काली घटा जल बरसाये दुधिया।
हँसे ताल झरने मौज करे नदिया।।
रिमझिम-रिमझिम सावन भादों गाये।
धरती की देखो हरियाली भाये।
पवन मंद-मंद बहे मुस्काये बगिया।।
मत पूछो बिजली कड़क चमक जाये।
देख यही दिल की धड़कन बढ़ जाये।
हँसे है सन्नाटा हुई दूर निंदिया।।
पड़ती फुहार खूब जियरा लुभाये।
बदली पल भर में उमड़-घुमड़ जाये।
महक छोड़-छोड़ के बहे पुरवइया।।
3 comments:
बेहतरीन रचना, विवेक जी को बधाई.
बरखा की रुत को शब्दों में साकार कर दिया..
सुन्दर रचना ..बधाई..!!
बेहतरीन रचना
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