यह खत एक अनपढ़ मां का है। अनपढ़ मां यानी सबिना टेरेसा। सबिना टेरेसा पिछले कई वर्षों से अनाथ आश्रम से जुड़ी हुई हैं। पहले निवेदिता आश्रम से जुड़ी हुई थीं, अब आंचल शिशु आश्रम में हैं। सब उन्हें सम्मान से और प्यार से नानी कहते हैं। नानी से हमेशा मिलना-जुलना होता है। पिछले दिनों बारिश की एक दोपहरी में घंटों नानी के साथ एकांत में बातचीत हुई। तब नानी ने अपने बारे में कुछ बातें बतायीं। उन्होंने अपने परिवार के बारे में बताया। अपनी एक बेटी गीता के बारे में बताया। गीता उसकी छोटी बेटी है। नानी ने उसे बैंकके एक साहब के यहां छोड़ दिया था-पढ़ाई-लिखाई करने के लिए। गीता वहीं पढ़ी-लिखी और फिर बैंक में ही अधिकारी बन गयी। गीता प्रेम विवाह कर रांची छोड़ कर चली गयी। उसके बाद सिर्फ एक बार वह अपनी मां से मिली। नानी से उस दिन बात हो रही थी, तो बताया कि वह यदि पढ़ी लिखी होती और अपनी बेटी का पता मालूम होता तो कुछ इस तरह का पत्र उसे लिखती। नानी ने उस खत के बारे में जो बताया था और जो जेहन में है, उसे ही यहां शब्द देने की कोशिश कर रहा हूं। इस उम्मीद केसाथ किशायद कभी यह गीता तकपहुंच जाये... और गीता आ जाये अपनी मां से मिलने।
सदा सुखी रहो, आल-औलाद खुश रहे
बेटी, मैं सबीना टेरेसा। तेरी अम्मा। याद आयी...रांची से यह खत लिख रही हूं। मैं यहां ठीक हूं बेटी और तेरी बड़ी बहन मरियम और भाई मनोज भी हर दिन के संघर्ष के बीच खुश हैं। मनोज रिक्शा से जिंदगी की गाड़ी खींच रहा है और मरियम दिहाड़ी मजदूर बन गयी है। और मैं...मैं तो कई-कई बच्चों की नानी बन गयी हूं। कई-कई बच्चों की। या बड़े, या बूढ़े... सब मुझे नानी ही कहकर बुलाते हैं। इस नानी केसंबोधन को सुनते-सुनते मैं अपना नाम न जाने कब का भूल गयी। फिर भी मन में यह कसक हमेशा बनी रहती है कि तू कैसी बेटी है, जिसे इतने वर्षों में एक बार भी तेरी मां याद नहीं आयी। और सच कहूं,
तो दर्जनों बच्चों की नानी बनने केबावजूद कभी-कभी तो यह मन करता ही है कि अपने उन नाती-नतीनी को भी एक बार देख लूं, जो मेरे अपने हैं। मुझे तो यह भी नहीं पता कि तेरे कितने बच्चे हैं। तुम मेरी ही बेटी हो न गीता। कैसे भूल गयी सब। कैसे भूल गयी वह दिन, जब मैं साहब जी के यहां काम करने जाती थी, तो तुम्हें साथ में लेकर जाती थी। और वहीं एकदिन साहब जी ने कहा था कि इस बेटी को मेरे पास छोड़ दो, मैं इसे पढ़ा दूंगा...फिर तुम वहीं रहने लगी थी और पढ़-लिखकर नौकरी पा ली, खुद ही शादी भी कर ली...
