Friday, September 4, 2009

काली घटा जल बरसाये दुधिया।

काली घटा जल बरसाये दुधिया।
हँसे ताल झरने मौज करे नदिया।।

रिमझिम-रिमझिम सावन भादों गाये।
धरती की देखो हरियाली भाये।
पवन मंद-मंद बहे मुस्काये बगिया।।

मत पूछो बिजली कड़क चमक जाये।
देख यही दिल की धड़कन बढ़ जाये।
हँसे है सन्नाटा हुई दूर निंदिया।।

पड़ती फुहार खूब जियरा लुभाये।
बदली पल भर में उमड़-घुमड़ जाये।
महक छोड़-छोड़ के बहे पुरवइया।।

3 comments:

Udan Tashtari said...

बेहतरीन रचना, विवेक जी को बधाई.

वाणी गीत said...

बरखा की रुत को शब्दों में साकार कर दिया..
सुन्दर रचना ..बधाई..!!

स्वप्न मञ्जूषा said...

बेहतरीन रचना