Thursday, June 26, 2008

एक कसक है...

सुनील चौधरी
कोई क्यों नहीं सुनता इन सिसकियों को
किसी की आँखें नम होती नहीं क्यों
इन्हें देखकर
जो हमेशा से दीन-हीन
और लाचार हैं
तब भी जब थे गुलाम हम
अब भी जब हैं आजाद हम.
माँ के स्तनों के दूध सूख गये
पिता की बाहें कमज़ोर हो गयीं
कलम की स्याही सूख चुकी है
कागज़ की जगह कंप्यूटर,
कलम की जगह कीबोर्ड
और संवेदना की जगह
नौकरी की लाचारी ने ले ली है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

संवेदनाविहिन जग में किसे सुना रहे हैं आप भी!!!


=--बहुत सशक्त रचना है.

vicky said...

Kya Baat Hai Yaar.....Sunil Bhaiya...Aap To Kavi Ho Gaye Ho Yaar....Kya Jakas Kavita Mari Hai Yaar.....Maa Kasam...Maza Aa Gaya Bhiru......Maza Aa Gaya.....Dhayaan Dena Aap....Kahi Harivanshji Ko Aapki Is Gun Ki Khabar Na Lage....Agar Lag Gai....To Aapko Rang Aur Surbhi Ke Liye Bhi Kavitayn Likhne Ka Zimma Mil Jayeega............But Maza Aa Gaya Bhiru......