स‌े एक खास स‌ेल बनाया गया जो प्रभावित लोगों की मानसिक मदद करता है। क्योंकि अनेक लोग अब भी उस हमले के बाद मानसिक आतंक स‌े उबर नहीं पाये हैं। करीब 16 स‌ौ कर्मचारियों को ऎसी मदद के दायरे में रखा गया। हर ऎसे कर्मचारी के पीछे एक व्यक्ति लगाया गया तो उसकी तमाम जरूरतों पर ध्यान स‌े और आवश्यकताओं की पूर्ति करें यानी हर कर्मचारी के लिए स‌िंगल विंडो पद्धति खुद रतन टाटा ने व्यक्तिगत तौर पर 80 प्रभावित परिवारों स‌े भेंट की और उन्हें मदद का पूरा भरोसा दिया। कर्मचारियों के आश्रितों को बाहर स‌े भी मुंबई लाया गया और तीन हफ्ते तक होटल प्रेसिडेंट में रखकर उन्हें भी पूरी तरह स‌े आश्वस्त किया गया। इस दौरान रतन टाटा हरेक स‌े मिले और उनकी जरूरतों पर खुद ध्यान दिया। इस बात-चीत के दौरान श्री टाटा हमेशा लोगों स‌े यह स‌वाल करते रहे कि वे (यानी लोग) उनसे क्या उम्मीद करते हैं। इसी मुलाकात का नतीजा था कि 20 दिनों के भीतर एक नये ट्रस्ट का उदय हुआ, जो अपने कर्मचारियों को राहत देने की दिशा में काम कर स‌के। स‌बसे महत्वपूर्ण तथ्य है कि जो टाटा के कर्मचारी नहीं थे, वैसे रेल कर्मी, पुलिस वाले यहां तक कि पैदल चलने वालों को भी टाटा ने अपने अपनी मुआवजा योजना का लाभ दिया। अनेक ऎसे लोगों को प्रति माह दस हजार रुपये तक छह माह तक मदद पहुंचायी गयी। एक कुली की चार वर्षीय बच्ची, जिसे चार गोलियां लगी थी और जिसका ईलाज स‌रकारी अस्पताल में चल रहा था, उसे मुंबई अस्पताल ले जाया गया, जहां उसके ईलाज पर कई लाख रुपये खर्च हुए और बच्ची पूरी तरह स‌लामत है।

भाग-दौड़ में अपनी रेहड़ी गंवाने वाले लोगों को नई रेहड़ी उपलब्ध करायी गयी ताकि वे अपना छोटा कारोबार फिर स‌े प्रारंभ कर स‌कें। इस आतंकवादी हमले में मारे गये लोगों के 46 बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी टाटा ने ली है। घटना के तीन खरतनाक दिनों तक खुद रतन टाटा हर अंतिम स‌ंस्कार में खुद शामिल होते रहे जबकि उस दौरान मुंबई पूरी तरह आतंक के स‌ाये में जी रही थी। कर्मचारियों को टाटा ने जो लाभ दिये हैं, उसमें मारे गये कर्मचारियों के परिवार के पूरे जीवनकाल तक का वेतन,बच्चों की पढ़ाई का पूरा खर्चा, परिवार को पूरी चिकित्सा स‌ुविधा शामिल है। स‌ाथ ही मारे गये कर्मचारियों पर अग्रिम अथवा कर्ज का जो बोझ था, उन्हें भी पूरी तरह माफ कर दिया गया। यानी हर प्रभावित परिवार को 36 स‌े 85 लाख रुपये का लाभ मिला।

