हम जीते हैं क्यूं रोज़ ज़िंदगी
क्यूं न ऐसा हो कि जब हम भर जाएं
तो कुछ दिनों के लिए हम मर जाएं
चंद रोज़ मर कर जब चाहें
वापस ज़िंदा होकर आएं
कुछ दिन पहले इंटरनेट को खंगालते हुए जब क्रायोनिक्स के बारे में पढ़ा तो अपने एक अजीज़ मित्र की ये कविता याद आ गई. लगा कि जिंदगी से भर जाने के बाद कुछ दिन के लिए मर जाना और फिर जिंदा होकर वापस आना अपनी जिंदगी रहते मुमकिन हो सकता है. दरअसल क्रायोनिक्स मौत के बाद शरीर को बेहद कम तापमान पर तब तक सुरक्षित रखने की प्रक्रिया है जब तक विज्ञान इतना विकसित न हो जाए कि मुर्दों में जान फूंकी जा सके. शरीर को सुरक्षित रखने की इस प्रक्रिया को क्रायोप्रिजर्वेशन कहा जाता है. यानी हो सकता है कि एक दिन आप बहुत गहरी नींद से जागें और पाएं कि दुनिया 200 साल आगे निकल गई है और आप अपने आसपास किसी को भी नहीं जानते. या फिर जान भी सकते हैं अगर आपके इष्ट मित्रों ने भी आपके साथ खुद को क्रायोप्रिज़र्व्ड करवाया हो.
अगर आप अब भी ये सोच रहे हैं कि ये सब बातें अभी कागजी और फैंटसी की दुनिया में ही हैं तो आपको बता दें कि जानी-मानी मॉडल और अभिनेत्री पेरिस हिल्टन सहित करीब एक हजार शख्सियतों ने क्रायोप्रिजर्वेशन के लिए पंजीकरण करवा लिया है और 147 लोगों का तो क्रायोप्रिजर्वेशन हो भी चुका है. पेरिस हिल्टन के बारे में एक रोचक बात ये भी है कि वे अकेली नहीं बल्कि अपने कुत्ते के साथ फिर से जिंदा होना चाहती हैं.
फिलहाल अमेरिका में दो ऐसे संगठन हैं जो आपको मौत के बाद फिर से जी उठने की उम्मीद दे रहे हैं. ये हैं मिशिगन के क्लिंटन शहर में स्थित द क्रायोनिक्स इंस्टीट्यूट और एरिजोना के स्कॉट्सडेल शहर में स्थित एल्कॉर. क्रायोनिक्स के ज़रिए फिर से ज़िंदा होने की इच्छा रखने वालों के पास दो तरह के विकल्प होते हैं. पहले विकल्प के अंतर्गत पूरे शरीर को सुरक्षित रखा जा सकता है. दूसरे विकल्प में शरीर से सिर को अलग कर सिर्फ उसे ही सुरक्षित रखा जाता है. इसके पीछे ये सोच होती है कि एक वृद्ध इंसान अपने जर्जर शरीर के साथ फिर से जीना नहीं चाहेगा और जब उसे जिंदा किया जाएगा तो विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली होगी कि उसके दिमाग के लिए एक नया शरीर भी तैयार होगा. जहां तक इन तरीकों में आने वाले खर्च का सवाल है तो एल्कॉर पहले विकल्प के लिए 80,000 और दूसरे विकल्प के लिए 42,000 पाउंड्स वसूलती है.
क्रायोनिक्स के पैरोकार इसके पक्ष में भले ही तमाम दावे करें मगर इस पर विवाद और आपत्तियां उठती रही हैं. कुछ ऐसी वैज्ञानिक बाधाएं हैं जिनके बारे में कुछ लोगों का कहना है कि उनसे कभी पार नहीं पाया जा सकेगा. मसलन पूरे शरीर को सुरक्षित करने के लिए जिन रसायनों (क्रायोप्रोटेक्टेंट कैमिकल्स) का वर्तमान में इस्तेमाल किया जा रहा है उनसे शरीर को अच्छा-खासा नुकसान पहुंचता है. ऐसे लोगों को फिर से जीवित करने के लिए नुकसान की इस प्रक्रिया को पलटने की जरूरत होगी. इसके साथ ही उस बीमारी का इलाज खोजे जाने की भी जरूरत होगी जिससे संबंधित व्यक्ति की मौत हुई थी.