मुझे वह दिन भी याद है गीता, जब मैं गुमला जिले केभिकमपुर गांव से ट्रकपर सवार होकर रांची आ गयी थी। तुम तो बहुत छोटी थी न, इसलिए तुम्हें कुछ बताया भी नहीं। तुम जरा बड़ी हुई तो इसी बात से चिढ़ती थी न कि तेरी मां यानी मैं हड़िया-दारू पीती हूं... इसलिए मैं घृणा करने लायक हूं, तुमने जिस लड़के से शादी की, उसे भी तो इसीलिए मेरे पास नहीं लेकर आना चाहती, क्योंकि मैं दारूबाज हूं। तो सुन गीता- तेरी मां सबीना शुरू से ऐसी नहीं रही थी। तुझे नहीं पता होगा- जब मैं ब्याह कर तेरे पिता केघर आयी थी, तो मैं ही वह पहली महिला थी गांव में, जिसने हड़िया का खुलकर विरोध किया था। और कई-कई बर्तनों में भरे हड़िये को फेंक दिया था। जानती हो तब कितनी पंचायत बैठी थी... और सुनो, वह तो मैं जब गुमला से आयी तो यहां थाने में काम करने लगी। वहीं पहली बार दारू की आदत लगी। पुलिसवाला सब कहीं-कहीं से दारू लेकर आता था... और पीने को देता था। मैंने गांव में दारू-हड़िया का विरोध किया और रांची आकर पीने की आदत पड़ गयी। और सुन एक बात... जिस दिन पहली बार दारू का स्वाद चखी थी न, उस दिन मैंने क्या किया था...? मैं सभी पुलिसवालों का लोटा उठाकर घर ले गयी थी। सबको यही बताया था कि इतना पैसा कमाते हो तो शौचालय के लिए अलग से लोटा क्यों नहीं रख लेते...एक ही से खाते हो, नहाते हो, शौच के लिए भी जाते हो...आदि। तब अगले दिन से सब पुलिसवालों ने दो-दो लोटा रखना शुरू कर दिया। पहली बार दारूपीने की निशानी केरूप में वे 12 लोटे अब भी मेरे पास हैं।
कितनी यादें तो हैं, कितने की याद दिलाऊं... तुझे तो अब याद भी नहीं होगा कि तेरा नाम बचपन में पेचवा था। साहब जी के पास जब तू रहने लगी तो उन्होंने तेरा नाम बदल कर गीता रख दिया, लेकिन साहब जी ने नाम बदलते वक्त पूछा था कि इसका नाम पेचवा ठीक नहीं लगता, गीता कर देता हूं। लेकिन तुमने तो मुझसे जुड़ी हुई कोई भी निशानी अपने पास नहीं रखी, जिससे लगे कि मेरा कोई हक तुम पर कभी रहा है या तेरे अस्तित्व में मेरी भी कोई भूमिका रही है। जानती हो गीता...25 साल बाद अपने घर गयी थी। अभी पिछले माह। सबकुछ छोड़ दिया है मैंने। जमीन-जायदाद...सब छोड़ दिया। क्या करती जमीन का मोह रख कर। जमीन आदमी को खाना देता था, अब वह आदमी की जान लेने लगा है। बस! थोड़ा मोह इसलिए हो जाता है कि चाहे लाख पैसा कमा लें, खायेंगे तो रुपइया नहीं न, सोना-चांदी नहीं न... खाना तो अनाज ही होगा न, इसीलिए...