निष्कर्ष

किसी कंपनी के कर्मचारी में जज्बा कैसे पैदा होता है, इसे स‌मझने की आवश्यकता है। यह कोई ऎसी बात नहीं, जिसकी पढ़ाई होती हो अथवा इसका प्रशि&ण मिलता है। यह किसी कंपनी के अंदर विरासत में पैदा होने वाली ऊर्जा है। बताते चलें कि जिस होटल में यह हमला हुआ था, उसे जमशेदजी टाटा ने अंग्रेजों द्वारा अपमानित किये जाने के बाद खरीदा था। अंग्रेजों ने अपने होटल में उन्हे ठहरने की अनुमति देने स‌े इंकार कर दिया था। इस होटल के पुनर्निर्माण के दौरान भी रतन टाटा ने अपने लोगों के बीच यह कहा था कि जब हम किसी स‌ंपत्ति को फिर स‌े स‌जाने पर इतना खर्च कर स‌कते हैं तो अपने कर्मचारियों के परिवार का जीवन स‌ंवारने में कटौती किस बात की। होटल को बनाने के मुकाबले मारे गये कर्मचारियों के आश्रितों की मदद में कोई कटौती नहीं की जाएगी।

शायद इसे भी कहते हैं कॉरपोरेट शोसल रेसपांसिबिलिटी।

5 comments:

vijay kumar sappatti said...

नदीम भाई .
नमस्कार
मैंने पूरी रिपोर्ट पढ़ी और रजत जी से पूरी तरह सहमत हूँ कि ,इसी को corporate social responsibility कहते है . और सच्चे मायने में सही उद्योगपति सिर्फ TATA GROUP ही है .
हमारे घर के पड़ोस में एक लड़का था , जो कि ताज में रसोईया था , उसकी मृत्यु इस हमले में हुई और टाटा ग्रुप ने सारी जिम्मेदारी ली.
हम जब पढकर निकले थे तब से लेकर आज तक , हमारी एक ही चाहत है कि , हम टाटा ग्रुप में काम करे.

आपने ये लेख लिखकर बहुत ही अच्छी बात को सामने लाया है . इस लेख को दूसरे सारे चैनल पर भी डाले.

धन्यवाद.
विजय

रंजीत/ Ranjit said...

पढ़कर बहुत सुकून मिला, दादा। वाकई टाटा ने प्रशंसनीय काम किया है। उनके कामों को बहुत मोटे फंट साइज में अंडरलाइन किया जाना चाहिए। क्योंकि यह बाजारवाद के लगातार सघन होते दौर की घटना है। वही बाजारवाद जिसने आदमी को एक संसाधन या ग्राकहक से ज्यादा कुछ नहीं समझता, जिसने मान लिया है कि "एट लास्ट, इनकांपीटेंट विल बी पेरिश्ड', शायद टाटा के ये काम बाजारवाद की अंधी सुरंग की ओर बढ़ती दुनिया को बचा लें!

नदीम अख़्तर said...

टाटा घराना क्यों देश में अन्य घरानों से अलग है, यह दृष्टांत इसका खुलासा करता है। टाटा में नौकरी करने के लिए लोग यूं नहीं मरे रहते। आज भी मानवीय संवेदनाओं के साथ कोई कंपनी अपने कर्मचारियों को पाल रही है, तो वह टाटा ही है। खैर, आपके पोस्ट ने आंखें खोली ही नहीं, बल्कि टाटा को समझने का एक नया आयाम दिया है। उम्मीद है कि आगे भी ऐसी ही बातों से रू-ब-रू होते रहेंगे हम लोग।

વિદયુત said...

नदीम भाई,
रांची हल्ला का अंक पसंद आया. गुप्तजी को साधुवाद.
मात्र उद्योजक हैं, इसी वजह टाटा परिवार पे तीक्ष्ण कटाक्ष हों,
तो सत्कर्म से जुड़े मुठ्ठी भर लोग भी छितरते देर न लगेगी. झ
गुरबाणी कहती है, "दे हे शिवा बार मोहे इही, शुभ कर्मनसे कबहूँ न टरों"...

lankadahan.blogspot.com said...

आज समझ में आया की क्यों लोग कहते रहे हैं की चप्‍पल में बाटा और नौकरी में टाटा का जोड़ नही। रजत सर का ये लेख हमें उस अंदरूनी सच्‍चाई से रूबरू करा गया जिसे चैनलों और अन्‍य माध्‍यमों ने कभी नही बताया। साधुवाद के पात्र रतन टाटा हैं जो कभी भी इस सबके एवज में प्रचार की भूख नही पालते।