मगर उम्मीद की किरण ये है कि विज्ञान उस बिंदु तक तो पहुंच ही गया है जहां उसने जीवन के स्वरूपों को जमी हुई और स्थिर अवस्था में रखने और फिर बाद में उसे पुनर्जीवित करने के तरीके खोज लिए हैं. मसलन लाल रक्त कोशिकाएं, स्टेम कोशिकाएं, शुक्राणु और अंडाणु को क्रायोबॉयोलॉजी का इस्तेमाल करके ही सुरक्षित रखने का चलन आम हो चुका है. हालांकि ये काफी सरल स्वरूप हैं और शरीर जैसे बेहद जटिल तंत्र को सुरक्षित रखना अब भी एक चुनौती है.
चलिए अब लगे हाथ ये भी जान लिया जाए कि शरीर को क्रायोप्रिजर्व्ड आखिर किया कैसे जाता है. जैसे ही दिल धड़कना बंद करता है और कानूनी परिभाषा के हिसाब से व्यक्ति की मौत हो जाती है तो शरीर को संरक्षित करने वाली टीम फौरन अपने काम में जुट जाती है. सबसे पहले और मरते ही शरीर को कम तापमान में रखकर दिमाग में पर्याप्त खून भेजने का इंतजाम किया जाता है ताकि दिमाग की कोशिकाएं सलामत रहें. गौरतलब है कि आक्सीजन न मिलने से कोशिकाएं मरने लगती हैं. और यदि शरीर को तुरंत कम तापमान में रख दिया जाए तो ये प्रक्रिया धीमी हो जाती है. उदाहरण के लिए तापमान में 10 डिग्री कमी लाकर इस प्रक्रिया में लगने वाले समय को दुगुना किया जा सकता है. जिस जगह मौत हुई है वहां से क्रायोप्रिजर्वेशन किए जाने वाली जगह (क्रायोनिक्स फैसिलिटी) तक जाने के सफर में खून के थक्के न बनने लगें इसके लिए इंजेक्शन की मदद से हेपेरिन नामक दवा दी जाती है.
अब शव को क्रायोनिक फैसिलिटी ले जाया जाता है और यहां सबसे पहला काम होता है शरीर में मौजूद 60 फीसदी पानी को बाहर निकालना. ये काम इसलिए किया जाता है कि अगर शरीर को सीधे ही बेहद कम तापमान पर तरल नाइट्रोजन में रख दिया जाएगा तो कोशिकाओं के भीतर पानी जम जाएगा. चूंकि पानी जमने पर आकार में फैल जाता है इसलिए ये कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाएगा. कोशिकाओं से मिलकर ऊतक(टिश्यू) बनते हैं., ऊतकों से मिलकर अंग और फिर अंगों से मिलकर शरीर. यानी कोशिका को सुरक्षित रखना बेहद अहम होता है. उनसे पानी को बाहर निकालकर उसकी जगह शरीर में क्रायोप्रोटेक्टेंट नामक रसायन भर दिए जाते हैं. ये कम तापमान पर जमते नहीं और इसलिए कोशिका उसी अवस्था में सुरक्षित रहती है. इस प्रक्रिया को विट्रीफिकेशन कहा जाता है.
इसके बाद शरीर को बर्फ की मदद से -130 डिग्री तापमान तक ठंडा किया जाता है. अगला कदम होता है शरीर को तरल नाइट्रोजन से भरे एक टैंक में रखना. यहां तापमान -196 डिग्री रखा जाता है.
इसके बाद कुछ रह जाता है तो सिर्फ जीवित होने का अनिश्चित इंतजार.
विकास बहुगुणा का लेख तहलका से साभार
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