प्रमोद
इस बार बीजिंग ओलंपिक में निश्चय ही पहले अभिनव बिंद्रा का स्वर्ण और फ़िर सुशील कुमार एवं वीरेन्द्र कुमार के कांस्य पदक के रूप में हमारे वीर योद्धाओं ने इतिहास रचा है वह भी अपने बल पर। इन तीन पदकों ने हमें जश्न मनाने का मौका प्रदान किया है। हमने मनाया और इन पदक वीरों को ढेर सारे इनाम भी दिए, जिसके ये हकदार भी हैं। इसके बावजूद एक सवाल निश्चय ही हमारे सामने मुह बाए खड़ा है की सवा सौ करोड़ की आवादी वाले देश को पदको के लिए इस कदर तड़पना क्यों पड़ता है?
पदको की जीत के साथ ही इनामों की झडी लग गई। इनामों की घोषणाएं इस तेजी से राज्य सरकारों द्वारा की गई कि कई लोगों को तो पदक मिलने की जानकारी इनाम मिलने कि घोषणा के बाद ही मिली होगी। काश! इसी प्रकार का जोश और दानवृत्ति हमारे देश में खेल सुविधाओं की आधारभूत संरचनाएं विकसित करने में दिखाई देती तो शायद हम पदकों के लिए इस कदर नही तरसते।
हमारे देश में खेल प्रतिभा की भी कमी नही है पर उसे पूरी तरह फलने-फूलने का अवसर नही मिल पाता। अच्छे कोच की कमी, आधुनिक खेल संसाधनों का अभाव, खिलाडिओं को वित्तीय सहायता का समुचित प्रबंध न होना, खेल प्रबंधन की कमी इत्यादि कारकों के साथ साथ राजनितिक इच्छाशक्ति का अभाव इसके लिए जिम्मेवार हैं। खेलों सम्बन्धी आधारभूत संरचना के अभाव में ही न जाने कितनी खेल योग्यताएं उभरने से पहले ही दम तोड़ देती हैं।
सामान्य दिनों में जनता की अभिरुचि भी मात्र क्रिकेट से जुड़कर रह जाती है। जितनी क्रिकेट के प्रति जागरूकता के दर्शन होते हैं उतनी शायद राष्ट्रीय खेल हाकी के प्रति भी नही। बच्चों को बल्ला और गेंद आसानी से मिल जाती है पर उन्हें कुश्ती,जिम्नास्टिक, तैराकी, पोल-वाल्ट, बास्केटबाल, हाकी इत्यादि से जुड़ने का मौका शायद ही पाता है। ऐसे में ओलम्पिक में हमारा पिछड़ना लाजमी है। इस स्थिति से उभरने के लिए हमें 'खेल का मतलब क्रिकेट' की मानसिकता छोड़नी होगी।
विद्यालय स्तर से ही खेल प्रतियोगिताओं के आयोजनों तथा उसमे उभरते प्रतिभाओं की पहचान कर उनके निरंतर विकास को अग्रसारित किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। निचले स्तर से खेल प्रतिभाओं के विकास को प्रदान की गई उचित दिशा ही हमें ओलम्पिक में पदकों के सुखाड़ से निजात दिला सकती है।
बीजिंग ओलम्पिक में हमारे खिलाड़ियों का पिछले ओलंपिकों के मुकाबले निश्चय ही एक कदम ऊपर का प्रदर्शन रहा है पर जनसँख्या में विश्व में दुसरे स्थान पर रहने वाले भारत के सवा सौ करोड़ लोगो के लिए यह मात्र संतोस्प्रद परिणाम ही कहा जा सकता है. इसे एक सुनहरे खेल भविष्य की और एक संकेत मानकर अगले ओलम्पिक में ज्यादा पदकों के निश्चय के साथ अभी से दृढ़तापूर्वक प्रयास प्रारम्भ कर देना चाहिए। तभी हम खेलों के अगले पायदान तक पहुँच सकेंगे।
1 comment:
असल में ओलम्पिक से पहले कोई प्रोत्साहन या प्रशिक्षण की व्यवस्था से प्राधिकारियों को इसलिए गुरेज़ है क्योंकि यहाँ का तंत्र युगद्रष्टा नहीं है. भाग्य जैसे छद्म शब्दों को बैसाखी बना के अपनी झोली में निःशब्द सफलता झटक लेने की रूढ़ भारतीय प्रवृत्ति शासकों से भविष्य निर्माण के सारे अवसर चीन लेती है. और मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ की अगर आज भारत के सपूत मैडल ला रहे हैं, तो इसमें उनकी अपनी म्हणत और लगन है, ना कि भाग्य या फिर कोई गौडफादर. वैसे आपने जो लिखा है प्रमोद जी, उससे मैं इत्तेफाक तो रखता हूँ, लेकिन साथ साथ ये भी कहना चाहता हूँ कि खेलों में भारत कि दुर्गति के लिए हम लोग भी कम जिम्मेवार नहीं हैं. अगर एक तरार क्रिकेट का मैच चलता रहे और दूसरे चैनल में भारतीय मुक्केबाज़ किसी से जूझता हुआ दिखाया जा रहा हो, तो 90 फीसदी भारतीय भी क्रिकेट देखना पसंद करेंगे. मैं ये नहीं कहता कि क्रिकेट देखना छोड़ दो, लेकिन साथ ही साथ एनी खेलों को भी देखो और उसकी चर्चा करो, ताकि खिलाड़ी कम से कम सीन में बना रहे.. कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई है मेरे दोस्त, फ़िल्म अभी बाकि है....
नदीम अख्तर
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