Sunday, May 18, 2008

मिथक इतिहास नहीं हो सकता

डी एन झा

यह प्रख्यात इतिहासकार डीडी कोसंबी का जन्मशती वर्ष है. कोसंबी गणित के विद्वान थे. जो सबसे बडी बात उनके बारे में है, वह यह कि उन्होंने पेशेवर इतिहासकार न होते हुए भी इतिहास लेखन पर बडा असर डाला. वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न थे. उन्होंने संस्कृत के टेक्स्ट पर आधारित ग्रंथों, आर्कियोलॉजी, गणित में अभूतपूर्व काम किया. इतिहास में तो उनका योगदान है ही.

उनके इतिहास लेखन को शुरू में पसंद नहीं किया गया. जैसे एएस अल्तेकर थे, जो उन्हें पसंद नहीं करते थे. कोसंबी का मार्क्सवादी दृष्टिकोण भी लोगों को खटकता था. उन्हें बहुत दिनों तक एक इतिहासकार के रूप में मान्यता तक नहीं दी गयी. पटना विश्वविद्यालय पहला विश्वविद्यालय था, जिसने कोसंबी को एक इतिहासकार के बतौर बुलाया. कोसंबी पटना पहली बार आये 1964 में. उन्हें प्रो रामशरण शर्मा ने बुलाया था. उन्होंने अपने लेक्चर के दौरान स्लाइड शो प्रस्तुत किया था.

डी डी कोसंबी

1907-1966

उन्होंने पुणे के आसपास के इलाकों से प्राप्त मोनोलिथिक मॉन्यूमेंट्स के आधार पर यह साबित किया था कि हमारे समाज में उपस्थित धार्मिक विश्वासों और परंपराओं के सूत्र प्रागैतिहासिक जमाने तक जाते हैं, भले ही उनका रूप बदल गया है.

इस लेक्चर के बाद काफी लोग ऐसे थे, जिन्होंने विरोध जाहिर किया. उनमें के कुछ उठ कर चले भी गये. वे विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक थे. उनसे वे ऐतिहासिक तथ्य बरदाश्त नहीं हुए. इस तरह कोसंबी ने देवी-देवताओं के प्रागैतिहासिक अवशेष ढूंढे और यह धार्मिक विश्वासवाले लोगों के लिए हजम करनेवाली चीज नहीं थी. वे भला इसे कैसे स्वीकार करते कि उनके देवी-देवता असल में प्राक इतिहास के पात्र हैं.


इसके बाद इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने इलाहाबाद में उन्हें आमंत्रित किया. कोसंबी की किताबें पहले आ गयी थीं. उन्हें इतिहासकार के रूप में मान्यता बाद में मिली. आज हम पाते हैं कि भारत में इतिहास के क्षेत्र में जितनी भी बहसें चल रही हैं, उनका कहीं-न-कहीं कोसंबी के लेखन से तार जुडता है.

हम पाते हैं कि कोसंबी का लेखन बहुत बडा था. जैसे कि अभी भारतीय इतिहास लेखन में सामंतवाद को लेकर बहस चल रही है कि भारत में सामंती प्रथा थी या नहीं जैसी कि यूरोप में थी. भारत को एक राष्ट्र के बतौर देखा जाये या नहीं. सब ऑल्टर्न स्टडीज वाले कहते हैं कि चूंकि आजादी की लडाई के दौरान छोटे समुदायों का कोई नेता नहीं था, हालांकि उनके विद्रोह थे, तो फिर इसे राष्ट्र कैसे माना जाये. यह सब चुनौतियां हैं.

हालांकि सबऑल्टर्न स्टडीज का मतलब तो यह है कि वह छोटे और हाशिये पर के लोगों और समुदायों का अध्ययन करे, मगर वे लोग वर्तमान इतिहास लेखन को ही खारिज करने लगे हैं. प्रो रामशरण शर्मा ने कितना पहले शूद्रों और दलितों पर लिखा. अब सब ऑल्टर्न वालों का कहना है कि प्रो शर्मा का लेखन कुलीन और अभिजात लेखन है.

इतिहास लेखन एक जटिल प्रक्रिया है और यह कई सवालों के स्तरों से गुजरने के बाद शुरू होता है. कोई भी इतिहासकार जब लिखने बैठता है तो उसे समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति और जिस समस्या का अध्ययन करना है, उसको लेकर तीन सवाल उठाने चाहिए. पहला सवाल यह कि समस्या क्या है, दूसरा कि कहां है और तीसरा सवाल यह कि समस्या क्यों पैदा हुई. इन सवालों के जवाब खोजने के दौरान इतिहासकार बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर खोज लेते हैं. सामाजिक विकास की परिघटनाओं को समझने के क्रम में ही उसके दायरे में सामाजिक विकास आदि सब परिप्रेक्ष्य आ जाते हैं.

अब रामसेतु के मुद्दे को ही लें. जितने भी दक्षिणपंथी लोग हैं, उनका कहना है कि नासा ने जो एरियल फोटो लिये हैं, उनसे यही सिद्ध होता है कि यह वही पुल है, जिसे राम के जमाने में वानर सेना ने बनाया था. लेकिन नासा ने ऐसा कभी नहीं कहा. नासा ने कहा था कि यह जियोलॉजिकल फॉरमेशन है जो कि लाखों वर्ष पुराना है. लेकिन लोग यह बात नहीं सुन रहे हैं.

असल में मिथकों के साथ दिक्कत यह है कि जो चीज आपके सामने होती है, उसे आप मिथ से जोड देते हैं. एक उदाहरण जनकपुर का है. जनकपुर को सीता का जन्मस्थान बताया जाता है. मगर वह सीता का जन्मस्थान हो ही नहीं सकता. वह स्थान मुश्किल से 200 साल पुराना है.