गीता तेरा दुख तो इतना ही है न कि तेरी अम्मा यानी मैं इस औकात की नहीं, या फिर इतनी बड़ी हैसियत वाली नहीं कि तू अपने बच्चों को मुझसे मिलवा सके। इसीलिए न दूर-दूर रहती हो, कभी नहीं आना चाहती। कभी भी याद नहीं करती। लेकिन यह सिर्फ तेरा भ्रम है बेटी। दुख क्या होता है, मुझसे पूछो। एक साल में घर से चार-चार लाश उठाये हैं। पहले मेरे पिता स्वाभाविक मौत मर गये। अपनी मां को लेकर रांची आयी, वह भी नहीं बच सकी। बाप के पहले एकभाई मरा डायरिया से। और उसकेकुछ ही दिनों बाद मेरी बहन यानी तेरी मौसी को उसके पति ने टांगी से काट कर मार डाला...फिर भी मैं विचलित नहीं हुई थी। इतना ही क्यों... जानती हो, इतने हादसे के बाद मैं एक दिन अपने भाई केपास मिलने उसके घर पर बेटे के साथ गयी थी। जानती हो तब मेरे भाई ने लोगों से क्या परिचय कराया- हां, अपना ही लोग है लेकिन... उसके बाद अपने भाई से मिलने नहीं गयी। खुद्दारी नहीं छोड़ी बेटी... और अपने तरीके से जीने का अंदाज भी नहीं। ईसाई हूं, लेकिन पिछले कई वर्षों से हिंदू भी उतनी ही हूं...साल में एक बार गिरिजा भी जाती हूं। ताकि मरने के बाद मिट्टी के लिए जगह मिल सके। और तब भी तुझे अपनी मां से नाराजगी है कि मैं तेरे लायक नहीं। जाने दो, मैं अब तेरे लायक कैसे बन सकती हूं लेकिन तू ज्यादा फिक्र मत करना। तेरे बच्चे को देखने की ललक है, नहीं तो 50 बच्चों की नानी हूं मैं... तुझे देखने की ललक है, नहीं तो अब तक कई-कई बच्चों को पाल कर उनकी मां बनने का फर्ज निभा चुकी हूं, निभा रही हूं...एक बुलाती हूं, दस लोग दौड़े आते हैं... तुम जहां भी हो, खुश रहना... जिंदगी में और कुछ नहीं रखा... लेकिन तू खुद्दार नहीं निकली, इसका अफसोस जरूर रहता है मेरे मन में...
तुम्हारी मां
4 comments:
बहुत ही मार्मिक और ह्रदय स्पर्शी चिट्ठी है। काश कि गीता (पेचवा) अपनी मां की ममता को समझ पाती, तो आज उसे इस तरह अपनी ही बेटी को यह बताने की जरूरत न पड़ती कि उसकी सबीना नाम की मां है जो, उसे देखने और उससे मिलने के लिए तड़पती है। साधारणतः बेटियो को कठोर ह्रदय वाली नहीं समझा जाता। बेटे द्वारा वृद्धावस्था में अपने माता पिता को उपेक्षित करने के कई उदाहरण तो हमारे समाज में रोज दिख ही जाते है। लेकिन बेटियों से ऐसी उम्मीद नहीं की जाती। माता पिता के स्वाभिमान की प्रतीक बेटियों से ऐसी अपेक्षा कभी नहीं की जा सकती कि वह सुपुत्री के बदले कुपुत्री का आचरण करें। यदि ऐसी मानसिकता बलवती हो रही है बेटियों में तो, यह बेटी होने पर कलंक है। निंदनीय है। जरा सोचे, समझे क्योकि हर बेटी जीवनक्रम को पूरा करते हुए मां बनती है। ऐसा न हो कि आपको वही सब देखना, सुनना और सहना पड़े जो आज आपके माता पिता सह रहे है। फिर से किसी सबीना की करुण चिट्ठी किसी ब्लॉग में प्रकाशित करने की जरूरत न पड़े, इसके लिए जरूरत है कि हम अपने रिश्तों की गरिमा का महत्व समझे और उसी के अनुसार आचरण करें।
बहुत ही भावुक कर देने वाली...आज की तल्ख़ सच्चाई...प्रभावित किया आपकी लेखनी ने...
बहुत बहुत अच्छा लिखा है, एक विद्रूप सच्चाई से दो-चार करवाया है, मेरा व्यक्तिगत नजरिया यह है की गीता संतान के नाम पर बद-नुमा दाग़ है, एक बात और इतिहास स्वयं को अक्सर दोहराता है, गीता का यह व्यवहार गीता के मुँह पर तमाचे की तरह ही पड़ेगा उसके अपने बच्चों के हाथों, हम अपनी वास्तविकता से दूर भाग सकते हैं मिटा नहीं सकते हैं, जिसने अपने माता-पिता का साथ छोडा वह व्यक्ति विश्वास के योग्य नहीं...किसी भी रिश्ते में नहीं....
agar aap wahi nirala ji hain jo ek akhbar ke first page ke bottom par hamesh chapte hain to main galat nhi hun. aapke ish lekh ne mere ankhon me aansu la diye. ab kya likhu. bhagwan aapki kalam me aur jaan dale. dhero sari subhkamnaiye.
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