अगर मिथकों से कोई भौगोलिक संरचना जुड जाती है, तब भी उस मिथक को इतिहास नहीं माना जा सकता. सरकार ने रामसेतु के संदर्भ में इतिहासकारों की एक कमेटी बनायी थी, जिसमें प्रो रामशरण शर्मा, डॉ पदइया और प्रो बैकुंठन जैसे लोग थे. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा था कि इस संरचना का मिथकों और रामायण में वर्णित रामसेतु से कोई लेना-देना नहीं है.

एक मिथक के इतिहास का रूप लेने का भ्रम पैदा होने की प्रक्रिया जटिल होती है. बार-बार कोई कहानी अगर लोगों के बीच दोहरायी जाये, उसे प्रस्तुत किया जाये तो वह लोकप्रिय होती जाती है.

हम इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं. बिहार के गांवों में लोग काफी समय से आल्हा-ऊदल की कहानी गाते हैं. अगले सौ सालों में मान लीजिए कि कोई इसे लिपिबद्ध कर दे. उसके बाद इसे काव्य मानना शुरू कर दिया जायेगा. इस तरह लोकप्रिय वाचिक परंपरा लिखित साहित्य परंपरा में बदल जाती है. और फिर लिखित साहित्य को कालांतर में भ्रमपूर्वक इतिहास के बतौर ले लिया जाता है. रामायण के साथ यही हुआ.

हम देखते हैं कि काल और स्थान के अनुरूप रामायण भी अलग-अलग हैं. फादर कामिल बुल्के ने राम कथा पर जो शोध किया था, उसके तहत उन्होंने रामायणों की कुल संख्या 300 बतायी. मगर रामानुजम ने जो शोध किया, तो उनका कहना है कि कन्नड और तेलुगु में ही हजारों रामायण हैं. बाकी भाषाओं को तो छोड दीजिए. और उनके पाठों में भी अंतर है.


ऐसा इसलिए होता है कि कहानी जब ट्रेवल करती है, समाज का एक वर्ग जब दूसरे वर्ग की कहानी को अपनाता है, तो इसमें वह थोडी बदल जाती है और इसे अपनाने की प्रक्रिया की भी अपनी एक कहानी बन जाती है.

आमतौर पर उत्तर भारत में माना जाता है कि सीता बडी पतिव्रता स्त्री थीं. मगर संथालों के रामायण में सीता के चरित्र के बारे में बताया गया है कि उनके रावण से भी संबंध थे और लक्ष्मण से भी. बौद्धों का जो रामायण है-दशरथ जातक-उसमें राम और सीता को भाई-बहन बताया जाता है और वे बाद में शादी करते हैं. इन राम का संबंध अयोध्या से नहीं बल्कि बनारस से है.

तो यह कहना कि कोई भी कहानी स्थिर है, सही नहीं है. वाल्मीकि रामायण के बारे में इतिहासकारों का मानना है कि उसका पहला और अंतिम कांड बाद में लिखा गया. हमें इन चीजों को एक लचीले नजरिये से देखना चाहिए.

हम देखते हैं कि अभी की प्रमुख समस्या सांप्रदायिकता की है. इतिहासकारों को सांप्रदायिकता से लडना है. आरसी मजूमदार जैसे इतिहासकारों का बडा असर रहा है और जो दक्षिणपंथी गिरोह हैं, वे उन्हीं से अपनी लेजिटिमेसी ठहराते रहे हैं. मगर फिर भी आजादी के बाद से इतिहासकारों का नजरिया काफी वैज्ञानिक ही रहा है. इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस में सैकडों इतिहासकार हैं. इतिहास कांग्रेस ने कभी भी सांप्रदायिक दृष्टि नहीं अपनायी. सांप्रदायिक पक्ष जो एक्सक्लूसिव विजन देता है, अल्पसंख्यकों के खिलाफ और अपने अतीत के बारे में वह बिल्कुल गलत है. जो भी इस देश में गंभीर रिसर्चर हैं, वे इसके विरुद्ध हैं. यह एक बडी चुनौती है.


अपने यहां सिर्फ दृष्टि की समस्या ही नहीं है. इतिहास लेखन को व्यवस्थाजन्य चुनौतियों से भी दो-चार होना पडता है. यह एक बडी कमजोरी है कि खुदाइयों के बारे में कुछ पता नहीं चल पाता कि उनमें क्या मिला और उनसे हम किस निष्कर्ष पर पहुंचें. दरअसल यह गलती आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की है. वह सब जगह खुदाई करवाती रहती है, मगर उसकी रिपोर्टें नहीं जमा की जातीं.

आप इसका नुकसान जानना चाहते हैं तो केवल अयोध्या विवाद का उदाहरण देना काफी होगा. इस विवाद में पूरा मामला इतना गडबडाया सिर्फ इसलिए कि बी लाल ने सालों तक खुदाई की रिपोर्ट नहीं जमा की. जो छोटी खुदाई हुई, कोर्ट के आदेश पर, सिर्फ उसकी रिपोर्ट जमा की गयी. उसके साथ भी छेड-छाड की गयी थी. जहां भी, जो भी अवशेष मिलता है, उसे भंडार में जमा कर दिया जाता है. उसके बारे में रिपोर्ट जमा ही नहीं होती. इससे पता नहीं चलता कि क्या मिला है और उसका क्या महत्व है।
यह आलोख रविवार.कॉम से साभार लिया गया है.

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